आगामी लोक सभा चुनावों से पूर्व हुए हर चुनाव की तरह शोर-शराबा हो रहा है और इस बार के चुनावों में युवा मतदाताओं की संख्या अधिक है। इसलिए स्वाभाविक है कि जो राजनीतिक दल विभिन्न सोशल मीडिया मंचों से इस युवा पीढी को लुभाने में सफल होगा उसे युवा पीढी के सर्वाधिक मत मिलेंगे। किंतु इन चुनावों में सबसे खराब पहलू यह है कि इनमें राजनीतिक बढत प्राप्त करने के लिए कारगिल, पुलावामा और बालाकोट जैसे मुद्दों को घसीटा जा रहा है और दोनों पक्ष इस संबंध में आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। हालांकि बालाकोट के बाद सत्तारूढ पार्टी को कुछ बढत मिली है किंतु ज्वलंत सामाजिक और आर्थिक समस्याएं युवा पीढी के भविष्य से जुड़ी हुई हैं तथा इन समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े वायदों से काम नहीं चलने वाला है।
वर्तमान में चैकीदार विषय शीर्ष स्थान पर है और इस पर हमला किया जा रहा है। यदि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा प्रधानमंत्री को चैकीदार चोर है कह रहे हैं तो नरेन्द्र मोदी इसका उत्तर मैं भी चैकीदार हूं कहकर दे रहे हैं। कांग्रेस में अभी अभी प्रवेश करने वाले हार्दिक पटेल ने भी प्रधानमंत्री पर हमला किया है। इस पाटीदार नेता ने अपने ट्विटर हैंडल पर ह्यबेरोजगारह्ण लिखा है। यह उसी तरह से है जिस तरह से मोदी और अन्य मंत्रियों ने ट्विटर पर अपने नाम के आगे चैकीदार जोड़ा है। शिक्षित लोग आम जनता से जुड़ी समस्याओं को समझते हैं जबकि युवा मतदाताओं को इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा नहंी होता है। रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि का मुद्दा समय समय पर उठाया गया है तथा रोजगार के अवसर सृजित करने के वायदे भी किए गए हैं। किंतु देखना यह है कि उद्योगपतियों द्वारा यंत्रीकरण को बढाने के मद्देनजर आगामी सरकार इस समस्या से किस तरह निपटती है।
वस्तुत: दो गैर-सरकारी संगठनों द्वारा हाल में कराए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि उत्तर प्रदेश में रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएं तथा कानून और व्यवस्था मुख्य मुद्दे हैं। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफोर्म्स और उत्तर प्रदेश इलेक्शन वॉच ने उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर सर्वेक्षण कराया। एक अन्य सर्वेक्षण में इसी संगठन ने 18 वर्ष से अधिक आयु के 2.7 लाख लोगों की राय जानी और उसने पाया कि मतदाता रोजगार को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। यह सर्वेक्षण अक्तूबर से दिसंबर 2018 के बीच 534 निर्वाचन क्षेत्रों में कराया गया और इसमें मतदाताओं से सरकार के कार्य निष्पादन के बारे में पूछा गया और जिसे औसत से निचले दर्जे का पाया गया। सभी प्राथकिताओं में सरकार को 5 में से 3 अंक दिए गए और सबसे खराब प्रदर्शन भूमि अतिक्रमण, रोजगार के लिए प्रशिक्षण और भ्रष्टाचार उन्मूलन के बारे में रहा। एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र हर सरकार द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा है। अधिकतर राज्यों में अनेक वर्षों से स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय यथावत है और राष्ट्रीय स्तर पर यह सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 प्रतिशत है। जिसके चलते कम आय वाले देशों में स्वास्थ्य पर निजी व्यय करने वाला भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश बना है।
वर्ष 2015-16 में स्वास्थ्य पर भारत में केवल 140054 करोड़ रूपए खर्च किए गए। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 में स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत खर्च क्रने का लक्ष्य रखा गया था और केन्द्र की 12वीं पंचवर्षीय योजना में मार्च 2017 तक यह लक्ष्य 1.87 प्रतिशत रखा गया था। किंतु यह लक्ष्य प्राप्त नहंी हुआ है। इस निराशा भरे वातावरण में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की है कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो स्वास्थ्य को मूल अधिकार का दर्जा दिया जाएगा और इस क्षेत्र के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए जाएंगे।
हालांकि यह मानना कठिन है कि स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाए जांएगे क्योंकि देश के प्रत्येक विकास खंड में कम से कम एक स्वास्थ्य केन्द्र की आवश्यकता है। कांग्रेस ने एक अन्य महत्वपूर्ण घोषणा देश के 20 प्रतिशत सबसे गरीब परिवारों के लिए 6 हजार रूपए प्रति माह न्यूनतम आय की गारंटी की घोषणा की है जिस पर लगभग 3.6 लाख करोड़ अर्थात सकल घरेलू उत्पाद का 1.8 प्रतिशत खर्च होगा। लाभार्थी परिवार को साल के 72 हजार रूपए दिए जाएंगे और राहुल गांधी ने इसे गरीबी पर अंतिम प्रहार माना है जिससे 5 करोड़ निर्धनतम परिवार लाभान्वित होंगे। यह मनरेगा से भी बड़ी आय गारंटी योजना है।
सामाजिक क्षेत्र में पिछले पांच वर्षों में संघ परिवार और उससे जुड़े हिन्दुत्ववादी संगठनों ने ईश निंदा के समकक्ष शब्द गढे हैं, गोरक्षा आंदोलन चलाया गया जबकि गैर-हिन्दुओं में गोमांस उनके भोजन का हिस्सा है इसलिए गोहत्या को कानून और गोरक्षकों को हिंसा के माध्यम से दंडनीय बनाया गया। मुसलमानों और दलितों का उत्पीड़न किया गया और उन्हें गोमांस भक्षण, गायों के व्यापार तथा उससे जुड़े अन्य कार्यों के कारण उत्पीड़ित किया गया। यही नहंी इन कट्टरवादी लोगों ने गोविंद पंसारे, नरेन्द्र दाभोलकर और गौरी लंकेश जैसे हिन्दू बुद्धिजीवियों की हत्या कीं।
यह एक तरह से बंगलादेश में मुस्लिम तर्कवादियों और पाकिस्तान में सलमान तासीर जैसे धर्मनिरपेक्ष नेताओं की हत्याओं के समान है। अन्य अनेक लोगों को भी जान से हाथ धोना पड़ा जो सरकार की अनुचित नीतियों का विरोध कर रहे थे। सामाजिक और आर्थिक मुद्दे वास्तव में गंभीर हैं और विशेषज्ञों के एक दल का मानना है कि नरेन्द्र मोदी सरकार फिर से सत्ता में आयी तो देश की धर्मनिरपेक्ष भावना, परंपरा और विरासत समापत हो जाएगी। किंतु दूसरे वर्ग का मानना है कि हो सकता है राजग सरकार अब आर्थिक मुद्दों पर ध्यान दे और किसानों सहित ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों की दशा में सुधार का प्रयास करे।
आवश्यक यह है कि हिन्दुत्व पर जो आक्रामक ध्यान दिया जा रहा है उसे समाप्त किया जाना चाहिए। पूर्वी और दक्षिणी भारत में रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाओं से जुड़े हुए हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से सहमत नहंी हैं। हमारी सोच का आधार धर्मनिरपेक्षता है और राजनीतिक नेताओं को धर्म के साथ खिलवाड़ नहंी करना चाहिए और न ही राष्ट्रवाद की झूठी भावना पैदा करनी चाहिए अपितु युवा पीढी को रोजगार उपलब्ध कराना चाहिए। सत्ता में कौन पार्टी आएगी यह चुनावों के परिणाम के बाद ही पता चलेगा किंतु इस वर्ष गांधी जी की 150वीं जन्म सदी मनायी जा रही है।
आशा की जाती है कि जो भी पार्टी सत्ता में आए वह रोजगार सृजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर विशेष ध्यान देगी। उच्च आर्थिक वृद्धि की बड़ी बड़ी बातें निरर्थक हैं क्योंकि आय में विषमता बढती जा रही है और वृद्धि दर का लाभ अधिकतर शहरी क्षेत्रों में संगठित क्षेत्रों तथा बड़े और मध्यम उद्योग घरानों को ही मिल रहा है। धनी वर्ग की समर्थक ऐसी नीतियों को कब तक चलाया जा सकता है। क्या यह गलत होगा कि यदि इसके विरोध में बेरोजगार युवा और किसान देशभर में हिंसक विरोध प्रदर्शन करे?
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