भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ मतदाताओं की कुल संख्या 90 करोड़ से ज्यादा है,जो यूरोपीय यूनियन के सभी देशों के आबादी से भी अधिक है। वर्तमान में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र धन बल का शिकार हो गया है। देश में अभी दुनिया का सबसे महंगा चुनाव जारी है। 2016 के ट्रंप के चुनाव को अब तक का सबसे महंगा चुनाव माना जा रहा था, जिसमें 46 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे, लेकिन विभिन्न राजनीतिक विश्लेषकों और शोध समूहों का आकलन है कि इन चुनावों में 50 हजार करोड़ से 70 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। चुनावी खर्च पर नजर रखने वाली अमेरिकी संस्था ‘कानेर्गी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस थिंक टैंक’ के आँकड़े बताते हैं कि भारत में 2019 का चुनाव दुनिया का महंगा चुनाव साबित होगा। इस संस्था के अनुसार इस बार के चुनाव में 70 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च होने का अनुमान है। स्पष्ट है कि यह राशि 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से काफी ज्यादा है।
यदि भारत और अमेरिका के चुनावी खर्च के साथ दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं का भी तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट है कि न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है,बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मुकाबले कई गुना बड़ी है। इसलिए भारत की चुनावी प्रक्रिया का अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे विकसित देश से भी महंगा हो जाना गहन चिंता का विषय है। राजनीति और चुनावों में धन के बढ़ते इस्तेमाल से निर्वाचन प्रक्रिया में गरीबों के लिए अवसर कम होते जा रहे हैं और इससे निबटने के लिए चुनाव सुधार जरूरी हो गया है।
वर्तमान परिदृश्य में भारतीय राजनीति में सामान्य लोग केवल मतदाता बनकर रह गए हैं,जबकि चुनाव लड़ने और विधायिका का सदस्य बनने का अधिकार केवल धनपतियों के पास रह गया है। जबकि वास्तविक लोकतंत्र से आशय यह है कि कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़े और उसे समानतापूर्ण प्लेटफार्म उपलब्ध हो। एडीआर के आँकड़ों के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के 85% सांसद करोड़पति थे,जबकि कांग्रेस के 80%। अगर एडीआर और इलेक्शन वाच के आँकड़ों पर पुन: ध्यान दें तो वर्ष 2019 में भी कांग्रेस और बीजेपी ने जमकर करोड़पतियों को मैदान में उतारा है। इतना ही वैकल्पिक राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के भी 50% उम्मीदवार करोड़पति ही हैं।
जहाँ तक लोकसभा चुनाव में खर्च की बात है,तो प्रति उम्मीदवार 70 लाख रुपये खर्च की सीमा निर्धारित है। लेकिन सभी राजनीतिक दल अपनी ब्रांडिंग से लेकर विज्ञापन पर जिस प्रकार भारी- भरकम धनराशि खर्च करते हैं,उससे जाहिर है कि इस तरह के नियम सिर्फ कागजों तक सीमित हैं। हर कोई भली-भांति परिचित है कि सभी राजनीतिक दल और उम्मीदवार पैसा जुटाने तथा चुनाव में रुपये बहाने के तमाम तरह के तरीके अपनाते हुए निर्धारित सीमा से कई गुना ज्यादा खर्च करते हैं और चुनाव आयोग को इस खर्च का छोटा-सा हिस्सा कुल खर्च के रुप में थमा दिया जाता है।
वैसे तो सामान्य रुप से राजनीतिक दल और उम्मीदवारों का कहना होता है कि उम्मीदवार के लिए 70 लाख की सीमा अत्यंत कम है,परंतु एडीआर के आँकड़ों के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में 90% से अधिक सांसदों ने अपना खर्च निर्धारित सीमा के 50% से भी कम प्रदर्शित किया। अब जाहिर है,जो करोड़ों खर्च करेगा,चुनाव जीतने के बाद उसकी भरपाई लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही कहीं न कहीं आघात पहुँचा कर ही की जा सकती है। और यहीं से घपले-घोटालों की शुरूआत होती है और आम जनता में राजनीति को लेकर ही हीन भावना का विस्तार हो रहा है। इधर कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की तत्परता के कारण प्रशासन करोड़ों की धनराशि चुनाव के वक्त जब्त कर रहा है। लेकिन चुनाव में खपने वाली भारी-भरकम धनराशि की तुलना में जब्त की जाने वाली यह राशि ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। धन बल के कारण वेल्लोर लोकसभा चुनाव का रद्द होना: चुनाव में धन बल का विस्तार कितना ज्यादा हो गया है,इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अत्यधिक धन बल के कारण वेल्लोर लोकसभा चुनाव रद्द करना पड़ा।
देश में पहली बार धन के अत्यधिक प्रयोग के कारण किसी लोकसभा चुनाव को रद्द किया गया है। इससे पहले अप्रैल 2017 में तमिलनाडु की आर के नगर विधानसभा का उपचुनाव भारी मात्रा में नकदी जब्त होने के बाद रद्द किया गया था। इलेक्टॉरल बांड को लेकर चुनवी चंदे का उलझता मामला और सुप्रीम कोर्ट: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टॉरल बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को मिलने वाली रकम पर तो कोई अंतरिम रोक नहीं लगाई,लेकिन पारदर्शिता हेतु पार्टियों को निर्देश दिया कि इलेक्टॉरल बांड के जरिए 15 मई 2019 तक मिले चंदे की विस्तृत जानकारी सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग को सौंपे। पॉलिटकल फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाने के तमाम दावों के बीच इलेक्टॉरल बांड पर भी अपारदर्शी होने का आरोप लगने लगा। राजनीतिक दलों की फंडिंग में अज्ञात स्रोतों से आने वाली आय की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट के अनुसार इलेक्टॉरल बांड भी इसमें ज्यादा बदलाव नहीं ला पा रहा था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार इलेक्टॉरल बांड से यह लग रहा था कि हम एक अपारदर्शी व्यवस्था को छोड़कर एक दूसरी अपारदर्शी व्यवस्था के दायरे में आ गए हैं। इसके पूर्व की व्यवस्था में राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपए से कम चंदे का विवरण न बताने की छूट थी।
इसका भारी दुरूपयोग हो रहा था। चुनावी बांड की व्यवस्था बनने के बाद इस छूट की सीमा को 2,000 रुपए कर दी गई। इलेक्टॉरल बांड पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को चुनाव सुधार की दिशा में बेहतरीन कदम माना जा रहा है। इससे उम्मीद जगी है कि जल्द ही देश में राजनीतिक दलों के चंदे से संबंधित एक ऐसा पारदर्शी ढांचा बन सकेगा,जहाँ राजनीतिक दलों के “अज्ञात स्रोत” वाले चंदे का मॉडल समाप्त हो सकता है।
उम्मीदवारों पर चुनाव खर्च की सीमा लेकिन राजनीतिक दलों पर क्यों नहीं?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा तय है,लेकिन राजनीतिक दलों के लिए कोई सीमा नहीं है। ऐसा क्यों? सबसे पहले तो राजनीतिक दलों के खर्चें की सीमा तय की जानी चाहिए,जो राष्ट्रीय दलों एवं क्षेत्रीय दलों के अलग-अलग हो। उम्मीदवारों की संख्या के हिसाब से दलीय खर्च की सीमा में मामूली बदलाव भी किया जा सकता है। पर कुछ न कुछ होना चाहिए। आखिर पार्टियों के चुनाव प्रचार खर्च की सीमा क्यों न तय की जाए? राजनीतिक दलों पर चुनाव खर्च की कोई सीमा नहीं होने के कारण चुनाव के दौरान खर्च में बेतहाशा वृद्धि जारी है। यह सब और आसान हो जाता है,क्योंकि राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार खर्च पर अंकुश या नियमन के लिए कोई प्रावधान नहीं है। निर्वाचन आयोग सिर्फ उम्मीदवारों के खर्च पर नजर रख सकता है,पार्टियों के खर्च पर नहीं। इसके अतिरिक्त चुनाव आयोग नामांकन पत्र दाखिल करने के तिथि से ही उम्मीदवारों के खर्च पर निगरानी कर पाता है। लेकिन उसके पूर्व भी उम्मीदवार काफी खर्च चुका होता है,जिसकी गणना अभी नहीं हो पाती है। ऐसे में यहाँ भी नियमों मे संशोधन की आवश्यकता है, जिससे नामांकन पत्र दाखिल करने के पूर्व भी चुनाव आयोग उम्मीदवार द्वारा खर्च का ब्यौरा ले सके।
स्टेट फंडिंग में भी समाधान नहीं: कई बार सुझाव दिया गया कि राज्य चुनाव खर्च को वहन करे। यानि प्रत्याशियों को कोई खर्च नहीं करना होगा और केवल सरकार उनके प्रचार की व्यवस्था करेगी। लेकिन यह भी इस समस्या का समाधान नहीं है। अगर ऐसा हो भी जाता है,तो क्या जरूरी है कि सभी उम्मीदवार साधु हो जाएं। वैसे भी कुछ हद तक राज्य चुनाव खर्च वहन करता ही है। मसलन,उम्मीदवारों को रियायती दरों पर कई सुविधाएं देना और आकाशवाणी तथा दूरर्दशन पर विभिन्न दलों को प्रचार का समय दिया जाना इसमें शामिल है।
निष्कर्ष: 2014 लोकसभा चुनावों में किसी उम्मीदवार द्वारा घोषित औसत परिसंपत्ति 3.16 करोड़ रुपए थी,लेकिन निर्वाचित सांसदों की घोषित औसत परिसंपत्ति 14 करोड़ रुपये से ज्यादा थी। इसलिए जिसके पास ज्यादा धन है,उसके चुनाव जीतने की संभावना भी ज्यादा है। यही बात 2019 में भी लागू होगी। तब फिर संसद में गरीबों का प्रतिनिधित्व कैसे होगा? आवश्यकता है कि जनता और राजनीतिक दल दोनों ही इस मामले में अपने सोच को व्यापक बनाएँ। जीवन का प्रत्येक आचरण विशेषकर आर्थिक आचरण पूर्णतया पारदर्शी और मितव्ययी होना ही स्वच्छ राजनीति है। जब तक चुनावी राजनीति धनबल से मितव्ययता की ओर नहीं बढ़ेगी तब तक वह स्वच्छता नहीं प्राप्त कर सकती।
राहुल लाल
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