चुनावी खर्च: चुनावी खर्चे में गड़बड़झाला

Election expenditure

पैसा प्रदूषित और भ्रष्ट राजनीतिक घोड़ी को दौड़ाता है और कैसे? वर्तमान में चल रहे ग्रेट इंडियन डांस आॅफ डेमोक्रेसी में राजनीतिक दलों ने अपने गोपनीय वार चेस्ट खोल दिए हैं और वे तरह-तरह के वायदे कर रहे हैं और इसके लिए इससे बढिया समय हो भी क्या सकता है। वर्ष 2017-18 में छह राष्ट्रीय पार्टियों की आय 1293.05 करोड़ रूपए थी और इसमें से 700 करोड़ रूपए अज्ञात स्रोतों से प्राप्त हुए क्योंकि उन्हें निर्वाचन आयोग को 20 हजार रूपए से कम राशि के चंदे की घोषणा नहीं करनी होती है और राष्ट्रीय पार्टियों ने 2004-05 से लेकर अज्ञात स्रोतों से 9 हजार करोड़ रूपए एकत्र किए हैं। सत्तारूढ़ भाजपा को कुल 1027.3 करोड़ रूपए मिले हैं जिसमें से 553.4 करोड़ रूपए अज्ञात स्रोतों से मिले हैं। इस मामले में विपक्षी दलों का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। कांग्रेस को 199.2 करोड़ रूपए मिले हैं जिसमें से 119.9 करोड़ अज्ञात स्रोत से प्राप्त हुए हैं। माकपा ने 104.9 करोड़ रूपए अर्जित किए हैं तो मायावती की बसपा ने 51.7 करोड़, पवार की राकांपा ने 8.2 करोड़, ममता की तूणमूल ने 5.2 करोड़ और भाकपा ने 1.6 करोड़ रूपए कमाए हैं।

यह चंदा कोई खैरात नहीं है। यह एक व्यावसायिक निवेश और राजनीतिक बीमा है। यह लेनदेन है क्योंकि कोई पार्टी बैंक या म्युचुअल फंड नहीं है जो निवेशकों को ब्याज या प्रतिफल दे। फिर भी व्यापारी राजनीतिक दलों पर पैसा लगाते हैं और इसका संबंध पार्टियों की पसंद या विचारधारा नहीं अपितु सत्ता का खेल है। जब कोई भी पार्टी केन्द्र या राज्यों में सत्ता में आती है तो उसके खजाने भर जाते हैं और इसके लिए कोई व्यक्ति किसी पार्टी को जब चंदा देता है तो बदले में अपना काम कराता है और इसीलिए व्यवसाइयों विशेषकर चुनिंदा शीर्ष औद्योगिक घरानों को किंगमेकर कहा जाता है और वे सत्ता के गलियारों में अपने प्रभाव की शेखी भी बघारते हैं।
वर्ष 2011 और वर्ष 2004-05 में राजनीतिक दलों को प्राप्त चंदा बताता है कि सत्ता से बाहर रहने पर चंदे के मामले में उनका भाग्य कैसे बदलता है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो उसे अज्ञात स्रोतों से 1951 करोड़ रूपए मिले तो भाजपा को 952.5 करोड़ रूपए मिले जबकि 2003-04 में स्थिति इसके विपरीत थी। तब भाजपा को 11.69 करोड़ रूपए मिले थे और कांग्रेस को आधिकारिक रूप से केवल 2.8 करोड़ रूपए मिले थे।

निर्वाचन आयोग को दिए गए शपथ पत्रों में भारतीय राजनीति की वास्तविकता सामने आती है। अनेक व्यावसायिक घरानों ने राजनीतिक दलों को चंदा दिया है और वे सत्तारूढ पार्टी से सीधे लाभान्वित भी होते हैं। वर्ष 2000 में एक खनन उद्योगपति ने भाजपा को चंदा दिया तो वह बाल्को में 51 प्रतिशत हिस्सेदारी का मालिक बना और इसके लिए उसने केवल 121 बिलियन डालर की राशि चुकायी जिसका काफी विरोध भी हुआ। एक इस्पात उद्योगपति ने 50 करोड़ रूपए का चंदा दिया तो उसे राजमार्ग निर्माण के ठेके मिले। एक अन्य उद्योगपति ने 2003 में कांग्रेस को 50 लाख का चंदा दिया तो उसे पार्टी में शामिल कर दिया गया किंतु 2004 के चुनावों में उसने भाजपा को सर्वाधिक चंदा दिया। हालांकि उसने चुनाव कांग्रेस की टिकट पर जीता।

इस तरह उद्योगपति सत्ता पक्ष और विपक्ष के साथ संतुलन बनाए रखते हैं। यह बताता है कि उद्योगपतियों और राजनेताओं तथा विभिन्न सरकारों के बीच किस तरह के संबंध रहते हैं। अनेक सरकारों ने पार्टी के वित्त पोषण को विनियमित करने के लिए विधान लाने का प्रयास किया। यह भी प्रयास किया गया कि राजनीतिक दल नियमित लेखे रखें और उन्हें जांच के लिए उपलब्ध कराएं। उनकी मान्यता समाप्त करने की धमकी भी दी गयी किंतु राजनीतिक दलों ने निर्वाचन आयोग को गलत विवरण प्रस्तुत किए। इसे विनियमित करने के कोई प्रयास सफल नहीं हुए और चुनाव का खर्चा बढता गया। पार्टियां चुनाव पर भारी राशि खर्च करती हैं किंतु चुनाव प्रचार का अर्थशास्त्र अस्पष्ट रहा है। चुनावों का उपयोग पार्टी के लिए स्वयं अपने लिए तथा भावी चुनावों के लिए पैसा जुटाना होता है। राजनीति की तरह चुनाव भी व्यवसाय बन गए हैं और व्यवसाई की तरह राजनेता भी नियंत्रण और विनियमों की बातें करने लगे हैं।

इसीलिए विपक्ष में रहते हुए कोई पार्टी इस बारे में कितना भी शोर मचाए किंतु उन्होंने चुनाव में काले धन के प्रवाह को रोकने के प्रयासों को विफल किया है। तथापि निर्वाचन आयोग ने इसका विरोध किया क्योंकि इसका गंभीर प्रभाव पड़ता और राजनीतिक दलों के वित्त पोषण में पारदर्शिता में कमी आती क्योंकि इसके माध्यम से अज्ञात स्रोतों से प्राप्त चंदे को वैध किया जा रहा था और इस तरह व्यावसायिक घराने और विदेशी कंपनियों का चुनाव पर प्रभाव पड़ता। इस बात का भी पता नहीं है कि राजनीतिक दलों को चंदा ऐसी कंपनियों से भी मिलता है जो कानून तोड़ते हैं, सरकारी उपक्रम हैं या विदेशी कंपनियां हैं। किंतु सरकार का कहना है कि ये बांड स्टेट बैंक से खरीदे जाएंगे और ये काले धन में नहीं होंगे। किंतु यह तर्क सही नहीं है क्योंकि चंदा देने वाला अनाम रहेगा इसलिए इस बात का पता नहीं चलेगा कि कौन किस पार्टी को पैसा दे रहा है।

सरकार ने उस नियंत्रण को भी समाप्त कर दिया जिसके अंतर्गत यह प्रावधान था कि केवल लाभ अर्जित करने वाली कंपनियां चंदा देंगी और वे कंपनियां भी कम से कम तीन साल पुरानी होनी चाहिए। इसके लिए जाली कंपनियां बनायी जाने लगी और उनके माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा दिया जाने लगा। क्या यह अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल रहा है? यह उद्देश्य काले धन के सृजन और उपयोग पर रोक लगाना और राजनीतिक दलों द्वारा नियमित रूप से लेखा परीक्षित लेखे उपलब्ध कराना था? क्या इससे चुनावी राजनीति में धल बल का उपयोग बंद होगा और क्या इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी और चुनावी खर्चे में पारदर्शिता आएगी? बिल्कुल नहीं। यह प्रस्ताव दूरदर्शी नहीं है क्योंकि जो व्यक्ति बांड खरीदेगा क्या उसे धन के स्रोत का पता बताना होगा।

एक पूर्व निर्वाचन आयुक्त के अनुसार बांड और चंदे का स्वागत है किंतु उसके धन को सफेद बनाया जा सकता है क्योंकि उसके स्रोत को प्रकट न करना अनिवार्य है। जबकि पश्चिमी देशों में राजनीतिक दलों के वित्त पोषण में पारदर्शिता एक अनिवार्य अपेक्षा है। फिर इसका समाधान क्या है? राजनीतिक दलों के वित्त पोषण और चुनावी खर्च में पारदर्शिता लाने से राजनेताओं का भारी नुकसान होगा और जनता को लाभ होगा किंतु इसके लिए आवश्यक है कि स्रोत का पता लगे जो कानूनी रूप से वैध होना चाहिए अन्यथा चुनावों में निहित स्वार्थों के प्रवाह को कम नहीं किया जा सकता है। चंदा भी सभी दलों को दिया जाना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि वह समान हो किंतु संसद में सीटों के अनुपात में हो। चुनावों के खर्च और राजनीतिक दलों को दिया जा रहा चंदा उम्मीदवार को मिले वोटों के आधार पर किया जाना चाहिए साथ ही यह राशि पार्टियों के बजाए उम्मीदवारों को दिया जाना चाहिए। जिसमें से 50 प्रतिशत राशि चुनाव से पूर्व दी जाए।

कुल मिलाकर चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के लिए हमें अभी बहुत सारे प्रयास करने होंगे क्योंकि राजनीतिक पार्टियां चुनावों के खर्च को पारदर्शी बनाने के मार्ग में अड़चनें पैदा कर रही हैं। इसलिए सत्ता में कौन सी पार्टी है इसको ध्यान में रखे बिना चंदे को सार्वजनिक किया जाना चाहिए क्योंकि लोगों को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि किसी नीति के बारे में सरकार का रूख उसे प्राप्त चंदे के स्रोत से प्रभावित तो नहीं है। भ्रष्टाचार को समाप्त करने का समय आ गया है अन्यथा भ्रष्टाचार के उन्मूलन की हमारे नेतागणों की बड़ी-बड़ी बातें केवल बातें बनकर रह जाएंगी।

 

 

 

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