बुजुर्गों ने सांझा किए विचार: अपने समय में होली का त्यौहार मनाने के बताए तरीके
ओढां (सच कहूँ/राजू)। एक वो समय था जब त्यौहारों को लेकर लोगों में इस कदर उत्साह होता था कि वे कई-कई दिन पहले ही तैयारियों में जुट जाते थे। खासकर ग्रामीण परिवेश के लोगों में त्यौहारों के प्रति अधिक चाव होता था। उस समय लोगों में आपसी प्रेम-भाईचारा ऐसा था कि एक-दूसरे के सुख-दुख को लोग अपना समझते थे, लेकिन समय के साथ ही सब-कुछ बदल गया। यही कारण है कि आज त्यौहारों के मायने ही बदल गए हैं। होली पर गांव की चौपालों में खूब गुलाल उड़ता था। लोगों की टोलियां घर-घर जाकर एक-दूसरे को गुलाल लगाती थीं।
लोग घरों में तरह-तरह के पकवान बनाते थे और एक-दूसरे के घरों में पहुंचाकर आपसी स्नेह को मजबूत बनाते थे।लेकिन आज लोगों के पास न तो त्यौहार मनाने के लिए समय है और न ही किसी के सुख-दुख में शामिल होने का। आज न वो रंग रहे और न ही वो आपसी स्नेह एवं हंसी-ठिठोली। होली के त्यौहार पर जब संवाददाता राजू ओढां ने जब कुछ बुजुर्गों से बात की गई तो उन्होंने कहा कि न वो रंग रहे और न ही वो संग। त्यौहार तो उनके समय हुआ करते थे। अब तो त्यौहारों के नाम पर औपचारिक्ता सी रह गई है।
1. मेरी उम्र करीब 100 वर्ष की हो गई है। मैंने अपने जीवन में त्यौहार देखे ही नहीं हर्षोल्लास के साथ मनाए भी हैं। होली से कई-कई दिन पूर्व ही विवाहिता लड़कियों को उनके ससुुराल से मायके ले आते थे। लड़कियों को भी चाव होता था कि वे मायके जाएंगी। मुझे याद है कि मैंने शादी के बाद पहली होली अपने मायके गांव केरांवाली में मनाई थी। होली पर घर के बाहर देर रात तक चबूतरे पर होली के गीत गूंजते थे। घरों में खूब पकवान बनते थे। हमारे समय में महिलाओं को आभूषणों का बहुत शौंक था। मैं जब नवविवाहिता थी तो मेरे 20 तोले सोने व 3 सेर चांदी के आभूषण थे। आज लड़कियां त्यौहारों पर मायके आती तो हैं, लेकिन दिन नहीं बल्कि कुछ समय रुककर वापस चली जाती हैं। -नरमां देवी।
2. मेरी उम्र 80 वर्ष की हो गई है। हमारे समय में जो होली का दौर था वो कभी वापस नहीं आ सकता। लड़कियों को ससुराल से कई दिन पहले ही बुला लिया जाता था। वो टोली बनाकर एक-दूसरे के घर में जाकर रंग लगाना, आकर खूब पकवान खाना, एक-दूसरे घरों में पकवान देकर आना और खूब सज-धजकर कुंए पर पानी भरने जाना। आज सब-कुछ लुप्त हो गया है। उस समय में होली ही नहीं बल्कि सभी त्यौहारों को उत्साह के साथ मनाया जाता था। पकवान के नाम पर देसी घी का हलवा, खीर व खिचड़ी होती थी। अब समय के साथ ये सब-कुछ कहीं खो गया है। काश वो समय फिर लौट आए।
-गंगा देवी।
3. मेरी उम्र 84 वर्ष हो गई है। हमने त्यौहार देखे व मनाए हैं। होली से पहले ही तैयारियां शुरू कर देते थे। एक-दूसरे के घरों में जाकर कहते थे कि उनकी सहेलियों को ससुराल से बुला लेंं। ससुराल से आने के बाद सभी सहेलियां एक जगह एकत्रित होकर खूब हंसी-ठिठोली करती और देर रात तक होली के गीत गूंजते थे। हम इस तरह के मंगल गीतों में ससुराल में बैठी सहेलियों व उनके भाईयों का नाम लेकर गाते थे। गीतों के माध्यम से हम अपनी सहेलियों को मायके लाने की मांग करते थे। वो होली और वो रंग सब कुछ बेरंग सा हो गया है। अब न तो वो सहेलियांं रहीं और न वो त्यौहार।
-तुलसी देवी।
4. मेरी उम्र 86 वर्ष की हो गई। सभी चौपाल में एकत्र हो जाते। एक बड़ा कड़ाहा होता था जिसमें बहुत सारा रंग घोला जाता था। उसी रंग से फिर होली खेला करते थे। महिलाएं कोरड़े बरसाया करती थीं। कोई किसी का गुस्सा नहीं करता था। रंग से लथपथ पुरुषों की टोलियां भाभियों को रंग लगाकर खोपरे लेने जाती थीं। इस दौरान बहुत हंसी-ठिठोली करते थे। लोगों के मन में किसी तरह का कोई खोट नहीं होता था। होली के एक माह पूर्व ही फाल्गुन माह की खुशी चढ़ जाती थी। अब लोगों के पास होली पर रंग लगाना तो दूर किसी को बधाई देने का भी समय नहीं है। अब तो सब-कुछ बदल गया। आज तो भाई-भाई के मनों में भी फर्क आ गया है।
-देवीलाल।
5. मेरी उम्र 83 वर्ष की हो गई। पहले के समय में जैसे ही फाल्गुन शुरू होता तो लोगों में खुशी छा जाती थी। गांव की चौपाल में खूब रंग खेलते थे। वो हंसी, वो ठिठोली और वो प्रेम अब कहां। हम सब लकड़ी का प्रहलाद बनाते थे और होलिका दहन करते थे। होली पर युवकों की टोलियां घरों में जाकर भाभियों से खोपरे मांगती थी और गुलाल लगाती थीं। खाली बोतलों में रंग भरकर पहले से ही तैयारी कर लेते थे। सुबह से लेकर शाम तक रंग खेलते थे। फिर घर आकर तरह-तरह के पकवान खाते थे। अब तो उस समय की यादें ही रह गई हैं। अब त्यौहारों के नाम पर सिर्फ औपचारिक्ता व ज्यादातर हुल्लड़बाजी ही है।
-मनफूल।
6. मेरी उर्म्र 88 वर्ष है। हमारे समय की होली आपसी स्नेह एवं भाईचारे का प्रतीक होती थी। सभी मिलकर खूब गुलाल उड़ाते थे। यूं लगता ही नहीं था कि कोई पराया है। सब घरों में घूम-घूमकर गुलाल लगाना व भाभियों के साथ मसकरी करना और भाभियों का कोरड़े मारना। गांव की चौपाल में सार्वजनिक होली मनती थी। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख को अपना समझकर उसमें शामिल होते थे। उस समय पिचकारियों की जगह खाली बोतलों में रंग भरते थे। अकेली होली ही नहीं बल्कि सभी त्यौहार मिल-जुलकर उत्साह के साथ मनाते थे। हमारे समय में त्यौहारों का एक अलग ही आनंद होता था। कई-कई दिन पहले तैयारियां और नए कपड़े पहनने का बड़ा चाव होता था। अब न तो तैयारी रही और न किसी के पास आज समय। समय के साथ ही सब-कुछ बदल गया। अब वो संगी-साथी ही नहीं रहे। -मनफूल कूकणा।
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