बड़ो की डांट भी दुलार

Elder's-scolding

पापा: ये क्या है। दादाजी ने सारे आॅफिस के सामने आपको डांटा और आप चुपचाप सुनते रहे। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। आप भी कंपनी में सारे कामकाज देखते हैं, क्या हुआ जो गलती से आर्डर इधर-उधर हो गया। आॅफिस में सभी आपका सम्मान करते हैं। ऐसे सबके सामने वो आपको डांटकर बेइज्जत कैसे कर सकते है। सुमित ने अपने पिता मोहन बाबू से अपना गुस्सा जाहिर करते हुए कहा। सुमित देखो बेटा, यहां आओ बैठो आराम से। सबसे पहले तो ये गुस्सा त्याग दो क्योंकि ये गुस्सा हमें केवल नकारात्मकता की ओर ही बढ़ाता है। सही और गलत की दिशा से भटकाता है। अब ध्यान से सुनो। सारी दुनिया के लिए भले ही मैं बड़ा आदमी हो सकता हूं, लेकिन अपने मम्मी पापा के लिए मैं सिर्फ उनका बेटा हूं और उन्हेें सारी उम्र मुझे कुछ भी कहने का हक है।

तुम अभी छोटे हो, तुम्हें अभी समझ नहीं आयेगा। परिपक्व होने पर खुद समझ जाओगे। माता पिता की ये डांट ये समझाने का तरीका है। बेटा ये उनका एक मार्गदर्शन करने का वो तरीका है जो हमें सही और गलत का अंतर बताता है। उन्होंने सबके सामने मुझे डांटा क्योंकि गलती मेरी थी। मुझे ध्यान देना चाहिए था एक जिम्मेदार व्यक्ति एक जिम्मेदार कर्मचारी होने के नाते ये मेरा कम्पनी के प्रति कर्तव्य बनता है। बात कंपनी की है तो कंपनी में ही समझाकर खत्म कर देते। पिताजी बोले, बेटा जब बडे समझाते हैं ना या डांटते है ना वो उनकी चिंताओं का एक रुप होता है जो अनुभवों से जुड़ा होता है वो अपने बच्चों को वो गलती नहीं करने देना चाहते जिसके चलते बाद मे उन्हें कोई दुष्परिणाम भुगतना पडे और मैं उनकी डांट से खुश होकर कुछ ना कुछ नया सीखता हूँ। जानते हो जब वह मुझे डांटते है ना तब मेरी मेरे बचपन से मुलाकात हो जाती है। मोहनबाबू ने बेटे के कंधे पर हाथ रखकर समझाते हुए कहा।

सुमित पापा की बातों को सुनकर सब कुछ सुनकर थोड़ा शर्मिंदा सा होकर बैठा था। मोहन बाबू मुस्कुराकर बाहर की ओर चलने को ही हुए थे कि वापस सुमित के पास लौटकर बोले….हां….एक बात और बेटा…..। कोई तुम्हारे पिता को कुछ कहे तुम्हें अच्छा नहीं लगता …..है ना….जी…..जी पापा…..। तो बेटा जी कोई मेरे पिताजी को कुछ कहे मुझे भी अच्छा नहीं लगता। कहकर सुमित के सिर के बालों में अंगुलियों को फिराते उन्हें सहलाते हुए प्यार भरी मुस्कुराहट देकर एक उचित मार्गदर्शन करते हुए कमरे से बाहर निकल गए…वहीं दूसरी ओर दूसरे कमरे में बैठे बुजुर्ग मोहन बाबू के पिताजी की आंखें भी खुशी से नम थी। उन्हें भी अपनी परवरिश और अपने बेटे को दिए संस्कारों भरे मार्गदर्शन पर गर्व महसूस हो रहा था।

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