सैंकड़ों साल पुरानी बात है। एथेंस (यूनान) के विश्वविख्यात तत्ववेत्ता जिस पाठशाला में पढ़ाते थे उसी में एक अत्यंत दरिद्र बालक किलेंथिस भी विद्या अध्ययन करता था। उसके कपड़े फटे-पुराने रहते, तथापि पढ़ाई के बदले दी जाने वाली दैनिक फीस वह नियमित चुकाता था। वह पढ़ने में बहुत तेज था और धन्ना सेठों के बच्चों से हर विषय में आगे रहता था। इससे प्राय: धनी बच्चे कुढ़ते थे। उस फटीचर बालक का पढ़ाई में अव्वल रहना जब उनकी सहनशीलता से बाहर हो गया तो एक षडयंत्र कर उन्होंने किलेंथिस को चोरी के आरोप में पकड़वा दिया। उसे जेल में डाल दिया गया लेकिन उसे सफाई पेश करने के लिए गवाह आदि बुलाने की सुविधा दी गई। एक निर्धारित तिथि को उसे न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया गया। न्यायाधीश ने प्रश्न किया, ‘तुम पर चोरी करने का अभियोग लगाया गया है। मुझे बताया गया है कि तुम अत्यंत दरिद्र हो। तुम्हारी दरिद्रता पोशाक से भी स्पष्ट है। तुम पर आरोप है कि चोरी करके तुम विद्यालय का शुल्क देते हो। किलेंथिस ने दृढ़ता से कहा, ‘यह झूठ है श्रीमान। मैंने आज तक चोरी नहीं की।’ जज ने पूछा, ‘फिर तुम्हारे पास पैसे कहां से आते हैं?’
किलेंथिस ने कहा, ‘श्रीमान, इसका उत्तर मेरे पक्ष में आये इन दो लोगों से आपको मिल जाएगा जो मुझे पैसे देते हैं।’ कटघरे में खड़े एक आदमी ने कहा, ‘श्रीमान, मैं एक बगीचे का माली हूं। यह बालक रोज सुबह आकर कुएं से पानी खींचता है तो मैं आसानी से पौधों में लगा देता हूं। पानी खींचने के बदले में मैं इसे कुछ सिक्के दे देता हूं।’ इसके बाद एक वृद्धा ने बताया, ‘श्रीमान, मैं किराये पर अनाज पीसने का काम करती हूं। अब कमजोरी के कारण ज्यादा पीसना नहीं हो पाता। यह बालक मेरे पास आकर घंटे-दो-घंटे पिसाई कर जाता है। इसकी मेहनत के लिए मैं इसे कुछ पैसे देती हूं।’ अब बालक ने कहा, ‘श्रीमान, प्रात: और सायं परिश्रम कर मैं जो कुछ भी कमाता हूं, वह मैं नियमित फीस और घर में खर्च करता हूं।’
बालक की वास्तविक स्थिति जानकर जज और सभी देखने सुनने वाले द्रवित हो गये। जज ने सोचा बालक काफी संकट में है। ऐसे होनहार बालक के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। उन्होंने कहा, ‘अब तुमको परेशान होने की जरूरत नहीं। मैं सरकार को आदेश देता हूं कि तुम्हारे परिवार को आर्थिक सहायता तुरंत दी जाए और तब तक दी जाए तब तक तुम अपनी शिक्षा पूरी कर किसी काम धंधे में नहीं लग जाते। बालक बोला, ‘ऐसा मत करिए श्रीमान, मैं अपनी मेहनत से ही अपने खर्च पूरा करना चाहता हूं। मेरे माता-पिता ने मुझे सीख दी है कि हमें ऐसा एक भी पैसा स्वीकार नहीं करना चाहिए जिसे लिए हमने परिश्रम न किया हो। अत: आपकी दया भावना के लिए मैं आपका आभारी हूं और आपसे यही अपेक्षा करता हूं कि मुझे अपनी मेहनत से अपना खर्च चलाने दें।’ इस बात से पूरी अदालत सन्न रह गयी। किसी ने कहा, ‘धन्य है वह माता-पिता जिन्होंने ऐसी विचारवान, परिश्रमी औलाद पैदा की।’ किसी ने कहा, ‘अगर घर-घर में ऐसे माता-पिता और बच्चे हों तो यह धरती खुशहाली और आनंद से भर उठेगी।
-अयोध्या प्रसाद ‘भारती’
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