तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के बीच दोराहे पर अर्थव्यवस्था

Economy on the road between politics.

कांग्रेस पार्टी ने हाल ही में जारी किए अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया है कि वह गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे पांच करोड़ परिवारों को प्रति वर्ष 72,000 रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान करेगी। इस योजना के अंतर्गत 12,000 रूपए से कम आमदनी वाले परिवारों के लिए 6,000 प्रति महीने बेसिक इनकम सुनिश्चित की जाएगी। इस योजना को लागू करने से सरकार पर हर वर्ष तीन लाख साठ हजार करोड रुपए से अधिक अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ेगा। राजनीतिक पार्टियों की मुफ्त में पैसा बांटने की योजनाएं यह दशार्ती है कि उन्होंने यह स्वीकार कर लिया है कि उनके पास लोगों को रोजगार और नौकरियां देने की कोई ठोस नीति नहीं है, क्या सरकार के पास इस योजना को लागू करने के लिए पैसा है? पांच करोड़ परिवारों को हर वर्ष 72,000 रुपए देना मौजूदा बजट को देखते हुए असंभव सा प्रतीत होता है। क्योंकि इस योजना को लागू करने के लिए सरकार को हर वर्ष तीन लाख साठ हजार रुपये अतिरिक्त चाहिए। यह रकम देश के रक्षा बजट से करीब 40,000 करोड़ रुपए ज्यादा है। केंद्रीय शिक्षा बजट से 5.8 गुना ज्यादा है। वहीं, जनवरी 2019 तक सरकार का राजकोषीय घाटा साढ़े सात लाख करोड़ रुपए से ज्यादा रहा है। ज्यादातर अर्थशास्त्रियों के अनुसार इस तरह की योजनाओं को लागू करने के तीन ही उपाय हो सकते हैं। पहला, सरकार कर के माध्यम से अपनी आमदनी के स्रोत बढ़ाए। दूसरा, सरकार विभिन्न सामाजिक योजनाओं के खर्च में कटौती करें।

तीसरा, सरकार इसके लिए वित्तीय संस्थानों से कर्ज ले। अन्य सामाजिक योजनाओं से कटौती और सब्सिडी को खत्म कर पैसा निकालने से, इसका असर गरीबों पर ही पड़ेगा। जिससे गरीबों का लाभ होने की संभावना कम है। क्योंकि उन्हें फायदा पहुंचाने वाली योजना बंद करके, दूसरी योजना के तहत पैसा दिया जाएगा। वहीं, कर्ज़ लेने से सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। राजकोषीय घाटा ज्यादा होने से क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां देश की आर्थिक रेटिंग घटा देगी । आर्थिक पैमाने की कसौटी पर इस योजना को लागू करना प्रभावी नहीं हो सकता। कांग्रेस ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में बार – बार कहा है कि उसके पास इसे लागू करने का पूरा रोडमैप है, लेकिन इसके साथ जोड़ते हुए यह भी कहा है कि पहले इस योजना को एक प्रोजेक्ट के तौर पर लागू करेंगे।

यानी अन्त में प्रोजेक्ट शब्द जोड़कर इसे अस्पष्ट बना दिया। इसमें यह भी हो सकता है कि आगे की योजना किस्तों में लागू की जाए और इसे चुनावी प्रलोभन की तरह इस्तेमाल किया जाए। आज राजनीतिक पार्टियों के आकर्षक वादों का बोझ भारत के आम नागरिक को झेलना पड़ रहा है। क्योंकि देश का आम नागरिक सरकार को जो टैक्स देता है। उसी भारी-भरकम टैक्स से पूरे देश में कल्याणकारी योजनाएं चलाई जाती है।

किसानों की तरह इस देश का आम नागरिक भी काफी परेशान है। अगर भविष्य में कोई पार्टी यह चुनावी वादा कर दे कि वह सत्ता में आने के बाद होम ऋण , शिक्षा ऋण सहित सभी लोन माफ कर देगी तो इससे देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा? मार्च 2017 तक किसानों पर करीब चौदह लाख करोड रुपए का ऋण था। वहीं नागरिकों पर विभिन्न प्रकार का कुल बीस लाख करोड रुपये का ऋण है। आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार देश में ग्यारह लाख करोड रुपए का होम ऋण, सत्तर हजार करोड रुपए का शिक्षा ऋण, दो लाख करोड़ रुपये का आॅटो व्हीकल ऋण और पांच लाख करोड रुपए का पर्सनल लोन ले रखा है। इतना ऋण माफ करना किसी भी सरकार के लिए असंभव है, लेकिन कल को कोई पार्टी चुनाव जीतने के लिए इस तरह के ऋण माफ करने का वादा करती है तब अर्थव्यवस्था का क्या होगा?

सामाजिक संदर्भ में हमें हमेशा सिखाया जाता है कि परिश्रम का फल मीठा होता है, लेकिन राजनीतिक संदर्भ में कहा जाए तो वोटों का फल मीठा होता है। जहाँ वोट बैंक की राजनीति के लिए राजनीतिक पार्टियां वोटरों के स्वाभिमान को बेचकर मुफ्तखोरी की लत लगा देती हैं। राजनीतिक पार्टियां हर बार की तरह चुनाव में अपनी वोटों वाली फसल काटने के लिए, देश के स्वाभिमान पर मुफ्तखोरी को हावी करती जा रही हैं। देश के राजनीतिक दलों ने जनता की इस कमजोर नब्ज को पकड़कर खूब इस्तेमाल किया है। फिल्म दीवार का एक डायलॉग है। जिसमें नायक कहता है कि मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।

यह स्वाभिमान देश की सबसे बड़ी खासियत है। फिल्म दीवार 1975 में आई थी। यह वह दौर था। जब देश में बेरोजगारी चरम पर थी और युवा सड़कों पर उतर रहे थे। अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी देश में गरीबी की हालत जस की तस थी। उस समय जनता के विरोध को दबाने के लिए इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया था। इस कठिन दौर में भी फिल्मों का नायक फेंके हुए पैसे उठाने से इंकार कर देता था, लेकिन आज देश की राजनीतिक पार्टियां अर्थव्यवस्था की चिंता न करते हुए मुफ्तखोरी का लालच देकर वोट खरीदने का प्रयास करती हैं। मुफ्तखोरी आज देश में वोटरों को रिझाने के सबसे कारगर हथियारों में से एक बन चुकी है। राजनीतिक पार्टियां लोगों की मूल समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए लालच को हथियार के रूप में प्रयोग करती हैं और इसे सामाजिक न्याय से जोड़कर सही साबित करने की कोशिश करती हैं।

 

 

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