हकीम का फर्ज

Duty of clinician
महान देशभक्त हकीम अजमल खां अपने पेशे को खुदा की इबादत समझते थे। वह सुबह-सवेरे अपना दवाखाना खोल लेते और देर रात तक रोगियों को देखते रहते थे। वह फीस के नाम पर बहुत कम पैसे लेते और गरीबों से तो वह भी नहीं लेते। रात को भी अगर कोई उन्हें पुकारता तो वह फौरन उसके साथ मरीज को देखने चल देते। उनके नुस्खे ऐसे थे कि प्राय: मरीज बहुत जल्दी ठीक हो जाता। उनकी ख्याति दिल्ली ही नहीं, बल्कि दूर-दूर की रियासतों तक फैली थी। वह दूसरे राज्यों में भी रोगियों को देखने जाया करते थे। पैसे, मान-सम्मान की भूख उनको बिलकुल नहीं थी। सेवा ही उनके जीवन का लक्ष्य थी। एक बार एक निहायत गरीब किसान अपने बेटे को बेहद गंभीर हालत में हकीम साहब के पास लेकर आया। उसके पास देने के लिए एक फूटी-कौड़ी भी नहीं थी। वह हाथ जोडकर गिड़गिड़ाते हुए बोला- मेरे बेटे को बचा लो।
हकीम साहब ने फौरन इलाज शुरू कर दिया। तभी ग्वालियर राजदरबार से एक दूत दवाखाने पर हाजिर हुआ और बोला- हकीम साहब, हमारे राजकुमार की तबीयत बहुत खराब है। आपको अभी हमारे साथ चलना होगा। उसने सोने के कुछ सिक्के हकीम साहब के सामने रख दिए। किसान को लगा कि शायद हकीम साहब उस दूत के साथ ग्वालियर चले जाएंगे। वह जोर-जोर से रोने लगा। हकीम साहब ने कुछ क्षण सोचा और फिर सोने के सिक्के दूत को लौटाते हुए कहा- मैं इस समय आपके साथ नहीं आ सकता। अगर मैं इस समय यहां से गया तो इस बच्चे की जान खतरे में पड़ जाएगी। आपके राजकुमार की सेवा में तो बड़े से बड़े डॉक्टर हाजिर हो जाएंगे।

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