Durga: दुर्गा

Durga
शहर में कहीं भी जाना हो, ठाकुर पारा के लोगों को ताजिया पारा से होकर गुजरना मजबूरी थी। चाहे फिर वह स्कूल-कालेज हो, कोर्ट-कचहरी, अस्पताल- बाजार हो, वाया ताजिया पारा के बिना उनका निस्तार ही संभव नहीं था। पूरा शहर मेनरोड के दोनों ओर बेतरतीब बसा हुआ था। छोटे-छोटे मिट्टी के खपरैलवाले घरों के साथ पक्के दुमंजिला, तिमंजिला कालमवाले घर एक-दूसरे के साथ हंसते-बतियाते खड़े दिखाई पड़ते थे। शहर बारहों मास हरियाली के कपड़े पहने इठलाता रहता था। मुंशी नाहर सिंह ठाकुर के परिवार को भी शहर से नाता जोड़ने के लिए दूसरों की तरह ताजिया पारा की शरण में जाना ही पड़ता था।
नाहर सिंह डेढ़ वर्ष पहले तक वकील हयातुल्ला खान के मुंशी हुआ करते थे। पचपन साल की उम्र में लकवे ने उन्हें ऐसा पटका कि अब वे सालों से बिस्तर के ही होकर रह गये थे। पिछले कुछ महीनों से तबियत में सुधार आई तो घर के आंगन में लडखड़ाते कदमों से हल्की-फुल्की चहलकदमी शुरू हुई थी।
कास्तकारी की कुछ पुश्तैनी जमीन थी। घर के पिछवाड़े अच्छा-खासा, लम्बा-चौड़ा बगीचा था, जहां आम, अमरूद, नीबू, संतरा, केला, पपीता, चीकू वगैरह के फलदार पेड़ थे। घर का अनाज और फलों के विक्रय की आमदनी, अब यही उनके जीवनयापन का साधन हो गई थी। मुंशी नाहर सिंह की पत्नी कमला का देहावसान हुए वर्षों बीत गये थे। अपने पीछे वह एक प्यारी, नन्ही सी बेटी छोड़कर इस दुनिया से रुखसत हो गई थी। मौत आती है तो छोटी-मोटी चीजें भी बहाना बन जाती हैं वरना कौन जानता था कि हट्टी-कट्टी, स्वस्थ-प्रसन्न कमला तीन दिनों के बुखार में ही राम-नाम सत्त हो जाएगी। 4 साल की अवस्था में छोड़ी गई कमला की बेटी अब 20 साल की युवती हो गई थी।
वह शहर के सरकारी महाविद्यालय में बीए की छात्र थी। धीर-गंभीर, पढ़ने में होशियार दुर्गा को भगवान ने रूप का भी धन जी खोलकर लुटाया था। वह अपनी माँ का प्रतिरूप थी। हालांकि पिता नाहर सिंह ने अपनी बेटी को माता-पिता दोनों का प्रेम देने की भरपूर कोशिश की थी परन्तु दुर्गा के व्यक्तित्व को माँ की ममत्व की भूख ने कुछ ज्यादा ही गंभीर बना दिया था। वह अच्छे से अच्छे चुटकुले और मजाकिया बात पर भी अपनी सहेलियों के साथ हल्के से मुस्कुराकर चुप रह जाती थी। उसे घर में अपने पिता की छोटी बहन, विधवा बुआ का ही सहारा था जो उसके जन्म के पहले से ही उसके माता-पिता के साथ रह रही थी। नन्ही दुर्गा के पालन दृपोषण में उसका प्रमुख योगदान था। बेटी को उसी के सहारे छोड़कर नाहर सिंह, वकील हयातुल्ला खान के पास मुंशी की नौकरी कर पाए।
वकील साहब मुंशी जी की ईमानदारी के कारण उनका बहुत मान करते थे। वे तहसील के सबसे बड़े वकीलों में गिने जाते थे। मुंशी नाहर सिंह रोज बिला नागा सुबह 10 बजे वकील साहब के आफिस पहुंच जाते और कोर्ट-कचहरी का पूरा काम निबटाकर रात आठ बजे तक घर लौट पाते थे। सिर्फ रविवार का दिन ऐसा होता जब वह दुर्गा को अपना सारा प्यार लुटा पाते थे। बीमारी के बाद मुंशी नाहर सिंह ने अयातुल्ला खान के पास जाना छोड़ दिया था। खान साहब को अपने मुंशी के स्वास्थ्य और घर की भली प्रकार खबर थी। वे महीने में एक-दो बार नाहर सिंह के घर जरूर जाते। अपने मुंशी के इलाज में भी उन्होंने अपनी जेब से भरपूर आर्थिक सहायता मुहैया करवाई थी। वे दुर्गा को अपनी बेटी जैसी ही मानते थे और भरपूर स्नेह देते थे।
कुछ समय से दुर्गा काफी परेशान रहने लगी थी। वह अपने उपर आये दुखों-तकलीफों का बहुत कम ही दूसरों से बयान करती थी। यहां तक कि अपनी वृद्धा बुआ तक से अपनी पीड़ा छुपा जाती थी। जब उससे रहा ही नहीं गया तो एक दिन अपने हयातुल्ला चाचा के घर पहुंच गई।
हयातुल्ला खान किसी काम से दिल्ली गए हुए थे। दुर्गा की भेंट ह्यातुल्ला के छोटे बेटे मुनव्वर से हुई। मुनव्वर की अम्मी आयशा बी को दुर्गा, चाची कहती थी। उनसे दुआ-सलाम के बाद अपनी परेशानी उनसे कहने के बदले उसने दूसरे कमरे में बैठे मुनव्वर से सांझा करते हुए कहा,’मुन्ना भैया, तुम्हारे मोहल्ले में एक कोई शख्स है। यही 28-तीस साल का होगा। दुबला-पतला, लम्बा सा है। रंग गोरा है। वह आते-जाते पिछले 2 महीने से मुझे तंग कर रहा है। छेड़छाड़ करता है,अश्लील फब्तियां कसता है। इधर उसकी हिम्मत और बढ़ गई है। अपने आवारा दोस्तों के साथ अब वह मेरे घर तक पीछा करने लगा है।’
मुन्नवर गुस्से से फनफनाता हुआ बोला, ‘वह सुअर का बच्चा हबीब ही होगा। आजकल उस कमीने को खूब मस्ती चढ़ी हुई। मोहल्ले में उसकी खूब शिकायतें हैं। मैंने उसे समझाने की कोशिश भी की पर है साला हेकड़। दो-एक बार पुलिस भी पकड़कर ले गई थी पर पता नहीं क्यों उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया।’ दुर्गा कुछ भ्रम भरी आवाज में बोली,’पर उसे उसके दोस्त राजा के नाम से पुकारते हैं?’ मुन्नवर,’हाँ, यह उसका चालू नाम है….। पता नहीं कहां से आया है? पिछले 8 महीनों से रहीम बख्श की दगड़ी चाल में किराए से रहता है। अब्बा तो हैं नहीं घर में….। मैं ही कुछ करता हूँ…। तू फिक्र मत कर।’
दुर्गा लौटी तो फिर वही बदमाश हबीब मिल गया। वह रास्ते भर अश्लील फिल्मी गाने गाते, उसके घर के पास तक पहुंच गया। वहीं पास ही सड़क के किनारे पनवाड़ी की दुकान थी। वहां जाकर शोहदा कालर खड़ा किये फिल्मी हीरो के अंदाज में बार-बार दुर्गा के घर के दरवाजे की ओर ताकने लगा। घंटा-आधा घंटा हो गया, वह टलने का नाम ही नहीं ले रहा था। अप्रैल का महीना था। विश्व-विद्यालय के फाइनल परीक्षा के दिन थे। उसका मन किताबों में लग ही नहीं रहा था। वह बार-बार सोचती कि कैसे इस आवारा, बदकार आदमी को सबक सिखाई जाए। रोज-रोज की उसके छेड़छाड़ से वह थक चुकी थी। उसके पिता बाजू के अपने कमरे में सोये हुए थे। बुआ रसोई में काम कर रही थीं। वहां से बर्तनों की खटर-पटर की आवाज आ रही थी। घर के अंदर से उसकी नजर बार-बार पनवाड़ी की दुकान पर पड़ती। वह असहय उत्तेजना से पिंजरे की शेरनी की तरह कमरे में इधर से उधर हो रही थी।
अचानक वह पूजा के कमरे में घुसी। वहां मां दुर्गा की सिंह पर सवार, महिषासुर का वध करती नन्हीं मूर्ति स्थापित थीं। माँ के बाजू से ही मुंशी नाहर सिंह के वंश का शस्त्र, धारदार चमचमाती तलवार रखी हुई थी। कभी उसके उपयोग होने का अवसर ही नहीं आता था। बस दशहरे के दिन ही उसकी साफ-सफाई होती थी और शस्त्र-पूजा का कार्य विधि-विधान से सम्पन्न होता था। दुर्गा लपकी और म्यान से तलवार खींचकर दरवाजे से बाहर पनवाड़ी की दुकान की तरफ दौड़ी।
बूढ़ी बुआ भय और गफलत में चीखी,’क्या है दुर्गी…….,क्या कर रही है ? कहाँ जा रही है…?’ तब तक उसकी बात अनसुनी करती हुई दुर्गा पनवाड़ी की दुकान के पास पहुंच चुकी थी। दौड़ के झटकों से उसका जूड़ा खुला गया था और काले लम्बे बाल सैकड़ों फुफकारती सर्पिणियों के झुण्ड की तरह पीठ, कमर और चेहरे पर बिखर गये थे। सड़क पर आते-जाते लोग हाथों में चमचमाती तलवार उठाकर दौड़ते, उसके काली जैसे भयानक रूप को देखकर, जहां के तहां स्तब्ध खड़े रह गये। हबीब कुछ सनझ पाए, इसके पहले ही उस पर दुर्गा के तलवार का भरपूरवार हुआ। वह इस अप्रत्याशित आक्रमण से बचने के लिए जरा पीछे हटा, तब तक तलवार उसकी बांह को चीरती निकल गई।
हबीब जमीन पर तड़फकर गिरा, गिरकर कांपता हुआ उठा और प्राण छोड़कर भय के मारे जानवरों जैसा आर्तनाद करता,चीखता भागा- ‘अल्ला…..! तलवार……….मार दिया…….।…..अम्मी….मर गया… बचाव रे…!’ उसकी बांह से रक्त की धार फूट रही थी। वह जहां- जहां से भाग रहा था, वहां-वहां लोहू बिखरता जा रहा था। हबीब गिरता-पड़ता गलियों में किधर घुसा, कहाँ गया पता ही नहीं चला। दुर्गा तलवार उठाये फुंफकारती गरज रही थी,’रूक जा सुअर का पिल्ला….किधर भाग रहा है….? कायर, रुक…!’ पनवाड़ी वाला पन्नालाल डर के मारे दुकान के एक कोने में दुबक गया था। बुढ़िया बुआ हांफती-कांपती दौड़ती आई और चीखी, ‘क्या हो गया……क्या हो…।’ आगे के शब्द दुर्गा के हुंकारते वीभत्स रूप को देखकर उसके मुंह के मुंह में ही रह गये।
तब तक हिम्मत करके मौहल्ले के कुछ व्योवृद्ध औरत-मर्द दौड़कर आये और उसे पकड़कर घर ले गये। अभी भी वह बिफरी शेरनी की तरह गुस्से से कांपती हुंकार रही थी। आँखें आग उगल रही थीं और चेहरा विद्रूप हो आया था। इस भयानक हो-हल्ले में नाहर सिंह भी बिस्तर पर उठ बैठे थे। उन्होंने तलवार लिए दुर्गा का उग्र रूप देखा तो सन्न रह गये। तभी थानेदार दुबे दो-तीन सिपाहियों के साथ वहां पहुंच गये।
वे शायद राउंड में थे। मुंशी नाहर सिंह के घर में भीड़ लगी हुई थी। सिपाहियों ने दो-तीन प्रमुख लोगों को छोड़कर बाकी सब को हटा दिया। थानेदार ने दुर्गा से वाकये के सम्बन्ध में पूछताछ की। दुर्गा ने उनको विस्तार से सारी बातें बता दीं। अभी पूछताछ चल ही रही थी कि दिल्ली से लौटे ह्यतुल्ला खान भी वहां पहुंच गए। थानेदार दुबे और वकील साहब में बातें हुईं। थानेदार सिर्फ इतना बोले, ‘बिटिया, थाने आकर रिपोर्ट क्यों नहीं की, हम देख लेते।’ फिर मामला वहीं दबा दिया गया। उसके बाद वह बदमाश हबीब उस शहर में कभी नहीं दिखा। वह कहाँ गया, उसका क्या हुआ? लाख सिर पटकने के बाद भी पुलिस को कुछ पता न चल सका।
-कस्तूरी दिनेश
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