दुनियाभर में फैला नकली दवाओं का जाल बच्चों की सेहत के लिए संकट बनता जा रहा है। एक शोध में सामने आया है कि मलेरिया, निमोनिया व अन्य बीमारियों के इलाज के नाम पर बिक रही नकली व निर्धारित मानक से निम्न स्तर की दवाओं से हर साल हजारों बच्चे अपनी जान गंवा रहे हैं। यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ हेल्थ के फोगार्टी इंटरनेशनल सेंटर के सलाहकार जोल ब्रीमैन के अनुसार ऐसी दवाओं से अब तक तीन लाख बच्चों की जान जा चुकी है, जो चिंतनीय है।
रिपोर्ट के अनुसार, जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए बेची गईं कुछ दवाओं में प्रिंटर इंक, पेंट और आर्सेनिक मिला है। 2008 में दवा कंपनी फिजर ग्लोबल सिक्योरिटी ने पाया था कि 75 देशों में उसके 29 उत्पादों की नकल बनाई जा रही है। करीब 10 साल बाद अब कंपनी के 95 उत्पादों की नकल 113 देशों में बेची जा रही है। ब्रीमैन का कहना है कि बीते कुछ दशक में कई गैर-सरकारी संगठन इस मुद्दे को लेकर लोगों को जागरूक करने में जुटे हैं। इसके अलावा ड्रग्स एंड क्राइम से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की संस्था, इंटरपोल और डब्ल्यूएचओ ने भी इस मुद्दे को उठाना शुरू किया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दस में से एक नकली या घटिया दवा की सप्लाई होती है। सारे संसार में नकली दवाइयों का 35 फीसदी हिस्सा भारत से ही जाता है और इसका करीब 4000 करोड़ रुपए के नकली दवा बाजार पर कब्जा है। भारत में बिकने वाली लगभग 20 फीसदी दवाइयां नकली होती हैं। सिर दर्द और सर्दी-जुकाम की ज्यादातर दवाएं या तो नकली होती हैं या फिर घटिया किस्म की होती हैं। इन नकली दवाइयों का जाल भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला हुआ है। भारत में दिल्ली, लखनऊ, अहमदाबाद और इन्दौर से पूरे देश को नकली दवाइयों की सप्लाई होती है।
ज्यादातर नकली दवाएं झुग्गी-झोपड़ियों में बहुत ही प्रदूषित वातावरण में तैयार की जाती हैं। इन नकली दवाओं की मांग दक्षिण अफ्रीका, रूस और उजबेकिस्तान के साथ-साथ हमारे पड़ोसी देशों जैसे म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश में भी तेजी से बढ़ रही है। एक इंसान जब बीमार पड़ता है तो डॉक्टर और दवा इन्हीं दोनों पर उसकी सारी उम्मीदें टिकी होती हैं। गरीब से गरीब आदमी भी पैसे की चिंता न करते हुए अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज कराना चाहता है। इतने प्रयास के बावजूद यदि दवा ही नकली हो, तो इसमें डॉक्टर भी भला क्या करेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार नकली दवाएं तीन तरह की होती हैं। एक में दवा का नाम और उसका कंपोजिशन गलत होता है। कुछ दवाएं ऐसी होती हैं, जो निर्धारित मानकों पर खरी नहीं उतरती हैं। उनमें किसी बीमारी से लड़ने के लिए जरूरी घटक की मात्रा कम रखी जाती है। इसके अलावा कुछ ऐसी भी दवाएं हैं जो कहीं से प्रमाणित नहीं हैं, ना ही उन्हें पंजीकृत कराया गया है। दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए विश्व में कुछ दवा मानक एजेंसियां हैं। लेकिन भारत में विश्व स्तर की इन मानक एजेंसियों से मान्यता प्राप्त दवा संयंत्र बहुत ही कम हैं। दुख की बात है कि भारत में ऐसा कोई नियामक प्राधिकरण नहीं है।
देश में दवाओं की गुणवत्ता जांचने के लिए प्रयोगशालाओं की भारी कमी है। इसके चलते यह पता करना अत्यंत कठिन है कि बाजार में चल रही कौन-सी दवा असली है और कौन-सी नकली? सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्या में ड्रग इंस्पेक्टर हैं और न ही नमूनों की जांच के लिए सक्षम प्रयोगशालाएं हैं। नकली दवा माफिया इस कदर हावी है कि उसे केंद्रीय औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के गैर जमानती और आजीवन कारावास जैसे सख्त प्रावधानों की भी परवाह नहीं है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आसानी से सस्ती दर पर पूरी सुरक्षा के साथ दवा परीक्षण कर सकती हैं। मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था का असर यह है कि आज देश के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भागीदारी सत्तर प्रतिशत से भी ज्यादा है। नकली और नशीली दवाइयों के मामले में सबसे बड़ा हिस्सा है हरियाणा। लेकिन प्रदेश और केंद्र सरकार इस मामले में गंभीर नहीं है।हैरत की बात तो यह है कि केंद्र सरकार भी यह स्वीकार कर रही है कि बाजार में नकली दवाएं बिक रही हैं। लेकिन बावजूद इसके इस नेटवर्क को ध्वस्त करने की खास कोशिश न तो सरकारी स्तर पर हो रही है और न ही प्रशासनिक स्तर पर।
देश में नकली दवाओं का नासूर कड़े कानून से ही रोका जा सकता है, वरना मौत के सौदागर लोगों के जीवन से इसी तरह खिलवाड़ करते रहेंगे। इस दिशा में विशेष कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। नकली दवाओं के फैलते कारोबार पर सरकार, उपभोक्ता संगठनों और चिकित्सकों ने चिंता जताई है, लेकिन सच्चाई ये है कि सरकार और प्रशासन की शिथिलता और उदासीन रवैए के कारण ही ये धंधा फलफूल रहा है।
देवेन्द्रराज सुथार
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