डॉ.लोहिया नर-नारी समानता के प्रबल पैरोकार थे। वे अक्सर स्त्रियों को पुरुष की पराधीनता के खिलाफ आवाज बुलंद करने की हिम्मत देते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देकर ही एक स्वस्थ और सुव्यवस्थित समाज का निर्माण किया जा सकता है। वे पुरुषों द्वारा लादी गयी नारी की पराधीनता और स्त्रियों द्वारा उसकी सहज स्वीकृति के सख्त विरुद्ध थे। उन्हें कतई पसंद नहीं था कि औरतें घूंघट और पर्दे में रहें और पुरुष समाज उनका शोषण और अनादर करता रहे।
वे स्त्रियों को पुरुषों की तरह मुखर व निडर देखना चाहते थे। यही वजह है कि उन्हें ऐसी स्त्रियां पसंद थी जिनमें अपने स्वाभिमान की रक्षा और दमदारी से अपनी बात कहने की ताकत थी। उनका नारी आदर्श द्रौपदी थी जिसने अपने चीरहरण के समय पांडवों की चुप्पी पर सवाल दागा और कौरवों के अत्याचार के विरुद्ध तनकर खड़ी हुई। जाति और योनि के कटघरे लेख में डॉ. लोहिया ने नर-नारी समानता के सवाल पर खुलकर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने तार्किकतापूर्वक स्त्री को पराधीन बनाने वाली वह हर संस्कृति, नैतिकता, परंपरा और मूल्यों पर चोट किया है जो नर-नारी समानता के विरुद्ध है।
इस निबंध में उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि जब मैं कहा करता हूं कि द्रौपदी हिंदुस्तान की सच्चे माने में प्रतीक है, सावित्री उसके जितनी नहीं, तब इसी अंग को देखकर कहता हूं कि वह ज्ञानी, समझदार, बहादुर, हिम्मतवाली और हाजिरजवाब थी। न सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि दुनिया में मुझे द्रौपदी जैसी औरत नहीं मिली। उन्होंने इस निबंध में एक स्थान पर सीता और सावित्री के पतिव्रत धर्म का महिमामंडन करने वालों से सवाल किया है कि क्यों हमारे समूचे इतिहास में पत्नीव्रत का उदाहरण नहीं मिलता?
दरअसल वे यह कहना चाहते हैं कि जब एक स्त्री पतिव्रत धर्म का पालन कर सकती है तो एक पुरुष क्यों नहीं? उन्होंने जाति और योनि के कटघरे में एक स्थान पर समाज से सवाल पूछा है कि एक औरत जिसने तीन बार तलाक दिया और चौथी बार फिर शादी करती है और एक मर्द जो चैथी बार इसलिए शादी करता है कि उसकी एक के बाद एक पत्नियां मर गयी तो इन दोनों में कौन ज्यादा शिष्ट और नैतिक है? डॉ. लोहिया ने परंपरा और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार की सख्त मुखालफलता की है। यही वजह है कि उन्हें पद्मिनी का जौहर पसंद नहीं था बल्कि वे रजिया बेगम की बहादूरी के कायल थे।
एक सभा में उन्होंने श्रोताओं से प्रश्न भी किया कि तुम्हें कैसी स्त्रियां अच्छी लगती हैं? क्या वे जो पति के मरने के बाद जौहर कर लेती हैं या वे जो जीवित रहकर सारे कष्टों को उठाते हुए अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती हैं? डॉ. लोहिया को राजमहलों में रहने वाली रानियां भी पसंद नहीं थी। वह उस रुसी स्त्री नटाली के बेहद प्रशंसक थे जो जर्मन सेना के बीच सफाई का कार्य करते हुए अपने देश की जीत के लिए जान को जोखिम में डालकर जासूसी करती रही और हजारों जर्मन सैनिकों की मौत सुनिश्चित की।
वे चंद्रगुप्त मौर्य कालीन विषकन्याओं के भी प्रशंसक थे जो राष्ट्र के निमित्त अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से तनिक भी नहीं हिचकती थी। डॉ. लोहिया स्त्रियों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के प्रति भी संवेदनशील थे। उन्हें कतई पसंद नहीं था कि स्त्रियां गुलामों की तरह पुरुषों के सामने लाचार नजर आएं। वे सभी जाति की स्त्रियों को शैक्षिक और सामाजिक रुप से पिछड़ा मानते थे। यही वजह है कि वह उनके लिए विशेष अवसरों की वकालत करते थे।
महिलाओं को नौकरियों में आरक्षण देने के उनके सुझाव को दोनों पिछड़ा वर्ग आयोगों ने (कालेलकर और मंडल आयोग) ने स्वीकारा भी। वे संसद और विधानमंडलों में भी महिलाओं के आरक्षण चाहते थे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि डॉ. लोहिया और उनकी विचारधारा को अपना आदर्श मानने वाले सियासी दल भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण के पक्षधर नहीं हैं। वे कुतर्कों का आश्रय लेकर आरक्षण का विरोध कर रहे हैं।
उसी का परिणाम है कि आज देश में लैंगिक भेदभाव की स्थिति बनी हुई है और महिलाओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा है। आज सरकार हो या संसद, विधानसभा हो या विधान परिषदें, उच्च न्यायालय हो या उच्चतम न्यायालय, आइएएस हों या बैंक कर्मचारी सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में फैसले लेने वाले उच्च पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी उनकी आबादी की तुलना में बहुत ही कम है।
जनसंख्या के मुताबिक संसद में भी महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की अपेक्षा कम है। अगर महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण का प्रावधान सुनिश्चित कर दिया जाए तो संसद में भी उनका प्रतिनिधित्व सम्मानजनक हो सकता है। बेहतर होगा कि राजनीतिक दल इस दिशा में ठोस पहल कर लोहिया के सपनों को पूरा करें।
-रीता सिंह