डा. अंबेडकर सिर्फ हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक भेदभाव के ही विरोधी नहीं थे बल्कि वे इस्लाम धर्म में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के भी कटु आलोचक थे। उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समाज में तो हिंदू समाज से भी कहीं अधिक बुराईयां हैं और मुसलमान उन्हें भाईचारे जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छिपाते हैं। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जाते गैर मुस्लिम व महिला वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें निचले दर्जे का माना जाता था, के साथ मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की जबरदस्त निंदा की।
डॉ. अंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने इस्लाम धर्म में स्त्री-पुरुष असमानता का जिक्र करते हुए कहा कि बहुविवाह और रखैल रखने के दुपरिष्णाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रुप से एक मुस्लिम महिला के दुख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म हो जाए फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जाएगी। उन्होंने इस्लाम में उस कट्टरता की भी आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरश: अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है।
उन्होंने लिखा है कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे इस्लामी देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया। राष्ट्रवाद के मोर्चे पर डा. अंबेडकर बेहद मुखर थे। उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की। हालांकि शुरूआत में उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया किंतु बाद में मान गए। इसके पीछे उनका तर्क था कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए क्योंकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा होगी। वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत स्वतंत्रता के बाद हर रोज रक्त से लथपथ हो। वे हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार थे। डा. अंबेडकर सामाजिक एकता के लिए जीवन भर प्रयास करते रहे।
डॉ. अंबेडकर की इस मांग की तीव्र आलोचना हुई और उन पर आरोप लगा कि वे भारतीय राष्ट्र एवं समाज की एकता को खंडित करना चाहते हैं। लेकिन सच तो यह है उनका इस तरह का कोई उद्देश्य नहीं था। उनका असल मकसद उन रुढ़िवादी हिंदू राजनेताओं को सतर्क करना था जो जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति कतई गंभीर नहीं थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछूत और जातिवाद चरम पर था। उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा। सो उन्होंने हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रुप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज कर दी।
अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 1920 में, बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की जो शीध्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया। 8 अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि ह्यहमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकता। उनको शिक्षित करना चाहिए, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा। उनको शिक्षित होना चाहिए। जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया।
यह अंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए रुढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। इसके बदले में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश-पूजा के अधिकार एवं छुआछूत समाप्त करने की बात स्वीकार ली गयी। गांधी ने भी इस उम्मीद पर कि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया। गौरतलब है कि आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा चार संभावित उम्मीदवार चुनते और फिर इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव द्वारा एक नेता चुना जाता।
उल्लेखनीय है कि इस आधार पर सिर्फ एक बार 1937 में चुनाव हुए। उनके विरोध के कारण यह आरक्षण मात्र पांच साल के लिए लागू हुआ। अस्पृश्यता के खिलाफ अंबेडकर की लड़ाई को भारत भर से समर्थन मिलने लगा और उन्होंने अपने रवैया और विचारों को रुढ़िवादी हिंदुओं के प्रति अत्यधिक कठोर कर लिया। भारतीय समाज की रुढ़िवादिता से नाराज होकर उन्होंने नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट कर दी। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आमसभा का आयोजन किया जहां उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायिओं का बौद्ध धर्म में रुपान्तरण करवाया। तब उन्होंने कहा कि मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का भाव सिखाता है।
डॉ. अंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा है। मौजूदा दौर में सभी राजनीतिक दल चाहे जिस विचारधारा और सिद्धांत से जुड़े हों सब डा0 अंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सोच को आगे बढ़ा रहे हैं। डा0 अंबेडकर के राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के कारण ही आज विशेष रुप से दलित समुदाय में चेतना, शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुई है। इसके अलावा बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ भी अस्तित्व में आए हैं जो समाज को मजबूती दे रहे हैं।
अरविंद जयतिलक
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।