देश और राजग सरकार को स्विस नेशनल बैंक की ताजा आई रिपोर्ट के आंकड़ों ने हैरान कर दिया है।(Do, Not, Get, Rid, Black, Powder, Emissions) रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में भारतीयों द्वारा स्विस बैंकों में जमा धन करीब 7000 करोड़ रुपए हो गया है। यह राशि 2016 की तुलना में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है। एक साल में इस राशि का दोगुना हो जाना देष की आजादी के बाद दूसरी मर्तबा संभव हुआ है। इसके पहले 2004 में स्विस बैंकों में एक साल के भीतर भारतीयों की जमा राशि का आंकड़ा 56 फीसदी पहुंच गया था। वित्त मंत्री अरुण जेटली और कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूश गोयल ने इन आंकड़ों को तार्किक ढंग से झुठलाने की कोशिश जरूर की है, लेकिन ये तर्क किसी के गले नहीं बैठ रहे। हालांकि पिछले चार साल में राजग सरकार ने कालाधन पर अंकुष लगे, इस दृष्टि से ऐसे कानूनी उपाय जरूर किए हैं, लेकिन स्विस बैंक द्वारा जारी आंकड़ों से साफ हुआ है कि ये उपाय महज हाथी के दांत हैं।
अरुण जेटली और पीयुष गोयाल ने कालाधन में 50 फीसदी की बढ़ोत्तरी संबंधी रिपोर्ट और खबरों को भ्रामक करार दिया है। जेटली ने अपने ब्लॉग में सीबीडीटी की जांच का हवाला देते हुए बताया है कि स्विस बैंकों में जमा करने वाले ज्यादातर भारतीय मूल के वे लोग है, जिन्होंने किसी अन्य देष की नागरिकता ली हुई है या फिर वे अनिवासी भारतीयों की श्रेणी में आते है। इसके अलावा मूल भारतीय नागरिक भी कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए स्विस बैंकों में धन जमा कर सकते है। इसलिए इसे कालाधन नहीं कहा जा सकता है। दूसरे वैसे भी अब स्विट्जरलैंड पहले की तरह टैक्स हैवन देश नहीं रहा है। वह दुनिया के दबाव में खाताधारकों का डाटा साझा करने लगा है। जनवरी 2019 से भारत को भी भारतीयों के खातों की रियल टाइम जानकारी मिलनी शुरू हो जाएगी। दूसरी तरफ सरकार का बचाव करते हुए पीयूष गोयल ने कहा है कि लिबरललाइज्ड रेमिटेंस स्कीम (एलआरएस) के तहत करीब 40 प्रतिषत राशि बाहर भेजने की सुविधा पहले से ही लागू है। इस योजना को संप्रग सरकार के कार्यकाल में पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंरबरम ने लागू किया था। इसके तहत कोई भी व्यक्ति प्रतिवर्श 2.50 लाख डॉलर तक की राशि भारत से बाहर भेज सकता है। यहां सवाल उठता है कि भारतीय धन को बाहर भेजने की ऐसी उदार सुविधाओं पर 4 साल के भीतर अंकुश क्यों नहीं लगाया गया? यही नहीं मोदी सरकार के कार्यकाल में नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, विजय माल्या और ललित मोदी भी करोड़ों-अरबों का चूना लगाकर आसानी से निकल भागे। इन सब हालातों से परिचित होकर साफ होता है कि विदेशों से कालेधन की वापसी का वादा तो पूरा हुआ नहीं, इसके उलट भगोड़े देश की जनता की पसीने की कमाई लेकर चंपत हो गए। 2016 में हुई नोटबंदी भी कालेधन के निर्माण पर कोई अंकुश नहीं लगा पाई।
हालांकि मोदी सरकार ने कालेधन पर अंकुष के लिए ‘कालाधन अघोषित विदेशी आय एवं जायदाद और आस्ति विधेयक-2015’ और कालाधन उत्सर्जित ही न हो, इस हेतु ‘बेनामी लेनदेन,निषेधद्ध विधेयक अस्तित्व में ला दिए हैं। ये दोनों विधेयक इसलिए एक दूसरे के पूरक माने जा रहे थे, क्योंकि एक तो आय से अधिक काली कमाई देश में पैदा करने के स्रोत उपलब्ध हैं, दूसरे इस कमाई को सुरक्षित रखने की सुविधा विदेशी बैंकों में हासिल है। लिहाजा कालाधन फल फूल रहा है। दोनों कानून एक साथ वजूद में आने से यह उम्मीद जगी थी कि कालेधन पर कालांतर में लगाम लगेगी, लेकिन नतीजा ढांक के तीन पात रहा। सरकार ने कालाधन अघोषित विदेशी आय एवं जायदाद और कर आरोपण-2015 कानून बनाकर कालाधन रखने के प्रति उदारता दिखाई थी। इसमें विदेशों में जमा अघोषित संपत्ति को सार्वजानिक करने और उसे देश में वापस लाने के कानूनी प्रावधान हैं। दरअसल कालेधन के जो कुबेर राष्ट्र की संपत्ति राष्ट्र में लाकर बेदाग बचे रहना चाहते हैं, उनके लिए अघोशित संपत्ति देश में लाने के दो उपाय सुझाए गए हैं। वे संपत्ति की घोशणा करें और फिर 30 फीसदी कर व 30 फीसदी जुर्माना भर कर शेष राशि का वैध धन के रूप में इस्तेमाल करें। इस कानून में प्रावधान है कि विदेशी आय में कर चोरी प्रमाणित हाती है तो 3 से 10 साल की सजा के साथ जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इसी प्रकृति का अपराध दोबारा करने पर तीन से 10 साल की कैद के साथ 25 लाख से लेकर एक करोड़ रुपए तक का अर्थदण्ड लगाया जा सकता है। जाहिर है, कालाधन घोषित करने की यह कोई सरकारी योजना नहीं थी। अलबत्ता अज्ञात विदेशी धन पर कर व जुर्माना लगाने की ऐसी सुविधा थी, जिसे चुका कर व्यक्ति सफेदपोश बना रह सकता है। ऐसा ही उपाय प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने देशी कालेधन पर 30 प्रतिशत जुर्माना लगाकर सफैद करने की सुविधा दी थी। इस कारण सरकार को करोड़ों रुपए बतौर जुर्माना मिल गए थे, और अरबों रुपए सफेद धन के रूप में तब्दील होकर देश की अर्थव्यस्था मजबूत करने के काम आए थे।
कालाधन उत्सर्जित न हो, इस हेतु दूसरा कानून बेनामी लेनदेन पर लगाम लगाने के लिए लाया गया था। यह विधेयक 1988 से लंबित था। इस संशोधित विधेयक में बेनामी संपत्ति की जब्ती और जुर्माने से लेकर जेल की हवा खाने तक का प्रावधान है। साफ है,यह कानून देश में हो रहे कालेधन के सृजन और संग्रह पर अंकुश लगाने के लिए था। यह कानून मूल रूप से 1988 में बना था। लेकिन अंतर्निहित दोशों के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका। इससे संबंधित नियम पिछले 27 साल के दौरान नहीं बनाए जा सके। नतीजतन यह अधिनियम धूल खाता रहा। जबकि इस दौरान जनता दल, भाजपा और कांग्रेस सभी को काम करने का अवसर मिला। इससे पता चलता है कि हमारी सरकारें कालाधन पैदा न हो, इस पर अंकुश लगाने के नजरिये से कितनी लापरवाह रही हैं। सबकुछ मिलाकर मोदी सरकार यह जताने में तो सफल रही कि वह कालेधन की वापसी के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन ला नहीं पाई।
सरकार का दावा है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव और भारत के निवेदन पर स्विट्जरलैंड सरकार से जो समझौते हुए हैं, उनके तहत स्विस बैंकों में भारतीयों के खातों की जानकारी मिलना शुरू हो जाएगी। यदि इस जानकारी के मिलने के बाद भी कालेधन की वापसी शुरू नहीं हुई तो सरकार के लिए कालांतर में समस्या खड़ी हो सकती है? हालांकि ये जानकारियां स्विट्जरलैंड के यूबीए बैंक के सेवानिवृत कर्मचारी ऐल्मर ने एक सीडी बनाकर जग जाहिर कर दी हैं। इस सूची में 17 हजार अमेरिकियों और 2000 भारतीयों के नाम दर्ज हैं। अमेरिका तो इस सूची के आधार पर स्विस सरकार से 78 करोड़ डॉलर अपने देष का कालाधन वसूल करने में सफल हो गया है। ऐसी ही एक सूची 2008 में फ्रांस के लिष्टेंस्टीन बैंक के कर्मचारी हर्व फेल्सियानी ने भी बनाई थी। इस सीडी में भी भारतीय कालाधन के जमाखोरों के नाम हैं। ये दोनों सीडियां संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान ही भारत सरकार के पास आ गई थीं। इन्हीं सीडियों के आधार पर राजग सरकार कालाधन वसूलने की कार्रवाई को आगे बढ़ा रही है। लेकिन बीते चार सालों में सरकार एसआईटी के गठन और दो नए कानून बना देने के बावजूद इस दिशा में कोई कारगर पहल नहीं कर पाई और न ही सूची में दर्ज नाम सार्वजनिक किए। इससे यह संशय बना हुआ है कि जनवरी 2019 के बाद भी कालेधन की वापसी स्विस बैंकों से हो पाएगी ?
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