चुनौतियों से समझौता नहीं, बल्कि सामना करें

Deal, Challenges, Face, Problems

क्या आपको दशरथ मांझी याद है? वही दशरथ मांझी जिसने 22 वर्षों तक कठोर परिश्रम करते हुए छैनी-हथौड़े से 360 फुट लम्बे, 30 फुट चौड़े और 25 फुट ऊंचे पहाड़ को काटकर सड़क बना दी। जिसके प्रयासों से अतरी और वजीरगंज की दूरी 55 किलोमीटर से घटकर 15 किलोमीटर रह गई। हालांकि, यह घटना लगभग 36 वर्ष पुरानी है, लेकिन हाल ही में ओड़िशा के एक व्यक्ति ने ऐसा ही वाकया दोहराया। बैतरणी गांव के एक ओर गोइनसिका नाम का पहाड़ है।

इसके दूसरी ओर नहर बहती है, लेकिन पहाड़ बीच में होने के कारण दइतरी और उसके आस-पास के खेतों में पानी पहुंचा पाना बहुत मुश्किल था। पानी के अभाव में दइतरी को मेहनत का आशातीत लाभ नहीं मिल पा रहा था।

इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए दइतरी ने पहाड़ के बीच से रास्ता निकालने की ठानी। उसके पास साधन-संसाधन नहीं थे, लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी। अपने भाईयों की मदद से उसने पहाड़ को चीरते हुए रास्ता निकालने का प्रण किया और जुट गया इस कार्य में। चार वर्षों तक अथक मेहनत करते हुए आखिर उसने सफलता हासिल कर ही ली।

अपने खेतों तक कल-कल करता पानी पहुंचा, तो मानो ग्रामीणों के चेहरे खिल उठे। पहले विरोध करने वाले लोग भी अब दइतरी के साथ खड़े दिखे और खड़े हों भी क्यों नहीं, अब सौ एकड़ क्षेत्र में खेती करने वालों को धान की पैदावार के लिए तरसना नहीं पड़ेगा। आज दइतरी खुश है, क्योंकि उसका सपना साकार हुआ।

अब लोग उसे ‘कैनाल मेन’ के नाम से पुकारने लगे हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह दशरथ मांझाी को आज भी लोग ‘माउंटेन मेन’ के नाम से जानते हैं। हालांकि दशरथ का माउंटेन मेन बनने का सफर भी बेहद चुनौतियों भरा था। वह बिहार के गहलौर गांव का रहने वाला था। वह जिस गांव में रहते थे, वहां से कस्बे के बीच एक पर्वत था।

एक बार मांझी इसी क्षेत्र में कार्य कर रहा था। उसकी पत्नी फाल्गुनी देवी उसके लिए खाना लेकर जा रही थी। रास्ते में वह एक दर्रे में गिर गई और दवाईयों के अभाव में उसकी मौत हो गई। इस घटना ने दशरथ का जीवन बदल कर रख गया। दु:खी मांझी ने यह प्रण लिया कि जो घटना उसके साथ हो गई, वह किसी और के साथ नहीं हो।

बस, इसी संकल्प के साथ छैनी और हथौड़ी लेकर वह जुट गया और 1960 में प्रारम्भ हुई उसकी यह कर्मयात्रा 1982 में पूर्ण हुई। अब वह एक रास्ता बना चुका था और जैसा कि पहले बताया गया कि अब वहां से कस्बे तक पहुंचने की दूरी 55 से घटकर 15 किलोमीटर हो चुकी थी।

आज दशरथ मांझी दुनिया में नहीं रहे, लेकिन उनके द्वारा किया गया कार्य उन्हें सदैव जिंदा रखेगा। मांझी के जीवन पर फिल्म बन चुकी है। उनकी कर्मण्यता ने अनेक पुस्तकों में स्थान पाया। उन्होंने इतिहास रचा, क्योंकि उन्होंने सिर्फ सपना देखा ही नहीं बल्कि इसे साकार किया। इसके लिए पूरे 22 साल तपस्या की। दइतरी भी इसी राह पर चला।

एक ओर आज भी जहां ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन चुनौतीपूर्ण है। जहां पर्याप्त साधन नहीं हैं, इसके बावजूद दशरथ और दइतरी ने बता दिया कि इच्छाशक्ति हो और चुनौतियों का सामना करने का माद्दा हो तो यह बाधाएं मनुष्य के आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प से बड़ी नहीं होती।

दशरथ और दइतरी के साथ यही तो हुआ। उनसे पहले किसी ने समस्या का सामना करने का साहस नहीं जुटाया। वे मुसीबतों से समझौता करते गए। इस कारण वे अपनी कोई पहचान नहीं बना पाए।

अपनी छाप नहीं छोड़ पाए, लेकिन दशरथ और दइतरी इनसे जुदा थे। मानो, ऐसे लोग मुसीबतों को हराने के लिए ही बनते हैं और ऐसे ही लोगों को दुनिया हमेशा याद रखती है। तो इस ‘संडे’ का ‘फंडा’ यह है कि चुनौती से समझौता नहीं बल्कि उसका सामना करना चाहिए। कठोर परिश्रम करते हुए हम हरेक बाधा को लांघकर सफलता को चूम सकते हैं और यही सफलता हमें भीड़ से अलग अलहदा पहचान दिला पाती है।

हरि शंकर आचार्य

 

 

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