भारत का विकृत दृष्टिकोण

Distorted view of india
करोड़ों श्रमिकों का पलायन एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है किंतु भारत के संबंध में इसमें कुछ भी नया नहीं है सिवाय इस बात के कि कोरोना महामारी ने लंबे समय से पनप रहे इस संकट को उजागर किया है। पूर्ववर्ती योजना आयोग ने 2011 में इस मुद्दे पर चर्चा की थी तथा संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य संगठन बीच-बीच में इस पर चर्चा करते रहते हैं। आंतरिक विस्थापन का मुद्दा पहले इस तरह कभी नहीं उठा। यहां तक कि 1950 के दशक में भी नहीं उठा जब भाखड़ा और दामोदर घाटी परियोजनाओं के कारण बड़ी संख्या में लोगों का विस्थापन हुआ था। उस समय राजनीतिक प्रशासकों ने इसे एक मुद्दा नहीं माना था।
हाल के वर्षों में टिहरी और नर्मदा बांधों के कारण बड़ी संख्या में लोगों का विस्थापन हुआ और दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल सहित कई लोगों ने इस मुद्दे पर कहा कि लोगों को बेहतर जीवन शैली की कीमत चुकानी पड़ती है। वर्ष 1953 में दामोदर घाटी निगम ने झारखंड के धनबाद और जामतारा तथा पश्चिम बंगाल के पुरूलिया और वर्दमान में भूमि का अधिग्रहण किया जिसके चलते 70 हजार लोग विस्थापित हुए और उन्हें भूमि तथा रोजी रोटी से वंचित होना पड़ा। प्राप्त खबरों के अनुसार इनमें से केवल 350 लोगों को मुआवजा और रोजगार मिला और बाकी लोगों को कुछ नहीं मिला। इसलिए वे न्याय के लिए आंदोलन करते रहे और 2012 में इसने हिंसक रूप लिया।
1960 में हिन्दी फिल्म हम हिन्दुस्तानी में युवा अभिनेता सुनील दत्त ने एक नई कहानी में एक नए भारत का चित्रण किया। देश में सबसे ज्यादा प्रवासी लोग झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल से हैं तथा उत्तर प्रदेश भी इस मामले में पीछे नहीं है। वर्ष 2016 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने कहा कि भारत में 24 लाख लोग आंतरिक विस्थापित हैं जबकि भारतीय सामाजिक संस्थान के अनुसार इस दौरान यह संख्या 2.13 करोड़ थी। देश में खनन कार्यों, औद्योगिक विकास, बांधों के निर्माण, वन्य जीव अभयारण्य और राष्ट्रीय पार्कों के कारण बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए। इन विस्थपित लोगों की संख्या अधिक भी हो सकती है और 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के साथ देश में 4 करोड़ लोगों का पलायन देखने को मिला क्योंकि उत्पादन कार्य ठप्प हो गए थे।
रेलवे ने 1 मई से 6 मई के बीच 115 श्रमिक ट्रेनों द्वारा बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और केरल के एक लाख से अधिक मजदूरों को उनके घर पहुंचाया। रेलवे की अकुशलता के कारण इन रेलगाड़ियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में 40 घंटे से अधिक समय लगा और इन यात्राओं में सात लोगों की जान गयी और 400 से अधिक लोग भूख, थकान, सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए। त्रासदी विकराल है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था के निर्माण का सपना देखा था जो संपूर्ण देश का प्रतिनिधित्व करे। किंतु राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को इस बारे में संदेह था। उन्होंने आईआईटी खंडगपुर के दीक्षान्त समारोह को संबोधित करते हुए अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कोताही बरतने की चेतावनी दी थी।
1999 में बांधों के बारे में विश्व आयोग ने योजना आयोग के पूर्व सचिव एनसी सक्सेना को उदधृत करते हुए कहा था कि देश में बड़ी परियोजनाओं के कारण पांच करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। 1977 में जनता पार्टी के शासन के दौरान श्रम मंत्रालय की समिति ने अंतर-राज्य प्रवासी मजदूरों के रोजगार को विनियमित करने का आह्वान किया था क्योंकि इन लोगों का शोषण होता है और उन्हें निर्धारित मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है। प्रवासी मजदूरों की समस्याओं से सभी परिचित हैं किंतु कोई उनकी परवाह नहीं करता है और ये लोग भावनात्मक सुरक्षा के लिए वापस अपने गांव जा रहे हैं। राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आंध्र, कर्नाटक और अन्य राज्यों में प्रशासन ने उनकी उपेक्षा की है।
आज मध्यम वर्ग भी गरीबी की रेखा के निकट पहुंच गया है और वह इस गर्मी के मौसम में प्रवासी मजदूरों के भूखे प्यासे पलायन की आलोचना कर रहा है। यह देश के नीति निमार्ताओं, शासकों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की उदासीनता को भी दर्शाता है। इन मजदूरों की दशा सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर और अरूणा राय की याद दिलाती हैं जिन्होंने इन लाखों उपेक्षित लोगों की आवाज उठाने का प्रयास किया। शायद देश की इस आर्थिक प्रगति से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला है जिसके कारण 81 करोड़ लोग गरीबी की ओर धकेले जा रहे हैं।
1950 के दशक में नव स्वतंत्र राष्ट्र के पास कोई दृष्टिकोण नहीं था। गरीबी बढ़ती जा रही थी और लोग आजीविका की तलाश में गांव से शहरों की ओर उमड़ रहे थे और वहां झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने के लिए विवश थे। हालांकि दूसरी ओर पंचवर्षीय योजनाओं में उर्वरक, इस्पात संयंत्र आदि की स्थापना के माध्यम से आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का प्रयास किया गया। लोगों का विस्थापन और गरीबी निरंतर जारी रही। योजना आयोग जैसे नीति निमार्ता निकायों को इसकी जानकारी थी। बजट में भी इस बढती समस्या के समधान पर ध्यान नहीं दिया गया। किसी भी सार्वजनिक परियोजना में विस्थापन आम बात बन गयी। हालांकि कारण बताया जाता था कि यह समृद्धि के लिए किया जा रहा है किंतु वास्तव में जिन लोगों की भूमि अधिग्रहित की जाती उन्हें कुछ नहीं मिलता और लाखों लोगों को अपने घर बार तथा आजीविका से हाथ धोना पड़ता।
1999 में प्रो. एएम खुसरो ने गरीबों की बढती वास्तविक संख्या पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। वर्तमान में मजदूरों के वापस अपने घरों की ओर पलायन से उद्योगों, भवन निमार्ताओं और अन्य व्यवसायों को असुविधा हुई है। राजनीतिक दल इस मुद्दे पर चुप हैं किंतु वे भी अंदर से चिंतित हैं। शायद उन्हें अभी इस संकट की विकरालता का अंदाजा नहीं है। अधिकतर श्रमिक विभिन्न राज्यों में उनके नियोक्ताओं, पुलिस और प्रशासन के व्यवहार से क्षुब्ध हैं और शायद अगले छह माह तक वे वापस नहीं जाएंगे तथा शायद ग्रामीण क्षेत्रों में भी संघर्ष बढे।
उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल ही में इन प्रवासी श्रमिकों को भोजन और यात्रा की सुविधाएं उपलब्ध कराने पर चिंता व्यक्त करना इस समस्या को स्वीकार करना है। हालांकि सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने न्यायधीशों से कहा है कि श्रमिकों का पलायन स्थानीय स्तर पर लोगों के उकसाने के कारण हुआ है। किंतु हम सभी जानते हैं कि सभी राज्यों में सरकारों ने दशकों से अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं किया है। मुफ्त राशन और अन्य सुविधाओं की घोषणाओं को पूरा करना अब न आसान होगा और न ही यह इस समस्या का समाधान है। गरीब आदमी को स्वावलंबी बनाना होगा। नीतियों में बदलाव करना होगा, भावी नीतियों के निर्धारण में गरीब लोगों को भी शामिल करना होगा, अर्थव्यवस्था में नई जान डालनी होगी, करों की दरों में कटौती करनी होगी और यदि देश अपनी 60 प्रतिशत जनसंख्या की अनदेखी करता रहा तो आत्मनिर्भरता प्राप्त करना आसान नहीं होगा।

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