ईसा का शिष्य

Disciple of Jesus Christ
प्रभु ईसा के एक शिष्य ने एक बार उनके खिलाफ झूठी गवाही दी। इससे अन्य शिष्य नाराज हो गए और एक शिष्य ने ईसा से कहा- इस शिष्य का इतना पतन कैसे हुआ कि झूठ बोलने में उसे जरा भी हिचक न हुई? उसे इसका दंड अवश्य मिलना चाहिए। प्रभु ईसा ने उस शिष्य से कहा- कोई कुछ भी कहे, हमें इसका ख्याल नहीं करना चाहिए। उसके प्रति दुर्भावना रखना भी उचित नहीं है।  बल्कि यदि वह कोई गलत काम करता तो हमें प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उसे माफ करें।
जहाँ तक असत्य बोलने की बात है तो कब क्या घटित होगा और कौन क्या करेगा, यह कोई नहीं जानता? अब यदि तेरे बारे में कहूँ कि मुर्गे के बांग देने से पहले तू भी झूठ बोलेगा, तो तुझे इस पर यकिन नहीं होगा। इतने में सिपाही आए और ईसा को पकड़ कर ले जाने लगे। इससे शिष्यों में हड़बड़ी मच गई और वे छिपने के स्थान ढूँढ़ने लगे। वह शिष्य भी एक जगह छिप रहा था कि एक सिपाही ने उसे देख लिया और उसे पूछा कि- कौन है तू? ईसा का साथी तो नहीं है न? अपनी जान बचाने के इरादे से उस शिष्य ने जवाब दिया कि ईसा को तो वह जानता ही नहीं। इतने में एक मुर्गे ने बांग दी और उस शिष्य को ईसा के शब्दों का स्मरण हो गया और वह सोचने लगा कि सचमुच मैं कितना पापी हूँ कि मैंने अपनी जान बचाने के लिए झूठ का सहारा लिया, जबकि थोड़ी देर पहले अपने एक साथी द्वारा झूठ बोलने पर मैंने उसकी निंदा कि थी।
तात्पर्य यह है कि हमेें दूसरोें कि गलती तो तुरंत दिखाई देती है, लेकिन वही स्थिति हम पर आए तो हमें उसे दुहरानें मे जरा भी हिचक नहीं होती। जब तक हम एक किसी परिस्थिति विशेष में नहीं आते, तब तक हम भी नहीं कह सकते कि उस समय किस प्रकार का व्यवहार करेंगे।

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