भोपाल में दिग्विजय सिंह की पुख्ता होती जमीन

Digvijay Singh candidate from Madhya Pradesh state capital Bhopal

विवादित बयानों से निरंतर वास्ता रखने वाले कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह मध्य-प्रदेश की राजधानी भोपाल से प्रत्याशी हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने प्रदेश के बड़े नेताओं को आग्रह किया था कि वे अपने परंपरागत गढ़ छोड़कर ऐसी सीटों से चुनाव लड़ें, जहां दशकों से भाजपा कुडंली मारे बैठी है। इस चुनौती को न तो स्वयं कमलनाथ स्वीकार पाए और न ही अपनी अखिल भारतीय छवि स्थापित करने में लगे ज्योतिरादित्य सिंधिया स्वीकार पाए। कमलनाथ ने आखिरकार अपने पुत्र नकुलनाथ को परंपरागत सीट छिंदवाड़ा से ही प्रत्याशी बनाया और सिंधिया इंदौर या विदिशा से लड़ने का साहस दिखाने की बजाय अंतत: अपनी परंपरागत सीट गुना-शिवपुरी से ही चुनाव लड़ रहे हैं। अजय सिंह, सुरेश पचैरी एवं कांतिलाल भूरिया की तो इधर-उधर से लड़ने की कोई बिसात ही नहीं है।

किंतु राजनीति के दिग्गज खिलाड़ी और प्रदेश की राजनीति में गहरे डूबे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपनी परंपरागत सीट राजगढ़ का मोह त्यागकर भोपाल में आ डटे। राजनीति में जोखिम उठाने की हिम्मत बिरले ही कर पाते हैं। दिग्गी ने यह चुनौती यह जानते हुए स्वेच्छा से मंजूर की है कि भोपाल सरकारी कर्मचारियों का गढ़ है और उनकी कर्मचारी विरोधी छवि से अभी भी पीछा नहीं छूटा है। साथ ही उन्हें उमा भारती ने मिस्टर बंटाढार की जो संज्ञा दी थी, वह भी अतीत के साये की तरह उनकी काया की छाया से चिपकी हुई है। लेकिन इधर दिग्विजय ने भोपाल में डेरा डालकर जिस तरह से हिंदू कार्ड खेलते हुए जो चुनावी पांसे फेंकना शुरू किए हैं, उनसे एहसास होता है कि दिग्विजय चुनावी फसल काटने के लिए जमीन पकाते दिख रहे हैं।

प्रदेश की राजनीति की गहरी पकड़ और समझ रखने वाला दूसरा कोई नेता शायद नहीं हैं। इस लिहाज से उनपर हमला घर (कांग्रेस) से हो रहा हो अथवा बाहर से वे उसे साधने और निस्तेज करने में माहिर हैं। कमलनाथ ने जैसे ही स्वयंसेवक संघ के कार्यालय से सुरक्षा वापिस ली, वैसे ही दिग्विजय ने इसे हटाने का विरोध किया। आखिरकार कमलनाथ को सुरक्षा बहाल करनी पड़ी। इससे संघ का उनके प्रति अब नरम रुख दिखाई दे रहा है। अब दिग्गी यह भी कह रहे हैं कि मैं हिंदू हूं तो संघ का मुझसे विरोध क्यों? इसके बाद दिग्विजय ने एक और बड़ा हिंदू कार्ड चल दिया। दरअसल भोपाल में कांग्रेस कार्यालय को आबंटित की गई 4000 वर्ग फीट जमीन खाली पड़ी है। इस जमीन को दिग्विजय सिंह ने भव्य राम मंदिर बनाने के लिए श्रीराम मंदिर न्यास को देने की घोषणा कर दी।

साथ ही कहा कि भाजपा अयोध्या में तो मंदिर नहीं बन पा रही है, इसलिए इस जमीन पर ही मंदिर बनवा ले। साफ है, यह घोषणा कांग्रेस के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व से सहमति पर ही की गई होगी? क्योंकि दिग्विजय सिंह प्राण जाएं, पर वचन न जाए की परिपाटी पर चलने वाले नेता हैं। उन्होंने 2003 में प्रदेश का चुनाव हर जाने पर दस साल कोई भी पद नहीं लेने की घोषणा की थी, वह उन्होंने बखूबी निभाया। इसके बाद उन्होंने नर्मदा परिक्रमा का संकल्प लिया और इसे पूरा भी कर दिखाया। साफ है, दिग्विजय देश की सनातन सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं के पालन के प्रति हृदय से श्रद्धावनत रहते हैं। यहां यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि जब केंद्र में पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, तब अयोध्या में विवादित स्थल के विध्वंस के बाद राम मंदिर निर्माण के व्यावहारिक और नीतिगत उपायों की ईमानदार कोशिश राव ने ही की थी। इस कोशिश में दिग्विजय को शंकराचार्य और मुस्लिम उलेमाओं से बातचीत कर राजी करने की अहम् जिम्मेबारी सौंपी थी।

शिवराज सिंह और उमा भारती यह कहकर बेवजह का अहंकार दिखा रहे है कि दिग्विजय को तो भाजपा का साधारण कार्यकर्ता भी शिकस्त दे देगा। लेकिन भोपाल के मैदान में जंग लड़ने से दोनों ही पीछे हट रहे हैं। क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं कि राजनीति के इस दिग्गज खिलाड़ी की पराजय नामुमकिन हैं। न तो उनके समक्ष भाजपा की सामूहिक चुनौती टिकने वाली है और न ही कांग्रेस क्षत्रपों की गुटीय राजनीति उनका बाल भी बांका करने की हेसियत रखती है। हालांकि उमा भारती ने अपने कहे को तार्किक रूप से सिद्ध करने के लिए कहा है कि कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्रियों को हराने की भाजपा में परंपरा रही है।

डॉ लक्ष्मीनारायण पाण्डेय ने तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू को विधानसभा चुनाव हराया। सुमित्रा महाजन ने 1989 में पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी को लोकसभा का चुनाव हराया। फिर सतना लोकसभा क्षेत्र से सुखलाल कुशवाहा ने पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को परास्त किया। हालांकि कुशवाहा बसपा के प्रत्याशी थे। बहरहाल मिथक और परंपराएं तो बनते ही टूटने के लिए हैं। बशर्तें राजनीति में जोखिम उठाने का साहस राजनीति के दिग्गज दिखाएं और राजनीतिक चतुराई दशार्एं। कोई स्पश्ट राजनीतिक अजेंडा नहीं होने के बावजूद मध्य-प्रदेश विधानसभा चुनाव में दुविधाग्रस्त कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी के बुनियादी मुद्दों को ही साझा करते हुए भाजपा को मात दे दी थी। कांग्रेस ने इसी खेल को दोहराने की चाल चल दी है।

 

 

 

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