केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर का यह बयान वास्तव में (Development of country) आश्चर्यचकित करने वाला है कि हम किसी भी विकसित देश के समकक्ष हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि भारत के पास वह सब कुछ है जो विश्व के किसी भी विकसित देश के पास है। शायद देश के गरीब, वंचित, बेरोजगार और नाखुश करोड़ों लोगों को आश्वासन देने के लिए उनका यह बयान सही है जो दिन-रात अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। न केवल ठाकुर अपितु प्रधानमंत्री भी देश की उपलब्धियों को गिना रहे हैं किंतु वे इस जमीनी वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि न केवल गरीबी अपितु सामाजिक विद्वेष, हिंसा और घृणा हाल के समय में देश में बढ़ी है।
ठाकुर के इस बयान के साथ ही 30 मार्च को विश्व हैपिनेस रिपोर्ट जारी हुई (Development of country) जिसमें भारत 137 देशों में 126वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र सस्टेनेबल डेवलपमेंट सोलुशन नेटवर्क द्वारा प्रकाशित यह रिपोर्ट 150 देशों के लोगों के बारे में जुटाए गए आंकडों पर आधारित है और इस रिपोर्ट के अनुसार खुशहाली के मामले में भारत, यूक्रेन, इराक, फिलीस्तीन, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे युद्धरत और लगभग दिवालिया देशों से पीछे है। वस्तुत: एशिया में भारत की स्थिति केवल अफगानिस्तान से बेहतर है जो 137वें स्थान पर है। पिछले वर्ष ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 121 देशों में से 107वें स्थान पर था और वह कोरिया, इथोपिया, सूडान, रवांडा, नाइजीरिया और कांगो जैसे देशों से पीछे था। यह किसी विकसित देश का लक्षण नहीं है और यह बताता है कि विकास समाज के सबसे निचले स्तर तक नहीं पहुंचा है।
खाद्यान्न से वंचित लोगों की स्थिति में कोई सुधार नहीं
देश में कुछ विशेषज्ञ इस नेटवर्क द्वारा खुशहाली के मापन के बारे में प्रश्न उठाते हैं। यह माना जाता है कि प्रति व्यक्ति आय, भ्रष्टाचार, सामाजिक कल्याण लाभ और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता इत्यादि के आधार पर इस खुशहाली का मापन किया जाता है और इसका कोई कारण नहीं है कि इन मानदंडों पर प्रश्न क्यों उठाए जाए क्योंकि लोगों को खुशहाल रखने में आर्थिक और सामाजिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं किंतु देश में असमानता, आय में बढ़ती विषमता, व्यापक भ्रष्टाचार, सामाजिक घृणा, हिंसा आदि सामाजिक संबंधों को अस्थिर कर रहे हैं। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि खाद्यान्न से वंचित लोगों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। इसमें पाया गया है कि 6 माह से 23 माह की आयु के बच्चों में पर्याप्त कैलोरी युक्त भोजन की अनुलब्धता वाले बच्चों की संख्या जहां 2016 में 17.2 प्रतिशत थी वह बढ़कर 2021 में 17.8 प्रतिशत पहुंच गई है।
हार्वर्ड स्कूल आॅफ पब्लिक हेल्थ के डॉक्टर डॉ. एसवी सुब्रमणियम के नेतृत्व में तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यह आंकड़ा असामान्य और अनपेक्षित है। अनुसंधानकर्ताओं ने यह आंकड़ा सरकार के परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से लिया है और जिन्होंने कहा है कि उन बच्चों के बारे में पहला आकलन किया है जिन्हें बिल्कुल भोजन नहीं मिलता है और यह बताता है कि देश के सबसे अधिक गरीब और कमजोर घरों को भोजन उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। अधिकतर राज्यों में ऐसे बच्चों की संख्या में गिरावट आई है किंतु उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या में 10 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 12.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उत्तर प्रदेश में ऐसे बच्चों की संख्या 27.4 प्रतिशत और छत्तीसगढ में 24.6 प्रतिशत, झारखंड में 21 प्रतिशत, राजस्थान में 19.8 प्रतिशत और असम में 19.4 प्रतिशत है।
भारत में कोरोना महामारी शुरू होने के बाद 80 प्रतिशत लोगों को नुकसान हुआ
प्रो. सुब्रमणिम ने कहा है कि यह आंकडा असामान्य और अनपेक्षित है। हमें यह अपेक्षा नहीं है कि छह माह से 23 माह के बच्चों को पूरे 24 घंटे भोजन न मिले। इस संबंध में कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा हाल ही में किए गए ट्वीट को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में गरीब लोगों की आय में 50 प्रतिशत, मध्यम वर्ग की आय में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है और धनी लोगों की आय में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में कोरोना महामारी शुरू होने के बाद 80 प्रतिशत लोगों को आय का नुकसान हुआ है। राहुल का कहना है कि गरीब और गरीब होते जा रहे हैं और धनी और धनी होते जा रहे हैं तथा आॅक्सफेम की रिपोर्ट ने भी इस बात की पुष्टि की है। ऐसे अनेक मामले देखने को मिल जाएंगे जो गरीब और वंचित वर्गों की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं।
जैसा कि मैंने अनेक लेखों में लिखा है कि योजनाकारों द्वारा विकास को सही ढंग से नहीं समझा जा रहा है क्योंकि किसी भी परियोजना के लाभार्थियों की संख्या को ध्यान में नहीं रखा जाता है। बहुप्रचारित ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम का विस्तार नहीं किया जा रहा है और दूसरी ओर इसके लिए बजट में कटौती की जा रही है। इस योजना के लिए उपलब्ध कराया गया बजट साल में 35 दिन से अधिक का रोजगार देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई ने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक-द पालिटिक्स आॅफ पॉलिटिकल इकोनोमी: हाउ इकोनोमिक्स अबंडन्ड द पूअर में मानवीय मूल्यों पर आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने पर बल दिया है। वे सभी लोगों के लिए बुनियादी आय के प्रावधान की बात करते हैं और इसे व्यावहारिक बनाने के बारे में अपने कुछ सुझाव देते हैं। सार्वभौम बुनियादी आय के विचार के वितरण के लिए संसाधन जुटाने की वित्तीय कठिनाई और कार्य करने के लिए लोगों को प्रोत्साहन की संभावना के आधार पर विरोध किया जा रहा है।
दफ्तरों में बैठे हुए राजनेता वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं
उल्लेखनीय है कि पूंजीवाद के माध्यम से पूर्ण रोजगार या गरीबी का उन्मूलन संभव नहीं है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी रणनीति बनाए जाने की आवश्यकता है जो उन निहित स्वार्थों के चंगुल से मुक्त हो जो समाज में गरीबी और असमानता बनाए रखना चाहते हैं। राजनीतिक नेताओं द्वारा बडे-बडे दावों से अशिक्षित और अर्धशिक्षित लोग प्रभावित हो सकते हैं किंतु उनका शिक्षित वर्गों पर कोई प्रभाव नहीं पडता है। कई बार यह देखकर हैरानी होती है कि दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में आलीशान दफ्तरों में बैठे हुए राजनेता या तो जमीनी वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं या वे अनभिज्ञ बने रहना चाहते हैं। बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए समुचित और संतुलित आहार के अभाव, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अनेक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। सामाजिक-आर्थिक मानदंडों में गिरावट आ रही है। देश के वास्तविक भविष्य की परवाह किए बिना किसी भी कीमत पर वोट प्राप्त करने की वर्तमान प्रणाली एक बड़ी भूल है और यह कार्य हर सत्तारूढ़ सरकार द्वारा किया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि यह स्थिति कब तक जारी रहेगी।
धुर्जति मुखर्जी, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के निजी विचार हैं।)