प्राचीन काल में संजय नामक राजा थे। उनकी एक ही कन्या थी। उन्हें पुत्र की बड़ी चाह थी। एक बार देवर्षि नारद उनके राज्य में पहुँचे और राजा के कहने पर उन्होंने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। राजा ने माँगा- मुझे ऐसा पुत्र चाहिए जो रूपवान तो हो ही, उसका मल-मूत्र , थूक-कफ सभी सोने के हों। मांग अप्राकृतिक थी, फिर भी देवर्षि ने तथास्तु कह दिया। कुछ समय बाद राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
पुत्र का नाम सुवर्णजीवी रखा गया। वरदान के अनुरूप पुत्र का मल-मूत्र, थूक- कफ सभी सोने का था। देखते-ही-देखते राजा ने पूरा राजमहल सोने का बनवा लिया। राजा के इस विलक्षण पुत्र की चर्चा पूरे राज्य में फैल गई। दूर-दूर से लोग उसे देखने आने लगे। डाकुओं की भी पूरे घटनाक्रम पर दृष्टि थी। वे लगातार राजकुमार का अपहरण करने की योजना बना रहे थे। एक दिन डाकू राजमहल से राजकुमार को उठकार ले गए। जंगल में डाकुओं का आपस में विवाद हो गया। सभी राजकुमार पर अपना नियंत्रण चाहते थे। इधर, राजसेना राजकुमार की खोज में जंगल तक पहुँच गई थी। डाकुओं को कोई उपाय न सूझा।
राजकुमार को अधिक दिन तक छुपाए रखना कठिन जान, डाकुओं ने उसकी हत्या कर दी और जो भी सोना हाथ लगा, उसे बाँटकर फरार हो गए। इधर, राजसेना जंगल पहुँची तो देखा राजकुमार का शव पड़ा है। सूचना मिलने पर राजा पहुँचा और पुत्र का शव देखकर विलाप करने लगा। तभी वहाँ पहुँचे एक ऋषि ने स्मरण कराया अब कुछ होने का नहीं है। पुत्र की कामना का लोभ उत्तम था। वह लोभ होकर भी लोभ से परे था। तुमने उसमें अप्राकृतिक विधान जोड़ा और ऐसा विलक्षण पुत्र पाया जिसकी रक्षा कठिन हो गई। परिणामस्वरूप पुत्र नहीं बच पाया। लोभ ठीक है किन्तु इस तरह उसमें अति हो तो अंत में विनाश और विलाप ही छोड़ जाता है। इसलिए लोभ की अति से बचें।
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