निंदा, प्रचार व भीड़तंत्र बनकर रह गया लोकतंत्र

Democracy, publicity and democracy

17 वीं लोकसभा के लिए मतदान के अंतिम पड़ाव के लिए चुनाव प्रचार बंद हो गया है। प्रतिदिन की रैलियों में होती भीड़, रोड शो, वर्कर बैठकें, हंगामा इस बात का सबूत है कि अभी तक लोकतंत्र भीड़तंत्र से अलग नहीं हो सका। लोकतंत्र में लोक शब्द लुप्त होता जा रहा है व पार्टी के सीनियर नेताओं की शाब्दिक जंग बन कर रह गया है। रैलियों में आमजन की शिरकत न के बराबर हो गई है। पक्के वर्कर ही रैलियों में पहुंच रहे हैं। एक जिले की रैली में दूसरे सभी जिलों से वर्कर बुलाए जाते हैं। भौगोलिक स्थिति के हिसाब से कई रैलियों में तीन-तीन राज्यों तक के वर्कर भी शामिल होते हैं, हालांकि दावा यही किया जाता है कि भीड़ स्थानीय लोगों की है। सच्चाई तो यह है कि लोग किसी भी रैली का हिस्सा नहीं बनते। दरअसल आजादी के 70 साल बाद तो बात यहां तक पहुंचनी चाहिए थी कि आमजन हर पार्टी की रैली में जाकर नेताओं के विचार सुनें व सभी पार्टियों के विचार जानने के बाद मतदान करने का निर्णय लें।

हालात यह हैं कि किसी भी पार्टी की रैली में मुद्दों की चर्चा कम व एक-दूसरी पार्टी के खिलाफ प्रचार अधिक होता है, जिस कारण आमजन ने रैलियों से दूरी बना ली है। चुनाव आयोग ने पार्टियों की चालाकियां खत्म करन के लिए सख़्त नियम जरूर बनाए हैं परंतु पार्टियां सुधरने के लिए अभी तैयार नहीं। दरअसल राजनैतिक पार्टियां लोकतंत्र को लोकतंत्र ही नहीं बना सकी । पार्टियों को लोग सिर्फ मतदान वाले दिन तक याद होते हैं। बाद में न तो लोग याद रहते हैं वे न ही वह वायदे जो चुनाव मैनीफैस्टो में लादे होते हैं। इस बार चुनाव मैनीफैस्टो भी कांग्रेस व भाजपा ने ही समय तैयार किए हैं। क्षेत्रीय पार्टियों को यह बात याद तक भी नहीं कि चुनाव मैनीफैस्टो भी जारी करना है। किसी भी पार्टी ने रैलियों दौरान लोगों की आपत्ति तो क्या जाननी थी किसी ने सुझाव भी नहीं मांगे।

चुनाव प्रचार एकतरफा होता है जहां अपने गुणगाण करने व विपक्षी पार्टियों की निंदा करने का काम होता है इन चुनावों का खतरनाक पहलू यह रहा है कि पार्टियों ने धार्मिक मुद्दों के नाम पर वोट मांगने की पुरानी रिवायत को पहले की अपेक्षा भी अधिक निभाया है। राजनीति देश के लिए होती है परंतु राजनीतिक लोग राजनीति के लिए देश भी दांव पर लगाने से परहेज नहीं कर रहे। नि:संदेह लोकंतत्र की उम्र बढ़ रही है परंतु इसकी आत्मा कमजोर हो रही है। इस कारण ही लोग राजनीति से उदासीन होते नजर आ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों को लोगों की निराशा को समझना पड़ेगा। लोकतंत्र सिर्फ पार्टियों की मनमर्जी नहीं हो सकता।

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