दिल्ली हिंसा के बाद जांच एजेंसियां पीएफआई और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की भूमिकाओं को भी खंगाल रही हैं। सवाल है कि दिल्ली के ही कई इलाकों में आतंकियों के स्लीपर सेल चुपचाप सक्रिय रहे हैं, तो यह खुफियागीरी की ही नाकामी है। पाकिस्तान और खाड़ी देशों के ट्विटर संदेशों के आधार पर पहले ही सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की गई? उन ट्विटर अकाउंट्स को प्रतिबंधित क्यों नहीं किया गया? क्या दंगों के बाद ही ऐसे संदेशों की लीड मिली? ध्यान रहे कि अमरीकी राष्ट्रपति टंज्प के भारत में 36 घंटों के प्रवास के दौरान ही हिंसा चरम पर रही और उनके लौटते ही दंगे शांत होने लगे।
राजेश माहेश्वरी
नागरिकता कानून की आड़ में जिस प्रकार का हिंसा का तांडव दिल्ली की सड़कों पर हुआ वो हैरान और परेशान कर देने वाला है। इस हिंसा में तकरीबन पचास लोगों अपनी जान गंवा बैठे। हिंसा के बाद जो तथ्य सामने आ रहे हैं वो चिंता बढ़ाने वाले हैं। पूरे घटनाक्रम को देखने से पता चलता है कि एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत इस हिंसा को अंजाम दिया गया। आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर के घर से जिस तरह पेट्रोल बम, तेजाब, पत्थर और हिंसा में उपयोग में लाई गई सामग्री मिली है, वो इस बात की ओर सीधा इशारा करती है कि यह हिंसा सोची समझी रणनीति के तहत अंजाम दी गई। इस हिंसा में कई लोगों को बड़ी बेरहमी से मारा गया। आईबी के कर्मचारी अंकित शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट उसके साथ हुई हैवानियत की पूरी कहानी बयां करती है। हिंसा को लेकर संसद से लेकर सड़क तक माहौल गर्म है लेकिन जिस तरह के हालात हैं उसके मद्देनजर इस प्रकरण की गहन और निष्पक्ष जांच होना बहुत जरूरी जान पड़ता है।
हिंसा करने वाली भीड़ ने हिंसा का कश्मीर मॉडल प्रयोग किया। अगर ध्यान दिया जाए तो सीएए के विरोध में हो रहे प्रदर्शन में प्रदर्शनकारी शुरू से ही कश्मीरी पैटर्न को फालो कर रहे हैं। ऐसे दृश्य उस समय भी दिखे जब दिल्ली में छात्रों के प्रदर्शन के दौरान पुलिस से बचने के लिए लड़कों ने लड़कियों को आगे कर ढाल बनाया। विरोध का यही तरीका कश्मीर में पत्थरबाज और उपद्रवी अपने बचाव के लिए करते रहे हैं। दिल्ली में जितने भी प्रदर्शन हुए उनमें उपद्रवियों ने सुनियोजित तरीके से महिलाओं और छात्राओं को आगे रखा ताकि पुलिस कार्रवाई से बच सकें। प्रदर्शन के दौरान एक जैसे नारे भी किसी षडयंत्र की ओर इशारा करते हैं।
दिल्ली की हिंसा जांच का हिस्सा है। एक बड़ी जांच होनी चाहिए। लेकिन मोटे तौर पर एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हिंसा करने वालों को राजनीतिक मदद जरूर थी। इस पूरी हिंसा में कई राजनीतिक दल पर्दे के पीछे पूरी तरह सक्रिय हो सकते हैं, हालांकि ये जांच का विषय है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और तमाम दूसरे मंत्री और नेता नागरिकता कानून को लेकर स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं। बावजूद इसके देश के कई शहरों में शाहीन बाग का मॉडल अपनाकर प्रदर्शन करना समझ से परे है। प्रदर्शनकारी सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय मध्यस्थ भी सुलह में नाकामयाब साबित हुए। दिल्ली हिंसा के बाद लगता है अब शाहीन बाग की बारी है। अचानक वहां धारा 144 लागू कर दी गई है। सुरक्षा बलों की 12 अतिरिक्त कंपनियां और दिल्ली पुलिस के करीब एक हजार जवान तैनात कर दिए गए हैं। प्रदर्शनकारियों को उस जगह से जाने की फिलहाल अपील की जा रही है। पुलिस ने धरनास्थल के पास बैरिकेड पर नोटिस चिपका दिया है कि आदेश को न मानने वालों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी। अब सवाल उठता है कि क्या धरने पर बैठी महिलाएं वह जगह छोड़ने को तैयार हो जाएंगी या अंतत: उन्हें वहां से खदेड़ा जाएगा?
शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी कश्मीर में हिंसा का मॉडल अपनाए हुए हैं। इसलिए शाहीन बाग की तुलना कश्मीर से की जाने लगी है। विशेषज्ञों का मानना है कि देश में कई शाहीन बाग सजे हैं और 500 से अधिक कश्मीर भी पनप रहे हैं। इसी से तनाव, विभाजन और हिंसा के हालात का अनुमान लगाया जा सकता है। हालांकि दिल्ली में दंगों के बाद हालात सामान्य हो रहे हैं, लेकिन जख्म अभी हरे हैं और ‘राख’ के नीचे कोई ‘चिंगारी’ भी दबी हो सकती है! दंगों को शाहीन बाग के फलितार्थ ही माना जा रहा है।
दिल्ली हिंसा के दौरान तकरीबन पचाास लोगों की मौत हुई है। दिल्ली हिंसा में शामिल लोगों ने कई सौ राउंड फायरिंग की। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 87 लोगों को सीधी गोलियां लगीं हैं, जिससे कई जानें गई। इसी आधार पर जांच और खुफिया एजेंसियों का शक आतंकी साजिश की ओर गया है। वे इसे महज दंगा नहीं जेहादी आतंक का हमला करार दे रही हैं। आतंकियों ने दंगाग्रस्त इलाकों में छुपे स्लीपर सेल के जरिए हमले किए और कराए। एजेंसियों को लीड मिली है कि पाकिस्तान और खाड़ी देशों के कुछ ट्विटर हैंडल के जरिए साजिशें रची गईं और दंगों के लिए उकसाया और भड़काया गया।
दिल्ली में हिंसा पूर्वनियोजित थी, सुरक्षा एजेंसियों की प्रारंभिक जांच से ये साफ हो चुका है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में भड़की हिंसा के दौरान गोली-बम से ज्यादा घातक गुलेल साबित हुई है। यह कोई आम गुलेल नहीं थीं। ये गुलेल सैकड़ों की संख्या में मिली हैं। हिंसा की जांच कर रही दिल्ली पुलिस अपराध शाखा की एसआईटी को 10-15 घरों के बाद किसी न किसी एक घर की ऊंची छत पर गुलेल मिली है। मुस्तफाबाद, मौजपुर, करावल नगर, शिव विहार, कर्दमपुरी, सीलमपुर, ब्रह्मपुरी, भजनपुरा आदि इलाकों में हुई हिंसा की जांच प्रगति पर है।
शाहीन बाग में प्रदर्शन करने के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल उठाया था। हालांकि अभी तक कोई भी अंतरिम आदेश जारी नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय मध्यस्थ भी अपनी कोशिश मे ंसफल नहीं हो पाए। शीर्ष अदालत में अगली सुनवाई 23 मार्च को है। सरकार और प्रशासन तब तक कोई ढील नहीं देना चाहते, लिहाजा पुलिस के जरिए कोशिश शुरू की गई है कि प्रदर्शनकारी कहीं और चले जाने को तैयार हो जाएं। जो मूल भाव शाहीन बाग का रहा है, उसी की प्रतिक्रिया दंगों के तौर पर मूर्त हुई थी। शाहीन बाग की आड़ में दंगई और कथित आतंकी भी रहे हैं, यह दावा नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके कोई प्रमाण नहीं हैं। हिंसा प्रभावित उत्तर-पूर्वी दिल्ली भले ही शांति की राह पर है, लेकिन यहां रहने वाले लगभग 35 लाख लोग अब भी दहशत में हैं। आलम यह है कि रात में पुलिसकर्मियों के गश्त के अलावा मोहल्ले के लोग भी पहरा दे रहे हैं। पुलिस बैरिकेड लगाकर लोगों ने अपनी गलियों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया है। उन्हें डर है कि कहीं रात के अंधेरे में फिर कोई आकर इनका चैन न छीन ले। ऐसा लगता है कि अगर दिल्ली पुलिस प्रशासन व गृह मंत्रालय ने समय रहते मुस्तैदी दिखाई होती और राजनीतिक नेताओं के भड़काऊ बयानों एवं भाषणों पर अंकुश लगा दिया होता, तो शायद अप्रिय घटनाएं टल सकती थीं। यह भी सच है कि लोकतांत्रिक सरकारों को विरोधियों से बातचीत कर मसले का समाधान निकालना होता है। सुरक्षा एजेंसियों को दिल्ली हिंसा के पीछे छिपी सच्चाई को देश के सामने रखना चाहिए। और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। जब देश में शांति और भाईचारा होगा तभी देश आगे बढ़ पाएगा।
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