उत्तर प्रदेश राज्य के सहारनपुर व कुशीनगर तथा उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार में 115 से अधिक लोगों की मौत इस बात का प्रमाण है कि राज्य में शराब निर्माण का धंधा जोरों पर है और इस धंधे से जुड़े लोगों का कानून और दंड का भय नहीं है। यह पर्याप्त नहीं कि जिला प्रशासन ने कुछ अधिकारी-कर्मचारी को निलंबित कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली है। इस तरह की असरहीन कार्रवाई पहले भी हो चुकी है लेकिन इससे न तो राज्य में शराब निर्माण का धंधा थमा है और न ही शराब से मौत का सिलसिला रुका है। यह स्थिति तब है जब आबकारी कानून में परिवर्तन कर शराब के लिए जिम्मेदार दोषियों को आजीवन कारावास और मृत्युदंड का प्रावधान है। लेकिन इसके बावजूद भी मिलावटी शराब के कारोबारियों का हौसला बुलंद है तो मतलब साफ है कि कानून अपना काम सही ढंग से नहीं कर रहा है।
याद होगा अभी गत वर्ष मई माह में राज्य के कानपुर नगर व देहात क्षेत्र में शराब के सेवन से दर्जन भर से अधिक लोगों की मौत हुई। इससे पहले आजमगढ़ जिले के रौनापार में शराब से 14 लोगों की मौत हुई। इसी जिले में वर्ष 2009 में भी शराब से 23 लोगों की मौत हुई। राज्य सरकार को समझना होगा कि जब तक शराब निर्माण से जुड़े माफियाओं और उन्हें प्रश्रय देने वाले जिम्मेदार स्थानीय प्रशासन के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं होगी तब तक लोगों की जिंदगी शराब की भेंट चढ़ती रहेगी। ऐसा संभव ही नहीं है कि किसी क्षेत्र में शराब का निर्माण हो और स्थानीय प्रशासन एवं आबकारी विभाग को इसकी जानकारी न हो। सहारनपुर और कुशीनगर के लोगों की मानें तो स्थानीय प्रशासन इस तथ्य से भलीभांति अवगत था कि देशी शराब को असरदार बनाने के लिए इसमें मिथेनॉल मिलाकर भारी मुनाफा कमाया जा रहा है। लेकिन इसके बावजूद भी स्थानीय प्रशासन व आबकारी विभाग ने कोई कार्रवाई नहीं की ग तो समझा जा सकता है कि शराब माफियाओं को उनका संरक्षण किस हद तक प्राप्त है। अगर समय रहते स्थानीय प्रशासन व आबकारी विभाग इस शराब की बिक्री पर शिकंजा कस दिया होता तो इतने लोगों की जिंदगी मौत की भेंट नहीं चढ़ती।
मृतकों के परिवारजनों की मानें तो स्थानीय पुलिस प्रशासन और आबकारी विभाग के कर्मचारियों का मिलावटी शराब माफियाओं से मिलीभगत है और वे उनसे पैसा वसूलते हैं। बहरहाल सच क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इन मौतों के लिए जितना जिम्मेदार मिलावटी शराब माफिया हैं उतना ही स्थानीय प्रशासन और आबकारी विभाग भी। फिलहाल कहना मुश्किल है कि इस दर्दनाक हादसे के बाद ऐसी घटनाओं की पुन: पुनरावृत्ति नहीं होगी। इसलिए कि सरकार की ओर से कड़े कदम उठाने के दावे तो किए जाते हैं लेकिन अधिकारियों और शराब माफियाओं की मिलीभगत से शराब निर्माण का धंधा थमता नहीं है। 2009 में सरकार ने कबूला था कि राज्य में 2279 अड्डों पर शराब का निर्माण हो रहा है। लेकिन अचरज की बात कि दस साल गुजर जाने के बाद भी राज्य सरकार द्वारा इन जहर उगलती भठ्ठियों का मुंह बंद नहीं किया जा सका है। गौर करें तो विगत एक दशक में आजमगढ़, लखनऊ, एटा, बाराबंकी, बनारस, सहारनपुर, उन्नाव, मुजफ्फरनगर और भदोही जिले में शराब का तांडव सामने आ चुका है। लेकिन आश्चर्य है कि राज्य सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। जबकि उसे शराब निर्माण से हर वर्ष करोड़ों रुपए के राजस्व का नुकसान उठाना पड़ता है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों में भी शराब का कारोबार चरम पर है।
अभी गत वर्ष पहले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में शराब से 50 से अधिक लोगों की मौत हुई। पश्चिम बंगाल के दक्षिण चैबीस परगना जिले में शराब पीने से पौने दो सौ से अधिक लोगों की मौत हुई। 2008 में भी इस राज्य के गार्डनरीच में शराब पीने से 40 लोगों की और 2009 में किद्दूपुर में 28 लोगों की मौत हुई। इसी तरह बिहार के समस्तीपुर में 11, राजस्थान के जोधपुर में 22, पंजाब के होशियारपुर में 18 और केरल के मल्लपुरम में 26 लोग शराब से अपनी जान गंवा चुके हैं। गुजरात में शराब बंदी के बावजूद भी अहमदाबाद में 7 जुलाई, 2010 को 157 लोग शराब की भेंट चढ़ गए। 2008 में कनार्टक में 180 लोग जान से हाथ धो बैठे। मौंजू सवाल यह है कि शराब से होने वाली मौतों का सिलसिल कब थमेगा और शराब के सौदागरों पर निर्णायक कारवाई कब होगी? सवाल यह भी है कि केंद्र व राज्य सरकारें दोनों मिलकर इसे रोकने की ठोस पहल क्यों नहीं कर रही हैं? जबकि 2006 में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि केंद्र व राज्य सरकारें संविधान के 47 वें अनुच्छेद पर अमल करें यानी शराब की खपत घटाएं।
लेकिन गौर करें तो राज्य सरकारों का रवैया ठीक इसके उलट है। वह शराब पर पाबंदी लगाने के बजाए उसे बढ़ावा दे रही हैं। उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार गायों के कल्याण के लिए शराब पर सेस लगा रखी है। वहीं 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने पूर्ववर्ती माया सरकार की यह कहकर आलोचना की थी कि उसने शराब की कीमत बढ़ा रखी है। उन्होंने वादा किया था कि वह सत्ता में आएंगे तो शराब सस्ती होगी। सवाल लाजिमी है कि इस तरह की बयानबाजी और घोषणाओं से नशामुक्त समाज का निर्माण होगा? क्या इस राजनीतिक प्रवृत्ति से शराब के कारोबारियों का हौसला बुलंद नहीं होगा? बेहतर होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें शराब के निर्माण और उसकी बिक्री की रोकथाम के लिए कड़े कानून बनाएं। अन्यथा शराब से दम तोड़ने वालों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। यह तथ्य है कि देश के सभी राज्यों में विशेषकर े ग्रामीण क्षेत्रों में हर रोज शराब की भट्ठियां हजारों लीटर जहर उगल रही हैं। स्थानीय शासन-प्रशासन और आबकारी विभाग इससे अच्छी तरह अवगत होने के बाद भी उन्हें रोकने की पहल नहीं करता है।
ऐसा इसलिए कि उन पर राजनीतिक दबाव तो होता ही है और साथ ही वे धनउगाही के धंधे में भी लिप्त होते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि शराब से जुड़े अधिकांश माफिया राजनीति से जुड़े हैं या उन्हें राजनीतिक संरक्षण हासिल है। चूंकि शराब की कीमत कम और नशा ज्यादा होता है इसलिए इसे पीने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। इसका सेवन करने वालों में अधिकांश गरीब, मजदूर और कम पढ़े-लिखे लोग होते हैं जो नशा के नाम पर भूल जाते हैं कि वे शराब के बजाए जहर गटक रहे हैं। ध्यान देना होगा कि शराब की होने का मुख्य कारण घातक मिथाइल एल्कोहल होता है जो ऊंचे तापमान पर उबालने पर हानिरहित इथाइल एल्कोहल में बदलता है
। लेकिन शराब निर्माण की प्रक्रिया की अधूरी जानकारी और लापरवाही के कारण इसमें घातक रसायनों का प्रयोग जहर का काम कर जाता है। लिहाजा पीते ही लोग उल्टियां करने लगते हैं और आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। यकृत क्षतिग्रस्त हो जाता है और लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं। लेकिन इससे भी शराब माफियाओं की संवेदना प्रभावित नहीं होती और न ही शासन-प्रशासन विचलित होता है। हद तो तब होती है जब स्थानीय पुलिस-प्रशासन शराब माफियाओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई के बजाए उनके बचाव में उतर आता है। इसका परिणाम यह होता है कि सैकड़ों की जान लेने वाला गुनाहगार दंड से बच निकलता है।
उचित होगा कि राज्य सरकारें ऐसे शराब माफियाओं और इन्हें संरक्षण देने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करे। इसके लिए राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में अभियान चलाया जाना चाहिए ताकि चोरी से चलाए जा रहे भट्ठियों को नेस्तनाबूद किया जा सके। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य सरकारें मौत के शिकार हुए लोगों के परिजनों को मुआवजे की रकम थमाकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेती हैं। यह उचित नहीं है। यह मानवीय संवेदनहीनता है और किसी भी सूरत में क्षम्य नहीं है।
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