सतावर भारतवर्ष के विभिन्न भागों में प्राकृतिक रूप से पाई जानेवाली (satavar) बहुवर्षीय आरोही लता है। नोकदार पत्तियों वाली इस लता को घरों तथा बगीचों में शोभा हेतु भी लगाया जाता है जिससे अधिकांश लोग इसे अच्छी तरह पहचानते हैं। सतावर के औषधीय उपयोगों से भी भारतवासी काफी पूर्व से परिचित हैं तथा विभिन्न भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में इसका सदियों से उपयोग किया जाता रहा है। विभिन्न वैज्ञानिक परीक्षणों में भी विभिन्न विकारों के निवारण में इसकी औषधीय उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है तथा वर्तमान में इसे एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा होने का गौरव प्राप्त है। सतावर की पूर्ण विकसित लता 30 से 35 फीट तक ऊंची हो सकती है।
प्राय: मूल से इसकी कई लताएं अथवा शाखाएं एक साथ निकलती हैं। यद्यपि यह लता की तरह बढ़ती है परन्तु इसकी शाखाएं काफी कठोर (लकड़ी के जैसी) होती हैं। इसके पत्ते काफी पतले तथा सूइयों जैसे नुकीले होते हैं। इनके साथ-साथ इनमें छोटे-छोटे कांटे भी लगते हैं जो किन्ही प्रजातियों में ज्यादा तथा किन्हीं में कम आते हैं। ग्रीष्म ऋतु में पुन: नवीन शाखाएं निकलती हैं। सितम्बर-अक्टूबर माह में इसमें गुच्छों में पुष्प आते हैं तथा तदुपरान्त उन पर मटर के दाने जैसे हरे फल लगते हैं। धीरे-धीरे ये फल पकने लगते हैं तथा पकने पर प्राय: लाल रंग के हो जाते हैं। इन्हीं फलों से निकलने वाले बीजों को आगे बिजाई हेतु प्रयुक्त किया जाता है। पौधे के मूलस्तम्भ से सफेद ट्यूवर्स (मूलों) का गुच्छा निकलता है। जिसमें प्राय: प्रतिवर्ष वृद्धि होती जाती है। औषधीय उपयोग में मुख्यत: यही मूल अथवा इन्हीं ट्यूवर्स का उपयोग किया जाता है।
सतावर की किस्में
साहित्य में सतावर की कई किस्मों का विवरण मिलता है जिनमें प्रमुख हैं- एस्पेरेगस सारमेन्टोसस, एस्पेरेगस कुरिलस, एस्पेरेगस गोनोक्लैडो, एस्पेरेगस एडसेंडेस, एस्पेरेगस आफीसीनेलिस, एस्पेरेगस प्लुमोसस, एस्पेरेगस फिलिसिनस, एस्पेरेगस स्प्रेन्गेरी आदि। इनमें से एस्पेरेगस एडसेन्डेस को तो सफेद मूसली के रूप में पहचाना गया है जबकि एस्पेरेगस
सारमेन्टोसस महाशतावरी के नाम से जानी जाती हैं। महाशतावरी की लता अपेक्षाकृत बड़ी होती है तथा मुख्यतया हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती है। सतावर की एक अन्य किस्म एस्पेरेगस आफीसीनेलिस मुख्यतया सूप तथा सलाद बनाने के काम आती है तथा बड़े शहरों में इसकी अच्छी मांग है। इनमें से औषधीय उपयोग में सतावर की जो किस्म मुख्यतया प्रयुक्त होती है वह है एस्पेरेगस रेसीमोसम, जिसके बारे में विवरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा हैं।
नेपाली सतावर का भी बढ़ा चलन
देश के किसान परमपरागत खेती की बजाय इजराइल तकनीकी से औषधीय खेती को प्राथमिकता देने लग गए हैं। इस बार एक अनुमान के तौर पर करीब 100 एकड़ से ज्यादा कृषि भूमि पर नेपाली सतावर की पौध रोपित की गई है। विशेषज्ञों के अनुसार हरियाणा में जुलाई से अगस्त तक सतवार की पौध रोपित करना चाहिए। हालांकि पहाड़ी एरिया में कुछ किसान सितंबर में भी सतवार की पौध रोपित करते हैं। एक एकड़ में 36 इंच के 48 बैड बनाकर डब्ल्यू सेप में पौधे रोपित करने से ज्यादा लाभ मिलता है।
पौधे से पौधे की दूरी 2 बाइ पौने 2 रखनी चाहिए। एक एकड़ में 12 हजार पौधे ही रोपित होंगे। ताकि उनकी ग्रोथ अच्छी हो। सतावर की खेती में लागत भी परमपरागत खेती की अपेक्षा काफी कम आएगी। नर्सरी से एनसीआर में प्रति पौध पहुंचने का खर्च करीब 4 से साढ़े रुपए का आता है। वहीं अपनी नर्सरी तैयार करने पर प्रति पौध लागत करीब 2 से सवा दो रुपए आती है। एक एकड़ में करीब 36 हजार रुपए की पौध रोपित होती है, वहीं रोपित करने की लेबर का खर्च करीब प्रति एकड़ 6 हजार रुपए आता है।
उपयुक्त मिट्टी
सतावर का मुख्य उपयोगी भाग इसमें जड़ें होती हैं जो प्राय: 6 से 9 इंच तक भूमि में जाती हैं। राजस्थान की रेतीली जमीनों में तो कई बार ये डेढ़-डेढ़ फीट तक लंबी भी देखी गयी हैं। खैर! क्योंकि इसकी कंदिल जड़ों के विकास के लिए पर्याप्त सुविधाएं होनी चाहिए अत: इसके लिए आवश्यक है कि जिस क्षेत्र में इसकी बिजाई की जाए वहां की मिट्टी
जिसमें जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था हो, इसकी खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। यू तो इल्की कपासिया तथा चिकनी मिट्टी में भी इसे उपजाया जा सकता है परन्तु ऐसी मिट्टी में रेत आदि का मिश्रण करके इसे इस प्राकर तैयार करना होगा कि यह मिट्टी कंदों को बलपूर्वक बांधे नहीं, ताकि उखाड?े पर कंद क्षतिग्रस्त न हों।
बिजाई की विधि
सतावर की बिजाई बीजों से भी की जा सकती है तथा पुराने पौधों से प्राप्त होने वाली डिस्क से भी। प्राय: पुराने पौधों की खुदाई करते समय भूमिगत कंदों के साथ-साथ छोटे-छोटे अंकुर भी प्राप्त होते हैं। जिनसे पुन: पौध तैयार की जा सकती है। इन अंकुरों को मूल पौधे से अलग करके पॉलीथीन बैग्स में लगा दिया जाता है तथा 25-30 दिन में पॉलीथिन में
लगाए गए इन सीडलिंग्स को मुख्य खेत में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। वैसे बहुधा बिजाई इसके बीजों से ही की जाती है जिसके लिए इनकी निन्मनानुसार नर्सरी बनाई जाना उपयुक्त रहता है ? नर्सरी अथवा पौधशाला बनाने की विधि सतावर की व्यवसायिक खेती करने के लिए सर्वप्रथम इसके बीजों से इसकी पौधशाला अथवा नर्सरी तैयार की जाती है। यदि एक एकड़ के क्षेत्र में खेती करना हो तो लगभग 100 वर्ग फीट की एक पौधशाला बनाई जाती है जिसे खाद आदि डालकर अच्छी प्रकार तैयार कर लिया जाता है।
इस पौधशाला की ऊंची होनी चाहिए ताकि बाद में पौधों को उखाड़ कर आसानी से स्थानांतरित किया जा सके। 15 मई के करीब इस पौधशाला में सतावर के (2 कि.ग्रा. बीज एक एकड़ हेतु) बीज छिड़क दिए जाने चाहिए। बीज छिड़कने के उपरान्त इन पर गोबर मिश्रित मिट्टी की हल्की परत चढ़ा दी जाती है। ताकि बीज ठीक से ढ़क जाएं।
तदुपरान्त पौधशाला
की फव्वारे अथवा स्प्रिंकलर्स से हल्की सिंचाई कर दी जाती है। प्राय: 10 से 15 दिनों में इन बीजों में अंकुरण प्रांरभ हो जाती है तथा बीजों से अंकुरण का प्रतिशत लगभग 40 तक रहता है। जब ये पौधे लगभग 40-45 दिनों के हो जाएं तो इन्हें मु?य खेत में प्रतिरोपित कर दिया जाना चाहिए। नर्सरी अथवा पौधशाला में बीज बोने की जगह इन बीजों को
पॉलीथीन की थैलियों में डाल करके भी तैयार किया जा सकता है।
खेत की तैयारी
सतावर की खेती 24 माह से 40 माह की फसल के रूप में की जाती है इसलिए यह आवश्यक होता है कि प्रारंभ में खेत की अच्छी प्रकार से तैयारी की जाए। इसके लिए माह मई-जून में खेत की गहरी जुताई करके उसमें 2 टन केंचुआ खद अथवा चार टन कम्पोस्ट खाद के साथ-साथ 120 कि.ग्रा. प्रॉम जैविक खाद प्रति एकड़ की दर से खेत में मिला दी जानी
चाहिए। यूं तो सतावर सीधे प्लेन खेत में भी लगाई जा सकती है परन्तु जड़ों के अच्छे विकास के लिए यह वांछित होता है कि खेत की जुताई करने तथा खाद मिला देने के उपरान्त खेत में मेड़े बना दी जाएं। इसके लिए 60-60 सें.मी. की दूरी पर 9 इंच ऊंची मेडियां बना दी जाती हैं। मुख्य खेत में पौधों की रोपाई जब नर्सरी में पौध 40-45 दिन की हो जाती है तथा वह 4-5 इंच की ऊंचाई प्राप्त कर लेती है तो इन मेडियों पर 60-60 सें.मी. की दूरी पर चार-पांच इंच गहरे गड्डों में पौध की रोपाई के समय भी अर्थात् पूरे खेत में खाद डालने की बजाय केवल गड्ढे में भी खाद डाली जा सकती है। पहले वर्ष के उपरान्त आगामी वर्षों में भी प्रतिवर्ष माह जून-जुलाई में 750 कि.ग्रा. केंचुआ खाद अथवा 1.5 टन कम्पोस्ट खाद तथा 60 कि.ग्रा. प्रॉम जैविक खाद प्रति एकड़ डालना उपयोगी रहता है।
सिंचाई की व्यवस्था
सतावर के पौधों को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। यदि माह में एक बार सिंचाई की व्यवस्था हो सके तो ट्यूवर्स (जड़ों) का अच्छा विकास हो जाता है। सिंचाई फ्लड पद्धति का भी उपयोग किया जा सकता है जिसमें अपेक्षाकृत कम पानी की आवश्यकता होगी। सिंचाई देते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि पानी पौधों के पास ज्यादा देर
तक रूके नहीं। वैसे कम पानी अथवा बिना सिंचाई के अर्थात असिंचित फसल के रूप में भी सतावर की खेती की जा सकती है। हां! ऐसी स्थिति में उत्पादन का प्रभावित होना स्वभाविक है।
फसल का पकना
प्राय: लगाने के 24 माह के उपरान्त सतावर की जड़ें खोदने के योग्य हो जाती हैं। किन्हीं किसानों द्वारा इनकी 40 माह बाद भी खुदाई की जाती
है।
जड़ों की खुदाई
24 से 40 माह की फसल हो जाने पर सतावर की जड़ों की खुदाई कर ली जाती है। खुदाई का उपयुक्त समय अप्रैल-मई माह का होता है जब पौधों पर लगे हुए बीज पक जाएं। ऐसी स्थिती में कुदाली की सहायता से सावधानीपूर्वक जड़ों को खोद लिया जाता है। खुदाई से पहले यदि खेत में हल्की सिंचाई देकर मिट्टी को थोड़ा नर्म बना लिया जाए तो फसल को
उखाड?ा आसान हो जाता है। जड़ों को उखाड़ने के उपरान्त उनके ऊपर का छिलका उतार लिया जाता है। ऐसा चीरा लगा करके भी किया जाता है। सतावर की जड़ों के ऊपर पाया जाने वाला छिलका ट्यूवर्स से अलग करना आवश्यक होता है। छिलका उतारने के लिए सतावर की कन्दों को पानी में हल्का उबालना पड़ता है तथा तदुपरान्त ठंडे पानी में थोड़ी देर रखने
के उपरान्त छिलाई की जाती है। छीलने के उपरान्त इन्हें छाया में सुखा लिया जाता है तथा पूर्णतया सूख जाने के उपरान्त वायुरूद्ध बोरियों में पैक करके बिक्री हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है। कन्दों को उबालने, छिलाई पश्चात सुखाने पर कन्द हल्का पीला रंग का हो जाता है।
कुल उत्पादन
प्राय: 24 माह की सतावर की फसल से प्रति एकड़ लगभग 25000 कि.ग्रा. गीली ट्यूबर्स प्राप्त होती है। जो कि साफ करने तथा छीलने के उपरांत 2500 कि.ग्रा. (10 प्रतिशत) रह जाती हैं। इस प्रकार एक एकड़ की खेती से लगभग 25 क्विंटल सूखी जड़ों का उत्पादन प्राप्त होता है। नेपाली सतावर के साथ अन्य फसलें भी नेपाली सतावर को इजराइल तकनीकी के साथ रोपित किया जाता है। जिसमें 36 इंच के बैड बनाए जाते है। बैड के साइड में बची जगह पर आसानी से दलहनी या सब्जी की खेती कि जा सकती है। जिसमें मूंग,गोभी सहित अन्य फसल है।
पानी की लागत कम आती है
नेपाली सतावर की खेती में पानी की लागत अन्य फसलों की बजाए अपेक्षाकृत कम आती है। जो पानी अतिरिक्त फसल में इस्तेमाल किया जाता है, उसी की नमी से सतावर की पूर्ति हो जाती है। वहीं निराई-गुड़ाई भी कम करनी होती है। औषधीय फसल होने के कारण रोग लगने की संभावना भी काफी कम रहती है। जिससे दवा या स्प्रे पर होने वाले अतिरिक्त खर्च नहीं होता।
सतावर के लिए उपयुक्त जलवायु
सतावर की खेती के लिए उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उत्तम होती है। क्षेत्र का तापमान 10-40 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। सतावर की फसल में सूखे को सहन करने की अपार शक्ति होती है, परन्तु जड़ों के विकास के समय मिट्टी में नमी की कमी से उपज प्रभावित होती है। इसलिए जड़ों में नमी बनाए रखना जरूरी है।
सतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी
जिसमें कार्बनिक तत्व प्रचुर मात्रा में व जल निकासी की सुविधा हो। बलुई मिट्टी से जड़ों को आसानी से बिना क्षति खोद कर निकाला जा सकता है। सतावर की मांसल जड़ें स्वाद में मधुर, रसायुक्त, कड़वी, भारी,चिकनी तथा तासिर में शीतल होती है।
मार्केट के उतार-चढ़ाव का असर नहीं
नेपाली सतावर एक औषधीय फसल है। इसकी जड़ों को प्रोसेस करने के बाद तेल निकाला जाता है। जिसकी मांग बहुत ज्यादा रहती है। इसी कारण फसल को रोपित करने के बाद कंपनी व किसान के बीच एक एमओयू साइन हो जाता है। जिससे मार्केट में होने वाले उतार-चढ़ाव का किसान पर कोई असर नहीं पड़ता। वहीं कुछ किसान सीधा मार्केट में भी बेचते हैं। जहां 30 से 50 रुपए प्रति किग्रा. का भाव मिलता है। वहीं प्रोसेस करने के बाद तेल का भाव 23 से 27 हजार रुपए प्रति लीटर मिलता है। फसल तैयार होने में 20 से 24 माह का समय लगता है। इस दौरान किसान सतावर के अलावा 4 सीजनल फसल भी आसानी से ले सकता है। जो एक अतिरिक्त आमदनी होती है।
उपज व लागत
औषधीय गुणों के कारण नेपाली सतावर की मांग बाजार में काफी है। यह प्रति क्विंटल 55 हजार रुपये आसानी से बिक्री हो जाता है। इसे बाजारों में व्यापारी 80 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक बेचते हैं। एक एकड़ में प्रोसेसिंग के बाद 12 से 15 क्विंटल तक हो जाती है। बैकों के माध्यम से भी किसान औषधीय खेती कर सकते हैं, शुरूआत में प्रति एकड़ लागत
एक लाख तक आती है। किसानों को खेती करने के लिए जिला उद्यान विभाग द्वारा पांच रुपये प्रति पौधा अनुदान पर मिल सकता है। इसकी सितंबर में बोआई होगी तथा 18 महीने बाद यह फसल तैयार हो जाएगी। एक एकड़ में 12 हजार पौधों की रोपाई होती है। इसमें गोबर की खाद डाली जाती है तथा इसमें पानी भी कम लगता है। नेपाली सतावर पीला रंग का
होगा जो पूरी तरह औषधि के काम आता है।
सतावर की व्यवसायिक खेती करने के लिए सर्वप्रथम इसके बीजों से इसकी पौधशाला अथवा नर्सरी तैयार की जाती है। यदि एक एकड़ के क्षेत्र में खेती करना हो तो लगभग 100 वर्ग फीट की एक पौधशाला बनाई जाती है जिसे खाद आदि डालकर अच्छी प्रकार तैयार कर लिया जाता है। इस पौधशाला की ऊंची होनी चाहिए ताकि बाद में पौधों को उखाड़ कर आसानी से स्थानांतरित किया जा सके।
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