खेती किसानी अब तुक्का हो गई है, सही सलामत फसल कट जाए तो समझो बड़ी गनीमत है। वरना, कुदरत का प्रकोप उन्हें नहीं छोड़ता। बीते तीन वर्षों से लगातार बेमौसम बारिश ने किसानों की कमर तोड़ रखी है। जब फसल पक कर खेतों में खड़ी होती है तभी बारिश हो जाती है और उसे बर्बाद कर देती है। किसान चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। सिर्फ अपनी किस्मत को कोसते रह जाते हैं। अन्नदाताओं को बेमौसम बारिश ने एक बार फिर फसल हीन कर दिया। किसान खेतों में जाकर बर्बाद हुई फसलों को रूआंसी आंखों से देख रहे हैं। तेज बौछारों ने हजारों-लाखों हेक्टेयर फसल चौपट कर दी। कई महीनों की मेहनत क्षणभर में पानी-पानी हो गई। अपने खेतों में बेचारे असहाय खड़े होकर कुदरत के कहर से बर्बाद होती अपनी फसलें देखते रहे। देखने नहीं, तो और कर भी क्या सकते थे? आखिर कुदरत के प्रकोप के सामने किसी की क्या मजाल?
तबाही के बाद किसान अपनी उजड़ती फसलों को मन मसोसकर बस चुपचाप देखते रहे। ये दुखदाई तस्वीरें देखकर किसान क्या महसूस करते होंगे, ये हम-आप शायद अंदाजा भी नहीं लगा सकते? किसानों के लिए उनकी फसलें नवजात शिशु समान होती है जिसे वह छह महीने अपनी औलाद की तरह पालता-पोसता है। नवजात बच्चे हमारे लिए कितने दुलारे होते हैं शायद बताने की आवश्यकता नहीं? सोचो, जब उनके फसल नुमा बच्चे उनकी आंखों के सामने ओझल हो जाएं, तो उनके दिल पर क्या गुजरती होगी। सितंबर के अंत में अधिक वर्षा होना निश्चित रूप से खेतीकिसानी के लिए हानिकारक होता है। इस वक्त धान की फसल अधपकी खेतों में खड़ी होती है। कई जगहों पर तो पक चुकी होती है। मौसम वैज्ञानिकों ने फिलहाल मौजूदा बरसात का कारण पश्चिमी क्षेत्र के उपरी भाग में बहती चक्रवाती हवाओं को बताया है। ये भी सब कुदरत की ही माया है जिसके सामने किसी का कोई बस नहीं चलता।
बहरहाल, समूचे देशभर में लगातार पिछले सप्ताह हुई तीन दिनी तेज बारिश ने फसलों को जमीन पर बिछा दिया है। जब तक उठेंगी, तब तक बालियों के दाने सड़ चुके होंगे। धान के अलावा इस वक्त गन्ना भी खेतों में पका खड़ा है, वह भी बरसात और ओलावृष्टि से बर्बाद हुआ है। तराई जैसे कई जिलों में खेतों के भीतर पानी लबालब भरा हुआ है। निचले इलाकों में तो बाढ़ जैसे हालात बने हुए हैं, वहां सब्जियां और कच्ची फसलें खेतों में ही सड़ने लगी हैं। मूली, मूंगफली, पालक, गोभी का तो नामोनिशान मिट गया। विशेषकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश जैसे इलाकों में हालात बद से बदतर हुए हैं। दरअसल, ये ऐसे राज्य हैं जहां दूसरी फसलों के मुकाबले धान की फसल इस मौसम में बहुतायत रूप से होती है। पंजाब को जैसे धान का कटोरा कहते हैं, तो वहीं तराई क्षेत्र समूचे हिंदुस्तान में धान उगाने के लिए प्रसिद्ध है। दोनों जगह बरसात ने फसलों को तबाह कर दिया है। फिलहाल नुकसान की भरपाई के लिए प्रदेश सरकारों ने प्रभावित क्षेत्रों में सर्वेक्षण करना शुरू कर दिया है, जांच टीमों को भेजा जाने लगा है। शासनादेश पर प्रदेश स्तर पर जिला प्रशासन भी मुस्तैद हो गए हैं। फाइनल रिपोर्ट मिलने के बाद मुआवजा देने की प्रक्रिया आरंभ होगी। पर, सवाल उठता है कि क्या मुआवजे से किसानों के नुकसान की भरपाई हो पाएगी, शायद नहीं? सबको पता है कितना मुआवजा मिलेगा, शायद नाम मात्र का?
अगर याद हो तो बीते वर्ष भी इसी मौसम में बेहिसाब बारिश ने किसानों को बेहाल किया था। पता नहीं खेती किसानी पर किसी की नजर ही लग गई है। क्योंकि कृषि क्षेत्र पर वैसे ही संकट के बादल छाए हुए हैं और बेमौसम बारिश ने संकट और गहरा दिया। ऐसी स्थितियों में किसानों को समझ नहीं आता वो करे तो क्या करें? कागजों में किसानों के लिए कल्याणकारी सरकारी सुविधाओं कोई कमी नहीं? फसलों को एमएसपी पर खरीदने की बातें कही जाती हैं, अन्य फसलों का उचित दाम देने का दम भरा जाता है। पर, धरातल पर सच्चाई शून्य होती हैं। दरअसल, सच्चाई तो ये है किसान बेसहारा हुआ पड़ा है। सुख-सुविधाओं से वह कोसों दूर है। सब्सिडी वाली खादें को भी उन्हें ब्लैक में खरीदना पड़ता है। यूरिया ऐसी जरूरी खाद है जिसके बिना फसलों को उगाना अब संभव नहीं? उसकी किल्लत से भी किसानों को बीते कई वर्षों से जूझना पड़ रहा है। बाद में रही सही कसर कुदरत निकाल लेता है। इस वक्त बरसात से जो फसलें बच गई हैं उनका दाना काला पड़ जाएगा, जिसे मंडी में सरकार द्वारा तय कीमत पर नहीं खरीदा जाएगा। मजबूरी में उसे किसान औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर होंगे।
कायदे से गौर करें, तो फसल नुकसान का विकल्प मुआवजा कतई नहीं हो सकता। बर्बादी की भरपाई मुआवजे से नहीं की जा सकती है। इसके लिए बीमा योजना को ठीक से लागू करना होगा। वैसे, योजना अब भी लागू है, पर जिस ढंग से लागू होनी चाहिए, वैसी नहीं है? फसल बर्बाद होने पर किसानों को प्रति एकड़ उचित बीमा फसल के मुताबिक देने का प्रावधान बनाया जाए। केंद्र सरकार से लेकर सभी राज्य सरकारों को इस दिशा में कदम उठाने की दरकार है। इस वक्त किसानों की छह महीने की कमाई पानी में बही है। इस दरम्यान किसानों ने क्रेडिट कार्ड, बैंक लोन व उधारी लेकर फसलों को उगाने में लगाया होगा। सौ रुपए के आसपास डीजल का भाव है। बाकी यूरिया, डाई, पोटाश जैसी खादें की दोगुनी-तिगुनी कीमतों ने पहले से ही अन्नदाताओं को बेहाल किया हुआ है।
कायदे से अनुमान लगाएं तो किसानों की लागत का मूल्य भी फसलों से नहीं लौट रहा। यही वजह है खेती नित घाटे का सौदा बनती जा रही है। इसी कारण किसानों का धीरे-धीरे किसानी से मोहभंग भी होता जा रहा है। इसलिए निश्चित रूप से उतना मुआवजा हुकूमतों की ओर से किसानों को उनकी बर्बाद हुई फसलों पर नहीं दिया जाता। ऐसी नीति-नियम बनाए जाने की दरकार है जिससे किसान बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि व बिजली गिरने आदि घटनाओं से बर्बाद हुई फसलों के नुकसान से उभर सकें। इससे कृषि पर आए संकट से भी लड़ा जाएगा। क्योंकि इस सेक्टर से न सरकार मुंह फेर सकती हैं और न ही कोई और? कृषि सेक्टर संपूर्ण जीडीपी में करीब बीस-पच्चीस फीसदी भूमिका निभाता है। कायदे से देखें तो कोरोना संकट में डामाडोल हुई अर्थव्यवस्था को कृषि सेक्टर ने ही उभारा। इसलिए कृषि को हल्के में नहीं ले सकते। अगर लेंगे तो उसका खामियाजा भुगतने में हमें देर नहीं लगेगी।
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