आमतौर पर चुनावी दौर में विभिन्न प्रत्याशियों द्वारा दलीय नीति और सिद्धांतों के अनुरूप वादों और इरादों के साथ जन समर्थन की आस की जाती है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखा गया है कि विभिन्न स्तरों पर होने वाले चुनाव के पश्चात निर्वाचित जनप्रतिनिधि (Representative) की कर्मचेतना पर ना जाने क्यों ग्रहण लग जाया करता है। विभिन्न स्तरों पर निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी-अपनी घोषणाओं के क्रियान्वयन के प्रति उतने समर्पित दिखाई नहीं देते, जितने समर्पित मनोभावों को वे व्यक्त कर चुके होते हैं। ऐसी स्थिति में विवश होकर आम नागरिक एक निश्चित अंतराल तक स्वयं को पूर्ण रुप से असहाय स्थिति में पाते हैं।
निर्वाचन के बाद अधिकतर जन प्रतिनिधियों से आम नागरिकों को यह शिकायत होती है कि उनके द्वारा किए गए वादे यथासमय पूर्ण नहीं किए गए। ऐसी स्थिति में जनप्रतिनिधि की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। इन हालातों के चलते लोकतंत्र की राजनीति में राजनीतिज्ञों के प्रति जन विश्वास में आशातीत कमी आती दिखाई देती है। ऐसी स्थिति को बदलना समय की मांग है। सामान्य परिस्थितियों में यह स्वाभाविक रूप से अपेक्षित होता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि जनमत के अभिमत के अनुरूप आचरण और व्यवहार करें। लेकिन जब सत्तापक्ष बहुमत के किनारे पर होता है तब जनप्रतिनिधि निर्णायक भूमिका में आ जाते हैं।
ऐसे में उनकी व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के अनुरूप समर्थन अथवा विरोध कर दिया जाता है। दलीय अनुशासन सर्वथा गौण हो जाता है और निष्ठा सर्वोपरि होकर निर्णायक भूमिका का निर्वहन कर लिया करती है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में चंद चेहरों के इधर से उधर हो जाने पर विभिन्न राज्यों में सत्ता का उलटफेर होता चला आया है। वैसे दलबदल विरोधी कानून है लेकिन लोकतंत्र में अंतरात्मा की आवाज को आज भी सुना-अनसुना किया जाता है। इस समय राजनीतिक परिस्थितियों का ताना-बाना नित नए समीकरण बना रहा है। राजनीतिक वर्चस्व की खातिर अनुशासन को सर्वथा ताक पर रख दिया गया है। आम नागरिक की मन:स्थिति कुछ ऐसी हो चली है कि राजनीति के नाम पर सब कुछ सहन कर ही लिया जाता है।
दरअसल राजनीति के सिद्धांत और व्यवहार में एकरूपता दिखाई देनी चाहिए। राजनीति में सत्ता को जनहित का साधन करार दिया जाता है। लेकिन व्यावहारिक रूप से राजनीति को निवेश का सशक्त माध्यम समझ लिया गया है। धनबल और बाहुबल का निवेश जातीय तथा क्षेत्रीय तड़के के साथ किया जाने लगा है। इतना जरूर है कि आज भी विभिन्न राजनीतिज्ञ नीति और सिद्धांतों की बात करते जरूर हैं। इस प्रकार प्रकारांतर से ही सही लेकिन राजनीति में नीति और सिद्धांतों पर आधारित राजनीति की बातें तो की ही जाती हैं। आम नागरिकों के लिए यह सुकून का विषय है कि विभिन्न चुनावों में व्यापक जनहित के प्रति समर्पित भूमिका का निर्वहन करने के वादे के साथ जनमत के बहुमत की आशा की जाती है।
बातें बहुत होती हैं, वादे बहुत किए जाते हैं और आश्वासन का सिलसिला तो निरंतर परवान चढ़ता ही रहता है। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी में जमीन आसमान के अंतर को देखा जा सकता है। यही नहीं चुनाव-दर-चुनाव वादे पर वादे करते हुए राजनीति की पतवार को अंतिम समय तक कोई छोड़ना भी नहीं चाहता। ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब राजनीतिज्ञों द्वारा नीति और सिद्धांतों को सर्वथा ताक पर रख दिया गया। राजनीति में सक्रिय अधिकांश चेहरे अति महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हैं। लाभ का पद पाने की प्रबल आतुरता कुछ इस कदर है कि उचित-अनुचित के अंतर को पाट दिया गया है। यह तथ्य बड़ा ही रोचक है कि स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व को पाने को आतुर शख्सियत ही सत्ता की आकांक्षी है।
जहा तक समर्थकों का सवाल है, वे अवसर आने पर उसे भुनाने के आकांक्षी हैं। लेकिन मतदाता वर्ग ही ऐसा वर्ग है जो मात्र इतनी ही अपेक्षा करता है कि नेतृत्व द्वारा घोषित वादे काफी हद तक पूर्णता को प्राप्त कर लेवे। यदि ऐसा नहीं भी हो पाता है तो वह अगला कार्यकाल भी थोड़ी बहुत उपलब्धियों के चलते सोंपने की भावना मन में संजोए हुए होता है। अर्थात यह जरूरी नहीं कि कथनी और करनी में शत-प्रतिशत समानता हो। चंद उपलब्धियां ही पुन: निर्वाचन का आधार बन जाया करती हैं। आम मतदाता नेतृत्व की वादाखिलाफी को इतनी गंभीरता से नहीं लेता जितनी गंभीरता से उसे लेना चाहिए। परिणामस्वरूप जनप्रतिनिधि की निष्क्रियता उसके कार्यकाल में कभी बाधक नहीं बनी।
यही कारण है कि बुनियादी समस्याओं के निराकरण तथा सुविधाओं के विस्तार के नारे पर दशकों से चुनाव-दर-चुनाव जनसेवक चुने जाते रहे। लेकिन मूलभूत समस्याएं हर हाल में बरकरार रही। यह तर्क दिया जा सकता है कि निरंतर बढ़ती जनसंख्या के चलते उपलब्ध कराए गए संसाधन कम पड़ते गए। लेकिन सिक्के का एक पहलू यह भी तो है कि जनसंख्या एकाएक नहीं बढ़ी वरन उसका बढ़ना तय था। इस संदर्भ में पूर्व नियोजित व्यवस्था राजनीतिक दृष्टि से दूरदर्शितापूर्वक नहीं बनाई जा सकी। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतंत्र के सात दशकों के इतिहास में आज भी बुनियादी समस्याओं के निराकरण को लेकर जनमत के समर्थन की आस की जाती है।
यह बड़ा अजीब लगता है कि आधारभूत सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर विकास करने और कराने का श्रेय लिया जाता है। इन हालातों के चलते जनप्रतिनिधि की भूमिका पर सवाल किए जा सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से मतदाता का बिखराव, मतदाता के मन की मुराद पूरी करने में बाधक सिद्ध होता रहा है। ऐसी राजनीति के दौर में जब कभी ऐसा अवसर आ जाए कि जनप्रतिनिधि निर्णायक भूमिका में आ जाए और सत्ता का नियंता बन जाए, तब अर्थशास्त्र का सिद्धांत लागू हो जाता है। बहुमत के लिए जनप्रतिनिधि की मांग सीमित पूर्ति के चलते बाजार भाव बढ़ा दिया करती है। आम नागरिक गली-गली और चौराहे-चौराहे चल रही चर्चा से चकित नहीं होता। प्रचलित बाजार भाव उसे उद्वेलित भी नहीं करते।
और तो और ऐसी अवसरवादिता को क्षेत्रीय लाभ हानि का गणित लगाते भी नहीं अघाते। यही कारण है कि राजनीति का मूल स्वरूप दिनोंदिन विकृत होता जा रहा है। नीति और सिद्धांतों की बातें जमकर की जाती है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर नीति और सिद्धांतों से राजनीतिज्ञों का कोई लेना देना नहीं रहा है। इन तमाम विसंगतियों का प्रबल प्रतिकार करने हेतु मतदाताओं को ही अपनी राजनीतिक शक्ति को जागृत करना होगा। निश्चित रूप से सोच समझकर विवेकपूर्वक किया गया मतदान जनप्रतिनिधि के निर्णायक होने पर मतदाता के हित में उसकी भूमिका को सुनिश्चित कर सकेगा।
राजेंद्र बज, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के निजी विचार हैं।)