चीन पर व्यापार की निर्भरता घटाने के लिए ऑटो, टेलिकॉम और टेक्सटाइल उद्योगों को बढ़ावा देने की दृष्टि से यदि रक्षा विज्ञान एवं अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) की कार्य प्रणाली को अंजाम दे दिया जाए तो हम न केवल इन क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होंगे, बल्कि निर्यात की स्थिति में भी आ जाएंगे। डीआरडीओ के अध्यक्ष सतीश रेड्डी ने बताया है कि हम 1800 लघु उद्योगों को साथ लेकर काम कर रहे हैं। हमने ऐसी आधुनिक तकनीकों पर भी काम में सफलता पाई है, जिनसे कई प्रकार के हथियार बना लिए हैं।
प्रमोद भार्गव
चीन में फैले कोरोना वायरस अब मानव स्वास्थ्य के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था को संकट में डालता दिख रहा है। इसका ताजा असर अमेरिका से लेकर भारत के शेयर बाजार में देखने में आया है। घबराहट के इस माहौल में अमेरिका का इंडेक्स 1,190.95 अंक गिरकर बंद हुआ है। अमेरिकी शेयर बाजार में इतिहास की यह सबसे बड़ी एकदिनी गिरावट है। इसी दौरान कच्चे तेल का मूल 3.38 प्रतिशत से गिरकर 49.98 डॉलर प्रति बैरल रह गया है। यह वजह तेल उत्पादक देशों की आर्थिकी को डांवाडोल करेगी। भारतीय शेयर बाजार के इतिहास में अब तक की दूसरी सबसे बड़ी एकदिनी गिरावट दर्ज की गई है। इस गिरावट के कारण देश के निवेशकों को 5.45 लाख करोड़ का नुकसान होने का अंदाजा है। देश के चार बड़े पूंजीपतियों में से मुकेश अंबानी की 5 अरब डॉलर, आदित्य बिरला 88.4 करोड़ डॉलर, अजीम प्रेमजी 86.9 करोड़ डॉलर और गौतम अडानी की 49.6 करोड़ डॉलर की संपत्ति के नुकसान होने का अनुमान है। इस संकट के गहराने के कारण दुनियाभर में कोरोना वायरस की गिरफ्त में आए लोगों की संख्या 83 हजार से ऊपर पहुंच जाना है। साथ ही पिछले कुछ दिनों के भीतर ही इस वायरस ने न्यूजीलैंड, अजरबैजान एवं नीदरलैंड सहित 57 देशों को अपनी चपेट में ले लिया है।
जापान, इटली, ईरान और सऊदी अरब में फैले इसके संक्रमण से दर्जनों लोग प्राण गंवा चुके हैं। इस वायरस को मारने की कोई दवा नहीं होने के कारण ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस वीशाणु की मौत पृथ्वी का तापमान अप्रैल माह में जब 20 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंचेगा, तब संभव होगी। फिलहाल चीन व इससे संक्रमित देशों का तापमान 15 डिग्री के ईद-गिर्द है। इसलिए वैश्विक अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि विश्व अर्थव्यव्स्था 2008 के वित्तिय संकट के बाद सबसे बुरे दौर में है। गोया, कोरोना के कहर से उपजे संकट से अब कई देशों को सामूहिक रूप से निपटने की जरूरत है। इस संकट के चलते भारत और चीन के बीच होने वाला 87 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार अवरुद्ध हो गया है। चीन के ब्रांडों को भारत में विपणन का एकीकृत मंच देने वाले संगठन क्रेयंस द्वारा आयोजित परिचर्चा से स्पष्ट हुआ है कि भारत में औषधि, आॅटोमोबाइल, वस्त्र, दूरसंचार, इलैक्ट्रिक और टिकाऊ उपभोक्ता सामग्री समेत कई उद्योग चीन से आयातित कच्चे माल पर निर्भर हैं। दवा उद्योग पर इसका सबसे ज्यादा असर दिखाई दे रहा है। औषधि विशेषज्ञों का कहना है कि दवाओं के आयात में चीन की कुल हिस्सेदारी 67.56 प्रतिशत है। चीन में यदि कोरोना का कहर जल्द खत्म नहीं हुआ तो औषधि निर्माण में उपयोग में लाए वाले रसायनों की कमी का सामना करना पड़ेगा? इस कच्चे माल की कमी के चलते दवाओं की कीमतों में भारी उछाल देखने को मिल सकता है? इस संकट से यह सबक लेने की जरूरत है कि किसी एक देश पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता नहीं बढ़ाई जानी चाहिए? अब दूसरे देशों से आयात की सीमा बढ़ाने के साथ, कुछ ऐसे उपाय किए जाएं कि देश में ही उपलब्ध कच्चे माल से दवाओं के रसायन एवं आॅटो, टेलीकॉम व टेक्सटाइल से जुड़े उपकरण भारत में ही बनें। होली, दीवाली व रक्षाबंधन से संबंधित त्योहारों पर आयात किए जाने वाले चीनी उत्पादों से तो अब पूरी तरह बचने की जरूरत है। पिचकारी, दीपक और राखी जैसी सामग्रियां हमारे घरेलू उद्योगों में आसानी से बनाई जा सकती हैं।
दवा कंपनियों की समिति ‘इंडिया फार्मास्युटिकल एलायंस’ (आईपीए) ने भारत सरकार को सूचित किया है कि फिलहाल दो से तीन माह की दवाओं का भंडार उपलब्ध है। चीन से पिछले करीब दो माह से कोई सामग्री नहीं आ पाई है। समिति के महासचिव सुदर्शन जैन ने कहा है कि यदि सरकार वि-निर्माण इकाईयों के लिए तेजी से पर्यावरणीय मंजूरी दे दे तो चीन पर निर्भरता कम हो जाएगी। भारत चीन से 17000 करोड़ रुपए का दवा निर्माण संबंधी कच्चा माल आयात करता है। भारत में दवाएं बनाने का ज्यादातर कच्चा माल भारतीय जंगलों व पहाड़ों की कोख में उपलब्ध है। इसके साथ ही हमें देश में एलोपैथी के साथ-साथ अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धत्तियों को भी मजबूत करने की जरूरत है। चीन के साथ दवा आयात-निर्यात के सिलसिले में विडंबना है कि भारतीय दवा कंपनियां जहां अमेरिका और यूरोपीय संघ को जेनरिक दवाओं का बड़ी मात्रा में निर्यात करती हैं, वहीं चीन को इनका निर्यात संभव नहीं हो पा रहा है। चीन के साथ इस कारण भारत को व्यापार घाटा उठाना पड़ रहा है।
चीन में इन वस्तुओं के सस्ते होने का दावा किया जाता है। दरअसल वहां ये वस्तुएं कम लागत में इसलिए तैयार कर ली जाती हैं, क्योंकि चीनी व्यापारी इन वस्तुओं में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री गांव-गांव उन लोगों तक पहुंचा देते हैं, जो इन्हें बनाने में रुचि लेते हैं। इससे इन कारीगरों के शहर में आकर काम करने में जो खर्च होता है, उसकी बचत हो जाती है। नतीजतन वस्तुएं कम लागत में तैयार कर ली जाती हैं। इन वस्तुओं के निर्माण में महिलाओं व बच्चों की भी भागीदारी रहती है। इस वजह से बच्चे खेलते-खेलते कुशल कारीगर बन जाते हैं। एक तय समय के बाद व्यापारी इन निर्मित वस्तुओं को शहर में लाकर आकर्शक पैकिंग कर निर्यात कर देते हैं। यदि हमारे व्यापारी इस तरीके को अपनाएं तो ग्रामों में कच्चा माल पहुंचाकर कम से कम लागत में इन वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। यदि ये उपाय फलीभूत होते है तो 15 से 17 करोड़ ग्रामीण महिलाओं को रोजगार के अवसर दिए जा सकते हैं। भारत में विडंबना रही है कि पिछले दशक में भारत की आर्थिक प्रगति के बावजूद श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी घटी है। हाल ही में आई बेन एंड कंपनी एवं गूगल की सर्वे रिपोर्ट से पता चला है कि इस तरह के रोजगार में महिलाओं की भागीदारी की जाए तो भारत का आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आ सकता है। ग्रामीण एवं अर्धशहरी सवा से डेढ़ करोड़ महिलाओं को उद्यमी बना दिया जाए तो 15 से लेकर 17 करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर पैदा होंगे।
चीन पर व्यापार की निर्भरता घटाने के लिए ऑटो, टेलिकॉम और टेक्सटाइल उद्योगों को बढ़ावा देने की दृष्टि से यदि रक्षा विज्ञान एवं अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) की कार्य प्रणाली को अंजाम दे दिया जाए तो हम न केवल इन क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होंगे, बल्कि निर्यात की स्थिति में भी आ जाएंगे। डीआरडीओ के अध्यक्ष सतीश रेड्डी ने बताया है कि हम 1800 लघु उद्योगों को साथ लेकर काम कर रहे हैं। हमने ऐसी आधुनिक तकनीकों पर भी काम में सफलता पाई है, जिनसे कई प्रकार के हथियार बना लिए हैं। इन्हें जल्द ही सेना को सौंप दिया जाएगा। यह प्रणाली मेक इन इंडिया के लिए सुनहरा अवसर है। यह पूरी तरह स्वदेशी तकनीक पर काम कर रही है। इन रक्षा उत्पादों में आकाश मिसाइल, मिशन-शक्ति मिसाइल, निर्भय मिसाइल, टैंक और रडार समेत 500 प्रकार के हथियार व रक्षा उपकरण बना लिए गए हैं। इनका भवष्यि में निर्यात भी किया जाएगा। इस दृष्टि से सोचने की जरूरत है कि जब हम रक्षा उत्पादों में आत्म निर्भरता की ओर बढ़ सकते हैं तो ऑटो, टेलीकॉम, टेक्सटाइल और दवा उद्योग में आत्म निर्भरता हासिल क्यों नहीं कर सकते?
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