कोरोना सक्रमण जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है, त्रासद में डाला है। हर कोई त्राहिमाम कर रहा है। पर सबसे अधिक कोई वर्ग प्रभावित हुआ है, त्रासद में खड़ा है, उसके सामने अंधेरा ही अंधेरा है, भविष्य में इस त्रासद से बाहर निकलने का कोई रास्ता उसके पास नहीं है तो वह वर्ग अन्नदाता है। अन्नदाता ही प्रकृति की मार और त्रासद को बार-बार झेलने के लिए मजबूर होते हैं। अन्नदाता को कभी बिन मौसम वर्षा ओले से तो कभी कीड़ों से तो कभी उर्वरकों के अभाव से तो कभी बिजली न होने की त्रासदी झेलने के लिए मजबूर होना होता है।
पेट्रोल पदार्थो की कीमतों में वृद्धि और अन्य कृषि उपकरणों की आसमान छूती दाम से किसान न केवल आहत होते हैं बल्कि ये जरूरी उपकरणां की पहुंच से भी दूर होते हैं। अन्नदाता के लिए सरकार से घोषित सभी सुविधाएं और सहायताएं हाथी के दांत साबित हुए हैं। ये सुविधाएं और सहायताएं उपलब्ध कराने में सरकारी अधिकारी न केवल अनाकानी करते हैं बल्कि रिश्वत की मांग करते हैं। पहले से ही इनकी आर्थिक स्थिति इतनी जर्जर है कि अन्नदाता रिश्वत के लिए पैसे कहां से लायेंगे। प्रमाणित तौर पर सरकारी सुविधाएं सिर्फ सरकारी विज्ञापनों, सरकारी अधिकारियों के बयानों और फाइलों में दर्ज होती हैं। खासकर अन्नदाता को समय पर कृषि कर्ज भी कहां मिलती हैं। सरकारी बैंक का रवैया कितना विरोधी है, कितना अमानवीय है, कितना अन्नदाता को अपमानित करने वाला होता है, यह भी जगजाहिर है। कृषि कर्ज के लिए बैंक अन्नदाता को बार-बार दौड़ाते हैं, विभिन्न प्रकार के कागज मांगते हैं, इन कागजों को जुटाने में अन्नदाता का समय इतना नष्ट हो जाता है कि फिर उनके लिए कर्ज की कोई अर्थ नहीं होता है।
इस वर्ष तो अन्नदाता पर प्रकृति की मार कुछ ज्यादा ही पड़ी है। देश की नीति तय करने वाले लोगों, सरकारी अधिकारियों या फिर शहरी अर्थशात्रियों को यह मालूम ही नहीं होगा कि इस वर्ष अन्नदाता पर प्रकृति की कितनी मार पड़ी है, प्रकृति ने अन्नदाता के भविष्य और उम्मीद को किस तरह जमींदोज किया है। इनके लिए बेमौसम बरसात भी एक मनोरंजन होता है। ये जानते नहीं हैं कि बेमौसम बरसात खेती के लिए कितना नुकसानदेह होता है, खेती की उम्मीद को कितना प्रभावित करता है। इस साल बार-बार बेमौसम बरसात हुई है। बेमौसम बरसात होने के कारण कई फसलें बर्बाद हो गई। अरहर जो दाल की कमी को दूर करने के लिए जाने जाती हैं उसकी फसल बेमौसम बरसात के कारण 20 प्रतिशत से भी नीचे चली गई। मसूर में दाने नहीं आये। तीसी में दाने नहीं आये। आम के मंजर झड़ गये।
ऐसा इसलिए हुआ कि बिन मौसम बरसात से इनके फूल झड़ गये। सबसे बड़ी बात यह है कि ओला की मार से जिन फसलों में दाने आये थे वह भी झड गये या फिर उसमें कीडे लग गये। आदिवासी क्षेत्रों और अन्य दूरदराज के क्षेत्रों में लाह उत्पादन अन्नदाता के लिए बडी राहतकारी वाला रहा है। अन्नदाता को इसमें मेहनत नही के बराबर करनी होती है। सिर्फ एक बार लाह के कीडे पलास, बैर आदि के पेड़ों पर छोड देना होता है फिर लाह तैयार हो जाता है। लाह के कीडे बिन मौसम की बारिश से पेड़ों से गिर गये या फिर वे कीड़े समय से पूर्व ही मर गये। गेहूं जो आहार की रीढ हैं भी कम प्रभावित नहीं हुआ है। गेंहू के दाने आने के पहले ही बिन मौसम बारिश ने ब्रजपात कर दिया। गेहूं के खेतों में आज अन्नदाता की उम्मीद और भविष्य की संभावनाओं की कब्र ही नजर आ रहा है।
कोरोना ने तो सबसे ज्यादा अन्नदाताओं की उम्मीदों और भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अन्नदाताओ पर कोरोना ने ब्रजपात कर दिया है। कोरोना सक्रमण से उत्पन्न स्थितियां ही काल बन कर खड़ी है। मजदूर कृषि क्षेत्र से गायब है। मजदूर पलायन कर गये हैं। आपने दिल्ली में अपने घरों में लौटने की आतुर मजदूरों की भीड़ किसने नहीं देखी थी। पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों से मजदूर अपने-अपने प्रदेश, अपने-अपने गांव लॉट चुके हैं। जानना यह भी जरूरी है कि प्रवासी मजदूर ही गेहूं की कटाई और गेहू बीज निकालने का कार्य्र करते हैं। कोरोना के कारण कृषि मजदूर अपने-अपने घरों में लौट गये। प्रवासी कृषि मजदूरों की वापसी की अब उम्मीद ही नहीं है।
लॉकडाउन के ढिलाई के बाद भी यह उम्मीद नहीं है कि प्रवासी मजदूर वापस आयेंगे। वापस आने के लिए आवागमन का साधन भी इन्हें कहां से मिलेगा? इसके अलावा कोरोना सक्रमण ने इतना भयभीत कर दिया है कि लोगों को खुद ही बचाव के उपायें के साथ रहने के लिए मजबूर हैं। कृषि उपकरणों के लिए भी पेटरोल पदार्थो की उपलब्धता भी एक प्रश्न है। यह भी जानना जरूरी है कि हर जगहों पर कृषि उपकरणों से खेती नहीं होती है। छोटे और मझले स्तर के किसानों के लिए आज भी कृषि उपकरण पहुचं से दूर है। जाहिरतौर पर किसानों के सामने भविष्य अंधकारमय हो चुका है। उनके जीवन की उम्मीदें टूट रही हैं।
कोरोना से प्रभावित तबकों को मदद की बड़ी-बडी घोषणाएं हुई हैं। खासकर मजदूरों के कल्याण के लिए कई योजनाओं के तहत आर्थिक सहायताएं उपलब्ध करायी जा रही हैं। सस्ते राशन दिये जा रहे हैं, मजदूरों के एकांउट में सीधे पैसे डाले जा रहे हैं। पर किसानों को सरकार की बड़ी-बडी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। कुछ कागजी अर्थशास्त्रियों की किसान विरोधी सोच से किसानों को सरकारी मदद पाने के अधिकार अंसभव बन जाता है। ईमानदार सरकार के लिए अन्नदाताओं के लिए ईमानदार कोशिश सामने आनी चाहिए। राज्य सरकारों का रवैया तो गैर जिम्मेदार है, किसान विरोधी है।
केन्द्र की नरेन्द्र मोदी की सरकार अन्नदाताओं की मदद की हर संभव प्रयास कर रही है। पहली बार नरेन्द्र मोदी ने वीरता दिखायी है और उन्होने प्रविवर्ष किसानों को छह हजार रुपए देने का काम किया है। अभी सभी की खाते में मोदी सरकार दो हजार रुपए की सहायता की है। अब इससे भी आगे देखना होगा। किसानों को मजदूर का दर्जा दिया जाना चाहिए, किसानों को मजदूर का दर्जा देकर मजदूर की सभी सुविधाएं उन्हें देनी चाहिए। इसमें मध्यम दर्जे के किसानों को भी शामिल करना चाहिए। लागत मूल्य में वृद्धि के कारण मध्यम दर्जे के किसानों की भी स्थिति जर्जर है।
कोरोना से उत्पन परिस्थितियों से प्रभावित अन्नदाताओं को सरकारी सुविधाएं मिलनी ही चाहिए। अगर सरकार यह प्रयास नहीं करेगी तो फिर अन्य अन्नदाता भी कृषि कार्य से विमुख होने के लिए बाध्य होंगे। कोरोना सक्रमण से प्रभावित किसानों का कितना नुकसान हुआ है, इसका ईमानदार आकलन भी कराया जाना चाहिए। अन्नदता ही हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ हैं। इसलिए अन्नदाता को भी उनके अधिकार और मेहनत का फल मिलना ही चाहिए।
विष्णुगुप्त
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