एनपीआर का उद्देश्य देश में हर सामान्य निवासी का एक व्यापक पहचान डेटाबेस तैयार करना है। डेटाबेस में जनसांख्यिकीय के साथ-साथ बॉयोमीट्रिक विवरण शामिल होंगे। प्रत्येक सामान्य निवासी के लिए यह जनसांख्यिकीय विवरण आवश्यक है, जिसके तहत नाम, मां-पिता या पति का नाम, लिंग, जन्म तिथि, वैवाहिक स्थिति, जन्म स्थान, राष्ट्रीयता, वर्तमान पता, वर्तमान पते पर रहने की अवधि, स्थायी निवास पता, व्यवसाय, शैक्षणिक योग्यता से लेकर वर्तमान स्थिति की जानकारी देनी होगी।
लेखक राजेश महेश्वरी
नागरिकता संशोधन काूनन के विरोध में जिस तरह की हिंसक घटनाएं देश के कई राज्यों में घटी, उनका जितनी निंदा की जाए उतना कम है। असल में जिस कानून का देश के नागरिकों से कुछ लेना देना ही नहीं है, उस पर हिंसा समझ से परे है। लेकिन चंद ताकतों ने देश के एक बड़े वर्ग का उकसाने, भरमाने और बरगालने का काम किया जिसका नतीजा सड़कों पर हिंसा प्रदर्शनों के रूप में दिखा। सरकार के हर निर्णय का विरोध (Controversy) करना विपक्ष ने अपना धर्म समझ लिया है। अपने राजनीतिक उद्देश्य पूरे करने के लिये षडयंत्र के तहत जब राजनीतिक दल आम लोगों को उसमें शामिल कर विरोध करने लगते हैं तो अनियत्रिंत भीड़ विस्फोटक स्थितियां पैदा कर देती है।
नागरिकता कानून से पहले मोटर वाहन कानून का भी देशभर में विरोध हुआ था। लोग हेल्मेट और सीट बेल्ट बांधने को तैयार नहीं हैं। यातायात नियमों का पालन वो करना नहीं चाहते।
हर काम में राजनीति। हर निर्णय का विरोध। ऐसी प्रवृति देश में बड़ी तेजी से आम आदमी में फैल रही है। विपक्ष के राजनीतिक दल इस विरोध को हवा देने का काम कर रहे हैं।
नागरिकता संशोधन कानून के बाद अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) शुरू होने से पहले ही विवाद शुरू होता दिख रहा है। केंद्र सरकार ने जनगणना-2021 की प्रक्रिया शुरू करने के साथ ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अपडेट करने की मंजूरी दे दी है।
अगले साल अप्रैल से सितंबर के बीच होने वाली इस जनगणना पर 8,500 करोड़ रुपये खर्च होने की संभावना है। जनगणना आयोग ने कहा है कि एनपीआर का उद्देश्य देश के प्रत्येक ‘सामान्य निवासी’ का एक व्यापक पहचान डेटाबेस तैयार करना है। जनगणना पूरे देश की होगी, जबकि एनपीआर में असम को छोड़कर देश की बाकी आबादी को शामिल गया है। असम को इस प्रक्रिया से इसलिए बाहर रखा गया है, क्योंकि वहां एनआरसी हो चुका है।
एनपीआर को लेकर केंद्र सरकार का यह फैसला ऐसे समय आया है, जब देश में एक बड़ा वर्ग नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ उद्वेलित है।
देश में बड़ी आबादी ऐसी भी है, जो एनसीआर और एनपीआर में अंतर नहीं समझती। इसलिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में अंतर समझना-समझाना आवश्यक है।
सीधे शब्दों में कहा जाए तो एनपीआर देश में रहने वाले निवासियों का राष्ट्रीय डाटा तैयार करने की रूटीन कवायद है। इसमें विदेशी भी शामिल किए जाएंगे, जो 6 माह से अधिक समय से एक स्थान पर रहते होंगे या आगामी 6 माह में बसने की योजना बना रहे होंगे। आबादी के स्तर पर बदलाव स्वाभाविक हैं, क्योंकि कोई दिवंगत होता है, तो कोई जन्म लेता है, कोई कामकाज के सिलसिले में अपना पुश्तैनी घर, गांव या कस्बा भी छोड़ता है।
बदलाव के ऐसे असंख्य आंकड़े सामने कैसे आएंगे या सरकार की जानकारी में कैसे होंगे? बेशक सरकारें और प्रशासन इसी आधार पर योजनाओं और नीतियों के प्रारूप तय करते हैं। लेकिन चूंकि देश में नागरिकता कानून से लेकर एनआरसी की बातें चल रही हैं, ऐसे में सरकार के हर कदम को विपक्षी दल उससे जुड़ा बता रहे हैं जिससे भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।
ऐसा नहीं है कि एनपीआर जैसी कवायद केवल भारत में ही होती है। विश्व के अधिकतर देशों में एनपीआर का प्रावधान है। महापंजीयक एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय एनपीआर की व्याख्या इस तरह करता है कि एनपीआर देश के सामान्य निवासियों का एक रजिस्टर है। यह नागरिकता अधिनियम 1955 और नागरिकता (नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र) नियम-2003 के प्रावधानों के तहत स्थानीय (ग्रामध्उप-टाउन), उप-जिला, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर तैयार किया जा रहा है। प्रत्येक सामान्य निवासी के लिए एनपीआर में पंजीकरण कराना अनिवार्य है।
एक सामान्य निवासी एनपीआर के उद्देश्यों के तहत वह व्यक्ति है, जो पिछले 6 महीने या उससे अधिक समय से स्थानीय क्षेत्र में रहता है या जो अगले 6 महीने या उससे अधिक समय तक उस क्षेत्र में निवास करने का इरादा रखता है।
आबादी के आंकड़ों के हिसाब से योजनाओं का प्रारूप बनता है और वो जमीन पर उतर पाती हैं। एक और गौरतलब तथ्य यह है कि भारत में 3.5 करोड़ से ज्यादा आदिवासी हैं। कुछ भटकी प्रजातियां भी हैं और कुछ हजार सिर्फ गन्ना काटने वाले समुदाय भी हैं। करीब 2 करोड़ भिखारी भी बताए जाते हैं। ये सभी अस्थायी और अस्थिर निवासी हैं। बेशक वे सभी ‘भारतीय’ ही होंगे। योजनाओं और सुविधाओं का लाभ उन्हें भी मिलना चाहिए।
आंतरिक सुरक्षा वहां भी एक संवेदनशील समस्या है। तो समय-समय पर उनका हिसाब-किताब क्यों नहीं होना चाहिए? 2003 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक नियम बनाया था-नागरिकों के पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान कार्ड जारी करना। उसके तहत गांव, कस्बा, तहसील, जिला, राज्य और देश के स्तर पर यह काम किया जाना है।
लिहाजा एनपीआर देश के स्वाभाविक निवासियों का रजिस्टर है। इसका पालन यूपीए सरकार ने भी किया। बेशक पायलट प्रोजेक्ट के आधार पर किया गया, लेकिन एनपीआर की प्रक्रिया शुरू की गई।
हमारी राष्ट्रीय जनसंख्या का मौजूदा आंकड़ा भी जानना जरूरी है। सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक अनुपात के यथार्थ भी सामने आने चाहिए। सवाल है कि इस विश्लेषण में ऐसी कौन-सी साजिशें छिपी हैं, जिनके मद्देनजर पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार और केरल की वामपंथी सरकार ने एनपीआर की प्रक्रिया लागू करने से इनकार कर दिया है। हालांकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पंजाब राज्यों के अलावा पुडुचेरी संघ शासित क्षेत्र में कांग्रेस की सरकारें हैं।
कांग्रेस महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार में भी शामिल है। इन सरकारों को अभी निर्णय लेना है और कांग्रेस भी आधिकारिक तौर पर खामोश है। एनपीआर की अधिसूचना केंद्र सरकार ने 31 जुलाई, 2019 को जारी की थी।
उसके बाद लगभग सभी राज्य सरकारें अधिसूचना जारी कर चुकी हैं। गृहमंत्री अमित शाह और सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी इन तथ्यों को स्पष्ट कर चुके हैं। सरकार यह भी स्पष्ट दावा कर रही है कि एनआरसी और एनपीआर में कोई संबंध नहीं है।
एनपीआर का डाटाबेस एनआरसी में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। तो ओवैसी सरीखे नेता किस आधार पर यह अफवाह फैला रहे हैं कि एनपीआर ही एनआरसी का पहला कदम है? बहरहाल, कई विपक्षी दल इसे भी राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश में लग गए।
अच्छा हुआ कि गृहमंत्री अमित शाह ने समय पर सफाई दे दी कि एनपीआर का एनआरसी से कोई संबंध नहीं है। देश को मालूम होना चाहिए कि उसके यहां कौन-कौन रहते हैं।
विपक्षी दलों व अन्य संगठनों की भी जिम्मेदारी है कि वह इस मामले में राजनीति करने की बजाय लोगों को सही जानकारी दें। हर मामले में राजनीति और विवाद से देश और देशवासियों का नुकसान होना लाजिमी है। सीधी सी बात है जब तक आपके पास आंकड़ें नहीं होंगे तब तक आप विकास का खाका नहीं खींच पाएंगे।
देश में राजनीति करने के लिये तमाम मुद्दे और मसले बाकी हैं, राजनीतिक दलों का उन पर ध्यान लगाकर देश की जनता की भलाई सोचनी चाहिए। गृहमंत्री इस मामले में अपनी राय एक साक्षात्कार के माध्यम से देश के समक्ष साफ कर चुके हैं, अब इस मामले में राजनीति बंद होनी चाहिए।
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