अपने कर्त्तव्य कर्म को पूर्ण करो

Complete, your, Duty

हर आदमी के लिए विधाता ने मनुष्यता का आवरण देकर अपने कर्त्तव्य कर्म को पूर्ण करने के लिए उसे धरा पर भेजा हुआ है। यह कर्म उसके स्वयं के लिए, घर-परिवार के लिए और समाज के लिए निहित हैंंं और इन्हीं की पूर्णता से उसके समग्र व्यक्तित्व का विकास होता है। इस कर्त्तव्य कर्म को पूरा करने के लिए लोग कहीं सीधे और कहीं उल्टे रास्तों का अवलम्बन करते हैं। कई लोेग जमाने की हवाओं और चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने कर्त्तव्य को गौण बना देते हैं और दूसरी गलियों तथा चौराहों एवं सर्कलों पर पूंगी बजाते हुए लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं।

कइयों के लिए कर्त्तव्य कर्म सबसे ऊँचा होता है जबकि कई ऐसे स्वनामधन्य महान व्यक्तित्व के धनी लोग होते हैं जिनके लिए कर्त्तव्य गौण हो जाता है या यों कहें कि उनका कद बहुत बड़ा होता है और फ्रेम बहुत छोटी। कइयों के लिए कर्त्तव्य कोई मायने नहीं रखता और ये लोग दुनिया जहान के सारे काम करते हैं सिवाय अपनी ड्यूटी के। अपने लिए निर्धारित ड्यूटी के सिवा इनसे कुछ भी करा लो, पूरे आनंद से करेंगे। लेकिन जहां ड्यूटी की बात आएगी वहां नाम सुनते ही नाक भौं सिकोडेंगे और दूर-दूर भागने लगेंगे।

इंसानों की एक ऐसी ही प्रजाति पिछले कुछ दशक से पनपी और पसरी हुई है जिसे औरों की थाली में घी दिखता है, औरों का आनंद ही स्वीकार्य लगता है और चाहते हैं कि अपना कर्तव्य कर्म और निर्धारित ड्यूटी को छोड़कर उन कामों में रमे रहें जिनमें कम समय में बहुत ज्यादा पैसा, वर्चस्व और लोकप्रियता प्राप्त होती हो। उन बाड़ों में दुबके रहें जहां कोई खास काम-धाम न हो, पूरी आरामतलबी के सारे प्रबन्ध उपलब्ध हों तथा जिनके माध्यम से वो सब कुछ पाया जा सके जो ड्यूटी से हासिल नहीं हो सकता, चाहे कितनी ही ईमानदारी और निष्ठा से अपने फर्ज क्यों न निभाते रहें। इनका एकमेव मकसद दुनिया की छाती पर छा जाने का होता है और इसके लिए वे सभी सम सामयिक स्टंटों और उखाड़-पछाड़ में माहिर होते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि उनकी हरकतों या करतूतों से किसे कितना नुकसान हो रहा है या होने वाला है। ये सिर्फ और सिर्फ अपने फायदों की ही सोचते हैं और इसी के लिए डग आगे बढ़ाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्त्तव्य कर्म का पूरा लाभ जरूर लेते हैं लेकिन उसे धत्ता दिखाते हुए वे सारे काम करते हैं जो उनके विहित कर्त्तव्य की परिधि में कभी नहीं रहे। ऐसे महान लोग अपनी शौहरत के फेर में हर कहीं मुँह दिखाते या निकालते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं।

जिन्दगी में एक बार किसी आदमी की गाड़ी कर्त्तव्य की मुख्यधारा से भटक जाती है फिर वह कभी लाईन पर नहीं आ पाती। वह इधर-उधर भटकता ही रहता है। हमारे आस-पास ऐसे लोगों की खूब भीड़ छायी हुई है जिनके लिए अपने कर्त्तव्य से कहीं ज्यादा दूसरे काम हावी हो गए हैं। इस किस्म के भटके हुए लोग कहीं भी पाए जा सकते हैं। इनमें वे लोग भी हैं जिन्हें हुनरमन्द बनाने के लिए समाज और राज का खूब सारा धन खर्च होता है और समाज को यह आशा होती है कि क्षेत्र या विषय विशेष में दक्षता पा जाने के बाद ये समाज के काम आएंगे, अपने हुनर से नई पीढ़ी को लाभान्वित करेंगे और अपनी मेधा-प्रज्ञा और दक्षताओं का उपयोग समाज के लिए करेंगे। लेकिन यह सब मिथ्या सिद्ध होता है। इन पर खर्च हुआ सारा पैसा पानी की तरह बह निकलता है और ये किसी ऐसे बाड़े में घुस जाया करते हैं जहां इनकी सीखी हुई दक्षता और हुनर की बजाय ऐसे-ऐसे काम करने में रुचि लेते हैं जिनसे समाज का कोई भला नहीं हो सकता, केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति ही हो सकती है।

ऐसी खूब सारी भीड़ है जो चकाचौंध और टकसाली डेरों को देख कर भटक गई है और अब इनके जीवन का एकमेव उद्देश्य अपने स्वार्थ की पूर्ति करना ही रह गया है। सब तरफ ऐसे-ऐसे लोग हैं जिनके गठबंधन भी बन जाया करते हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई से भी बढ़कर अब डकैत-डकैत सगे भाई का मुहावरा जन्म ले रहा है। लोग इन कर्त्तव्यहीन लोगों के बारे में सब कुछ जानते-समझते हुए भी चुप रह जाते हैं क्योंकि इस किस्म के लोग उन सभी प्रकार के समझौतों और जी-हूजूरी में माहिर होते हैं जो एक संस्कारी और शालीन व्यक्ति पूरी जिन्दगी कभी नहीं कर सकता, चाहे उसके लिए उसे कितना ही खामियाजा उठाना क्यों न पड़े। जब किसी भी व्यक्ति का नाता मूल कर्त्तव्य से छूट जाता है फिर वह जो कुछ करे, उसका अपना कर्त्तव्य हो उठता है। इसमें न कोई वर्जनाएँ हैं न कोई बंदिश। जब सब कुछ उतारकर उतर ही गए हैं नदी में तो आगे किससे लाज। सच तो यह है कि अब ऐसे-ऐसे चेहरे सामने आ रहे हैं जो मौलिक हुनर की बजाय जमाने के अनुरूप अपने नए-नए हुनर विकसित कर रहे हैं। हमेशा चाशनी में तर रहने के आदी ये लोग कभी सूखे नहीं रह सकते। इन्हें जिन्दा रहने के लिए हमेशा आर्द्रता चाहिए। फिर चाहे वह चाशनी की हो या कीचड़ की, इन्हें क्या फर्क पड़ता है। इनकी थूंथन इतनी तीव्र संवेदनशील होती है कि हमेशा इन्हें पूर्वाभास हो ही जाता है कि कहाँ कौनसी गंध पसरने वाली है। फिर ये लोग उसी दिशा में तेजी से लपक पड़ते हैंं। ऐसे लोग अपने अनुकूल गंध पाकर कहीं भी लपक सकते हैं।

इनके लिए कोई रास्ता वर्ज्य नहीं हुआ करता। जिस रास्ते ये चले जाते हैं वह रास्ता इनका हो जाता है। बीच में कहीं कोई बाधा दिखे तो कभी गुर्रा देते हैं तो कभी एकान्त में धीरे से दुम नीचे दबाकर विनम्रता की जीवन्त मूत्र्ति हो जाते हैं। भिड़ना हो तो कहेंगे साण्ड हैं, और झुक जाना हो तो गाय के जाये कहकर पतली गली निकाल लेते हैं। कभी-कभी तो इन पथभ्रष्टों को देख कर लगता है कि शायद कहीं उनके बीज और संस्कारों में तो कोई दोष नहीं है। क्योंकि उनके पुरखों में ऐसो कोई लक्षण नहीं देखा गया जो इनमें कूट-कूट कर भरे हुए हैं। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि ऐसे लोगों के कारण अपने इलाकों में कहीं न कहीं कुछ न कुछ हमेशा घटित होता रहता है। ऐसे लोग हर युग में रहेंगे और उनकी करतूतें भी। फिर ऐसे लोगों की वजह से वे लोग भी जिन्दा बने हुए हैं जिन्हें ऐसे ही लोेगों की जरूरत हुआ करती है जो दिन-रात उनकी परिक्रमा करते हुए जयगान करते रहें। यह जयगान ही उनके लिए विटामिन्स और न्यूट्रीन्स का काम करता है। जहां कहीं ऐसे लोग मिलें, उन्हें जीते जी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करने के सिवा हमारे पास और कोई चारा है ही नहीें। क्योंकि कहीं इनकी करतूतों की चर्चा भी होती है तो ये दूसरों की कब्र खोदने की परम्परा का निर्वाह करके ही दम लेते हैं। ऐसे लोगों की वजह से ही यह कहावत बनी है – गंगा गए गंगादास, जमना गए जमनादास।

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