बहुत से लोग हैं, जो अपने-आपमें नहीं हैं। एक बार किसी बाड़े में क्या घुस गए, अपने आपको जमींदार, ठेकेदार और मालिक समझ बैठे हैं, जैसे कि इनके बाप-दादा इन्हीं के लिए ये सल्तनत छोड़ गए हों। आदमी का अपना खुद का वजूद ज्यों-ज्यों खत्म होता जा रहा है, त्यों-त्यों वह किसी न किसी बाहरी पावर या प्रतीक के सहारे अपने पद, कद और मद का सार्वजनिक प्रदर्शन करने को ही जिन्दगी का सबसे बड़ा और प्रभावकारी सच मान बैठा है।
एक जमाना था जब इंसान अपने गुणधर्म, विलक्षण प्रतिभा और बहुआयामी हुनरों वाली खासियतों की वजह से जाना जाता था और समुदाय तथा क्षेत्र में प्रतिष्ठा पाता रहता था। आज आदमी में कुछ ऐसा रहा ही नहीं कि उसे बिना किसी सहारे, पावर या प्रतीकों के लोग पूछें और पूछ करते रहें। कोई बाहरी डमरू, त्रिशूल, शहनाई, ढोल-नगाड़ा और डण्डा-झण्डा न हो और आदमी अकेला निकल जाए तो कोई उसे पहचाने नहीं। हर किसी को कुछ न कुछ चाहिए होता है अपनी पहचान बताने के लिए। आदमी में अपना खुद का कुछ ऐसा रहा ही नहीं है कि उसे बिना किसी झुनझुने या खिलौने के प्रतिष्ठा प्राप्त हो और लोग दिल से आदर-सम्मान करें।
पहले आदमी का जीवन और व्यवहार अनुकरणीय होता था आज आदमी अनुचर और पिछलग्गू परंपरा को अपना चुका है इसलिए उसे अपने खुद पर गौरव और गर्व करने लायक कुछ बचा ही नहीं है, न स्वाभिमान शेष रहा है न अस्तित्व भान। वह जो कुछ है, वह परायों के कारण है। औरों पर आश्रित है। बहुत सारे लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि धेला भर का काम नहीं करते, लेकिन थैला भर पाते रहते हैं। बहुसंख्य बेरोजगारों और बेकारों की निगाह से देखा जाए, तो ऐसे लोग रोजाना ढेरों इंसानों की बद्दुआएं लेते हुए जी रहे हैं। इस असमानता और अकर्मण्यता के कारण समाज, क्षेत्र और देश पिछड़ रहा है, लेकिन इससे उन लोगों को कोई सरोकार नहीं है, जो देश की कमाई खा रहे हैं और कौड़ी का काम भी नहीं करते।
जरा उन लोगों की ओर देखिये, जो गरीबी के कारण सामान्य जीवनयापन नहीं कर पा रहे हैं, काम-धंधों और नौकरियों को तरस रहे हैं। लाखों-करोड़ों युवा जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद कुछ हासिल नहीं कर पा रहे हैं और कुण्ठाओं, अवसादों तथा अभावों में जी रहे हैं और दूसरी तरफ हम हैं जो कि अपनी औकात और अक्ल से कई गुना अधिक पा रहे हैं, फिर भी काम से जी चुराते हैं और अपने-आपको समझते ऐसे हैं जैसे कि अपने कार्यस्थल छोटी-मोटी रियासतें हों और ये इनके सम्राट या साम्राज्ञी। ऐसे निकम्मों और परिश्रमहीनों को चाहिए कि कभी फुरसत के समय गंभीरता और ईमानदारी से अपने बारे में सोचें और उन लोगों से अपनी तुलना करें जिनके पास न नौकरियां हैं, न काम-धंधे, और जो इन्हें पाने के लिए पूरी जिन्दगी दाँव पर लगा बैठे हैं।
इनकी विपन्नता और अभावों के बारे में समझने की कोशिश करें। इनकी और अपनी जिन्दगी का तुलनात्मक अध्ययन करें। ऐसा यदि पूरी ईमानदारी से कर लिया जाए तो हमें अपनी औकात और जीवन की असलियत से रूबरू होने में समय नहीं लगेगा। हम इतने अधिक खुदगर्ज, संवेदनहीन और नुगरे हो गए हैं कि हमें सिर्फ अपनी ही पड़ी है, समाज, अपनी मातृभूमि और देश से बढ़कर हमारे स्वार्थ हो गए हैं। इतना सब कुछ जानकर भी शर्म न आए तो यह मान लेना चाहिए कि विधाता और आने वाली पीढ़ियां माफ नहीं करेंगी, बिना पुरुषार्थ के जो कुछ पा रहे हैं उनके लिए भगवान ने कई गोपनीय रास्ते खोल रखे हैं जहाँ इस बात का पता भी नहीं चलता कि कैसे सारी कमाई अपरिहार्य बहानों से बाहर निकल जाती है।
जरा उन लोगों की ओर देखिये, जो गरीबी के कारण सामान्य जीवनयापन नहीं कर पा रहे हैं, काम-धंधों और नौकरियों को तरस रहे हैं। लाखों-करोड़ों युवा जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद कुछ हासिल नहीं कर पा रहे हैं और कुण्ठाओं, अवसादों तथा अभावों में जी रहे हैं और दूसरी तरफ हम हैं जो कि अपनी औकात और अक्ल से कई गुना अधिक पा रहे हैं, फिर भी काम से जी चुराते हैं
डॉ. दीपक आचार्य