आइये, गणतंत्र जमीनी हो जाए हम

Republic
Republic

मताधिकार का प्रयोग कर हर नागरिक गर्व महसूस करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज कराने का सर्वोत्तम तरीका है-मतदान करना। यह हमारा न सिर्फ प्रमुख राजनैतिक अधिकार है, अपितु एक नैतिक कर्तव्य भी है। इस अधिकार का जितना अधिक और वाजिब प्रयोग होगा, लोकतंत्र उतना ही प्रस्फुटित और परिपक्व होगा। दरअसल एक लोकतांत्रिक गणराज्य की असली ताकत उसके मतदाताओं में ही निहित होती है। मतदाता ही यह चयन करते हैं कि वह अपने ऊपर किसका शासन चाहते हैं। वहीं जो जनप्रतिनिधि उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरते, उन्हें सही समय आने पर सबक भी सीखा देती है। चुनाव में भाग लेकर मतदाता अपना और देश का भविष्य तय करते हैं। मतदाताओं का एक-एक वोट कीमती होता है।

 

अरुण तिवारी

आजादी से तुरन्त पहले भारत में ब्रितानी ताज का राज था। उससे पहले मुगलिया सल्तनतों समेत अनेक छत्रों के तले संचालित व्यवस्थायें भी राजतांत्रिक ही थीं। राजतंत्र बुरा होता है, गणतांत्रिक व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ। यही सोचकर हमने आजाद भारत का संविधान बनाया। 26 जनवरी, 1950 को भारत, संसदीय गणतंत्र हो गया। आज हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र बताते हुए गौरव का अनुभव करते हैं। प्रश्न है कि यदि गणतंत्र, सचमुच गण यानी लोगों की, लोगों के द्वारा, लोगों के हित में संचालित व्यवस्था है, तो फिर दुनिया के तमाम गणतांत्रिक देशों के नागरिकों को अपने साझा हकूक व हितों के लिए आंदोलन क्यों करने पड़ रहे हैं ? आंदोलित नागरिकों को पीटा क्यों जा रहा है? नागरिकों को उनके मौलिक कर्तव्य क्यों याद दिलाने पड़ रहे हैं? नागरिक कौन होगा; कौन नहीं ? यह तय करना, स्वयं नागरिकों के हाथों में क्यों नहीं है? दूसरी तरफ, यदि राजतंत्र इतना ही बुरा था, तो सुशासन के नाम पर हम आज भी रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने का सपना क्यों लेते हैं? आज भी राजा-रानी वाला देश भूटान, खुशहाली सूचकांक में दुनिया का नंबर वन क्यों है? आखिरकार, हम ऐसी किसी व्यवस्था को अच्छा या बुरा कैसे बता सकते हैं, जो संचालन भूमिका में अच्छे या बुरे इंसान के आ जाने के कारण क्रमश: अच्छे अथवा बुरे परिणाम देती हो?
यूं एक गणतंत्र के रूप में भारत सात दशक पूरा कर चुका। किंतु इससे पूर्व नागरिकता प्रकरण व जम्मू-कश्मीर के हालात को आईना मानकर लोकतांत्रिक सूचकांक में भारत की रैंकिग 10 पायदान नीचे आ गई है। 22 दिसम्बर – प्रख्यात पर्यावरणविद् स्वर्गीय श्री अनुपम मिश्र जयंती के मौके पर ‘स्वराज और गांधीजी’ विषय व्याख्यान में नामी पत्रकार बनवारी जी द्वारा उठाए ऐसे प्रश्नों और जवाब में पेश उदाहरण व तर्क गणतंत्र के वर्तमान ढांचे पर पुनर्विचार के लिए भी विवश करते हैं। आधुनिक इतिहास में ग्रीक को दुनिया का पहला गणतंत्र माना जाता है। गणतांत्रिक मूल्यों के आधार पर हुए आकलन में दुनिया के 195 देशों में मात्र 75 देश ही गणतांत्रिक राह के राही करार दिए गए हैं। मात्र 20 को ही पूर्णतया गणतांत्रिक मूल्यों के देश माना गया है। इनमें 14 देश यूरोप के हैं। शेष 55 को त्रुटिपूर्ण गणतांत्रिक चेतना का देश माना गया है। इनमें भारत भी एक है।
राजतंत्र जैसा गणतंत्र हम: राजतंत्र में राज्य, राजा की संपत्ति होता था। एक राजा द्वारा दूसरे राजा को जीत लिए जाने की स्थिति में, राज्य दूसरे राजा की संपत्ति हो जाता था। गणतंत्र में राष्ट्र, सार्वजनिक महत्व व जवाबदेही का विषय बताया जाता है, किंतु क्या आज सत्ता में आरुढ़ दल, देश को अपनी मनचाही दशा और दिशा में ले जाने की जिद्द में लगे नहीं दिखते; क्या सत्ता, सार्वजनिक महत्व की संपत्तियों को भी अपने मनचाहे निजी हाथों को सौंपती नहीं रही? राजतंत्र में निर्णय लेने, योजना-कानून बनाने और कर तय करने का काम राजा और उसका मंत्रिमण्डल करता था। लोकतंत्र में भी तो यही हो रहा है। दल आधारित राजनीति में विह्प तो नेतृत्व ही जारी करता है; बाकी लोग तो संसद में बस, अपने-अपने दल द्वारा तय पक्ष़्ा-विपक्ष में हाथ ही उठाते हैं। तय निर्णयों-नीतियों को जमीन पर उतारने का काम राजतंत्र में भी कार्यपालिका करती थी। गणतंत्र में भी वही कर रही है। न्याय पहले भी राजा व उसके मंत्रिमण्डल के हाथ था; अब भी न्यायाधीश, लोकपाल आदि की नियुक्ति जनता के हाथ में नहीं है। लोगों के जीवन-मृत्यु का अधिकार भी लोगों के पास नहीं है। बलात्कारी को यदि मृत्युदण्ड देना है, तो न्यायालय देगा। उसे जीवन या मृत्यु देने का अधिकार आज भी पीड़िता के हाथ में नहीं है। यदि आत्मरक्षा के प्रयासों के दौरान पीड़िता के हाथों बलात्कारी की मृत्यु हो जाए, तो पीड़िता को कानूनन सजा भुगतनी पड़ती है।… तो फिर राजतंत्र और लोकतंत्र में फर्क क्या है, सिवाय चुनाव के ? तिस् पर भी चुनाव के कायदे, प्रक्रिया, चुनाव घोषणापत्र से लेकर उम्मीदवार तक कौन होगा; कुछ भी लोगों के हाथ में नहीं।
दुनिया के 36 देशों में संसदीय व्यवस्था है। लोकसभा, लोकप्रतिनिधियों की सभा है। लोकप्रतिनिधियों द्वारा चुनी सभा होने के कारण, राज्यसभा लोकप्रतिनिधियों की उच्चसभा है। तद्नुसार, हमारे सांसदों को संसद में लोकप्रतिनिधि की तरह व्यवहार करना चाहिए। किंतु वे तो दल के प्रतिनिधि अथवा सत्ता के पक्ष-विपक्ष की तरह व्यवहार करते हैं। जहां सत्ता है, वहां गणतंत्रता कहां ? यह तो राजतंत्र ही हो गया न? संभवत: जिस गणतंत्र को हमने राजंतत्र का विकल्प समझा था, वह असल में राजतंत्र का ही नया संस्करण है। अंग्रेजी में गणतंत्र को ‘रिपब्लिक’ और लोकतंत्र को ‘डेमोक्रेसी’ कहा जाता है। अत: निष्कर्ष रूप में यह भी कहा जा सकता है कि हम संवैधानिक गणतंत्र तो हैं, किंतु लोकतांत्रिक गणतंत्र होने के लिए हमें अपनी चाल, चरित्र और व्यवहार में अभी बहुत कुछ बेहतर करना बाकी है। क्या करें ?
पंचायती मतलब न सत्ता, न प्रजा: गौर करें कि यहां पंचायती का मतलब यह नहीं कि प्रभाव तो गांव में होना है; सोचने, योजना बनाने और क्रियान्वयन के तरीके कहीं और…केन्द्र में तय हों। इस पर भी घोषणा और अपेक्षा की लोगों को सहभागी बनाना है। यह तो सिद्धांतत: उलट बात है। यही तो हमारे संसदीय गणतंत्र में कमी है। हमें एकमत होना होगा कि पंचायती का मतलब, केन्द्र से सोची और उतारी गई योजनाओं को क्रियान्वित करने वाली एजेन्सी हो जाना नहीं है। पंचायती मतलब सत्ता का प्रधान-पंच के हाथ में आ जाना भी नहीं। आइए, हम इससे आगे सोचें। अतीत में झांकें।
पंचायती का मतलब परंपरागत् पंचायती; जहां कोई सत्ता नहीं, कोई प्रजा नहीं। कार्य विशेष के लिए बैठी सभा, कार्य सम्पन्न होने के साथ ही विसर्जित हो गई। गांव की आय में किसका कितना अंश… गांव के पुरोहित-कारीगर का कितना; व्यवस्था संचालकों को कितना ? सब कुछ परम्परा से तय था। अंश प्राप्तकर्ता को मांगने नहीं आना पड़ता था। लोकतंत्र का मतलब, अपने बारे में खुद सोचने, खुद नियोजित करने और खुद ही उसका क्रियान्वयन करने वाली व्यवस्था। क्रियान्वयन करने वाले हाथ, जवाबदेही, संसाधन भी उसी स्थान के हों, जिस भूगोल पर उसका सीधे-सीधे प्रभाव होना है; चाहे फिर वह गांव हो या नगर। यही तो असली आजादी थी; असली स्वराज। आखिरकार, यही तो वह व्यवस्था थी, जिसे भारत की सुख, समृद्धि और स्वतंत्रता का अधिकतर श्रेय देते हुए ब्रिटिश गर्वनर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा था – ‘‘ये गांव समाज छोटे-छोटे ऐसे प्रजातंत्र हैं, जिन्हे अपनी आवश्यकता की लगभग हर वस्तु अपने ही भीतर मिल जाती है; जो विदेशी संबंधों से लगभग स्वतंत्र होते हैं। ये ऐसी परिस्थितियों में भी टिके रहते हैं, जिनमें दूसरी हर वस्तु का अस्तित्व मिट जाता है।’’ आइए, हम, भारत की जनता इस पर विचार करें।

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।