आज समाज में चहुँ ओर हिंसा, अराजकता व झूठ का बोलबाला है। प्रत्येक वर्ष विजयदशमी के पर्व पर कागज के पुतले फूंक कर बुराई की इति श्री के मिथ्या भ्रम में ही उलझे रहते हैं और अपने अन्दर छिपी बुराइयों को नजरंदाज कर देते हैं क समाज की प्रत्येक इकाई से गिर रहे नैतिकता के स्तर के लिए जितना जिम्मेदार हमारे समाज की रचना है उससे कहीं अधिक जिम्मेदार व्यक्ति विशेष हैं। आज यह मानवीय प्रवृत्ति हो चुकी है कि हम दूसरे के दोषों की चर्चा तो खूब करते हैं किन्तु अपनी गलतियों पर पर्दा डाल लेते हैं। दूसरों के दोष तो हमें नजर आ जाते हैं किन्तु स्वयं का बड़े से बड़ा अपराध का भी हम आत्मनिरीक्षण करने की कोशिश तक नहीं करते। आज के गिरते मानवीय जीवन चरित्र को देखते हुए यही धारणा प्रबल हो चली है कि ‘दोस पराए देखि करि चला हसंत-हसंत’ अर्थात यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देखकर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत क दूसरों के प्रति अपने दुर्व्यवहार व अपने दोषों अनुसार सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में कबीर द्वारा कही गई वाणी अपने याद न आवई जाको आदि न अंत’ यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि आत्म निरीक्षण व आत्म विश्लेषण कर अपनी गलतियों को सुधारने की बजाए हम अपने विवेक दर्पण में वही सब कुछ देखना चाहते हैं जैसा हमारा मन करता है। कबूतर की तरह आँख मूंदे रहने की भावना ने समाज को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया है।
निज की स्वस्थ आलोचना कर व अपने गुण दोषों को हम देखना भी नहीं चाहते। यही कारण है कि सामाजिक अपराधों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। समाज की प्रथम इकाई अर्थात परिवारों में जहाँ घरेलू अपराध होते हैं व महिलाओं का शोषण होता है। हाथरस हो या दिल्ली या फिर राजस्थान महिलाओं के साथ दंरिन्द्गी करने में कोई मौका समाज के दानव मौके की तलाश में रहते हैं क विभिन्न राजनैतिक द्वारा पीड़ित परिवार के प्रति सहानुभूति रखने की बजाये निज स्वार्थवश तमाम नैतिकता को ताक पर रख दिया जाता है क वहीं दहेज, यौन उत्पीड़न की घटनाएं यह सोचने को विवश करती हैं कि आखिर नियति हमारे समाज को किस दिशा की ओर ले जाना चाहती है। भारतीय शासन तंत्र में बैठे शीर्ष नेताओं में आत्म निरीक्षण का अभाव और प्रतिशोध की भावना के घर करने के कारण ही भारतीय समाज में अपराधों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।
अत: जरूरी है कि परिवार में इस तरह का माहौल बनाया जाये सदस्यगणों में आत्मनिरीक्षण करने की आदत का भाव उत्पन्न हो। अपने हृदय को अपनी क्रियाओं का दर्पण मानते हुए गुण दोषों का विवेचन करने का अभ्यास करें तथा एक क्षण के लिए यह मनन करें कि किसी से किया गया हमारा व्यवहार, दूसरे को मानसिक ठेस तो नहीं पहुंचा रहा। यदि जानबूझकर या प्रतिशोध की भावना से किसी को हानि पहुंचाई जाती है तो शांत मन से अपने उस व्यवहार का विश्लेषण करना चाहिए। यदि अपने इस व्यवहार में कहीं भी पश्चाताप महसूस हो तो निश्चित रूप से आत्म निरीक्षण द्वारा हम अपने दोषों का निवारण कर सकेंगे । ऐसी भावना के साथ उद्देश्य पूर्ति का यही सन्मार्ग होगा और कर्त्तव्य पालन करते हुए सच्ची सफलता प्राप्त होगी जिससे निज संतुष्टि तो मिलेगी ही साथ ही इसमें समाज कल्याण भी निहित होगा, उसी सूरत में मन में छिपे रावण का सही अर्थों में अंत माना जाएगा। — मनीष भाटिया
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