नशों की मार झेल रहे पंजाब के एक लोकसभा सदस्य ने सरकार को सुझाव दिया है कि राज्य में पोस्त व अफीम के ठेके खोले जाएं। यह नेता अफीम व पोस्त को प्राकृतिक नशे करार दे रहा है व मेडीकल नशों से कम खतरनाक मानता है। नशों की रोकथाम के लिए पंजाब सरकार के शुभचिंतक चिंता में हैं व किसी न किसी राहत की उम्मीद कर रहे हैं लेकिन जब कोई नेता अफीम व पोस्त को नशों का हल बताता है तो दुख भी होता है व हंसी भी आती है। एक नशीले पदार्थ की जगह किसी अन्य नशीले पदार्थ के प्रयोग को न तो नशामुक्ति कहा जा सकता है और न ही आर्थिक राहत, न ही पोस्त व अफीम पंजाब की कोई पारम्परिक खुराक है।
पंजाब के सेहतमंद युवाआें, पहलवानों की खुराक अफीम पोस्त नहीं बल्कि दूध, घी ही था। नशेड़ी तो नशेड़ी ही होता है चाहे वह नशे के इंजैैक्शन लगाता रहे चाहे पोस्त खाता रहे। हमारा आदर्श नशा रहित तंदरूस्त युवा होना चाहिए न कि पोस्त का सेवन करने वाला। पहले पंजाबियों पर चूरा पोस्त खाने का कलंक लगा हुआ था। पोस्त के लिए राजस्थान के कच्चे रास्तों पर चलते पंजाब के नशेड़ियों पर लोग तंज कसते रहते थे। बीते कुछ वर्षाे में पंजाब पोस्त का घर ही बन गया था आखिर सरकार ने राजस्थान व मध्यप्रदेश सरकार को पोस्त की कृषि बंद करने के लिए कहा। पोस्त के नशे ने पंजाब में आर्थिक बर्बादी भी की थी व नशेड़ी पोस्त तस्करों के लिए सोने की मुर्गी बन गए हैं।
मजदूर अपनी प्रतिदिन की कमाई का आधा पैसा पोस्त पर ही खर्च कर देते हैं। इसी का परिणाम है कि राजनीतिक पहुंच वाले नेताओं ने ट्रकों के ट्रक पोस्त बेचकर अपनी तिजोरियां भर ली। इसलिए पोस्त व अफीम के ठेके खोलने के सुझाव नशे की समस्या के सामने हथियार डालने वाली बात है। सेहतमंद शब्द का नशे के साथ कोई संबंध नहीं। इस समय अच्छी सोच की जरूरत है। समाज सेवा का जज्बा समाज की काया पलट देता है। नशों के कोढ़ को खत्म करना बड़ी चुनौती जरूर है लेकिन इसके खात्मे के लिए सरकारी सख्ती, सामाजिक जागरूकता, एकजुटता व लक्ष्य को पूरा करने की योजनाबंदी होनी चाहिए। दारा सिंह व करतार सिंह जैसे पहलवानों की धरती के लिए पोस्त अफीम के प्रयोग का सुझाव सही नहीं। नशे को बुराई के रूप में देखा जाना चाहिए, जिस तरह भ्रष्टाचार अन्य कामों में अड़चन बन रहा है वही भ्रष्टाचार नशे के खात्मे में भी रूकावट पैदा कर रहा है। अगर यही दूर हो जाए तो नशा नहीं रहेगा।
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