लोकसभा चुनाव के लिये होने लगे बेमेल गठबंधन

Coalition to be held for Lok Sabha elections

वर्तमान में देश की राजनीति एनडीए और यूपीए के तौर पर दो गुटों में बंटी मानी जाती है। इन सबके बीच महागठबंधन भी धीरे-धीरे आकार ले रहा है। हालांकि महागठबंधन की राजनीतिक विचारधारा व दिशा यूपीए से मेल खाती है, कमोबेश महागठबंधन यूपीए का ही एक छोटा रूप है। अगले साल देश में आम चुनाव होने हैं, ऐसे में एनडीए व यूपीए दोनों गुट अपने को मजबूत करने में जुटे हुये हैं। ताजा घटनाक्रम में हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत से यूपीए की गतिविधियों में तेजी है। वहीं एनडीए के साथी भी भाजपा के साथ सीटों के बंटवारे से लेकर तमाम दूसरे मुद्दों पर बातचीत, माप-तोल और नफा-नुकसान मापने में लगे हुये हैं। किसी न किसी गुट में शामिल होना तमाम राजनीतिक दलों की सियासी मजबूरी बन गया है। जहां छोटे व क्षेत्रीय दलों को बड़ी पार्टियों की जरूरत है, वहीं बड़े दल भी छोटे दलों के साथ के बिना अधूरे ही हैं। चूंकि मामला चुनाव का है ऐसे में विचारधारा पर जिताऊ उम्मीदवार व वोट बैंक हावी हो जाता है ऐसे में एनडीए ओर यूपीए में दलों के शामिल होने, साथ छोड़ने से लेकर महागठबंधन के बनने-संवरने की कवायदें पूरे उफान पर हैं। सत्ता की चाहत में देश में बेमेल व मजबूरी के गठबंधन आकार लेते दिख रहे हैं।

भाजपानीत एनडीए ने बिहार में भाजपा, जद ( यू) और पासवान परिवार की पार्टी लोजपा के बीच लोकसभा सीटों के बंटवारे का मसला सुलझा लिया है। इसके अन्तर्गत भाजपा और जद ( यू ) 17-17 तथा लोजपा को 6 सीटों पर लड़ने का अवसर मिलेगा। इसके अलावा रामविलास पासवान को भाजपा सम्भवत: असम से राज्यसभा में लाएगी। इस समझौते को भाजपा की शिकस्त और श्री पासवान की जीत के तौर पर देखा जा रहा है। 2014 में लोजपा भाजपा के साथ मिलकर 6 सीटें जीती थी जिनमें तीन तो श्री पासवान के घर की ही थीं। लेकिन तब जद (यू) अलग से लड़ा था। बाद में विधान सभा चुनाव के समय उसका लालू प्रसाद यादव के राजद से गठबंधन हुआ जो जल्द ही टूट गया और नीतीश कुमार ने नाटकीय अंदाज में फिर भाजपा का दामन थाम लिया। ऐसे में भाजपा की मजबूरी ये थी कि वह जद (यू) को किनारे नहीं कर सकती थी। उधर उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश का एनडीए में महत्वपूर्ण बनना हजम नहीं हो रहा था और वे अपने लिए पहले से ज्यादा सीटें मांग रहे थे। जब उन्हें लगा कि नीतीश के रहते उनकी पूछ-परख कम हो गई है तब उन्होंने कांग्रेस और लालू के महागठबंधन का दामन थाम लिया। उसके बाद से पासवान परिवार ने दबाव और बढ़ाया तथा एनडीए छोड़ने तक का इशारा कर दिया। यदि भाजपा हाल में हुए विधानसभा चुनावों में जीत जाती तब शायद अमित शाह रामविलास को भी नजरंदाज कर सकते थे किंतु तीन राज्यों की सत्ता हाथ से निकल जाने के बाद भाजपा की अकड़ काफी कम हो गई जिसका असर गत दिवस हुए समझौते पर स्पष्ट दिखाई दिया।

दक्षिण भारत में द्रमुक द्वारा राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के मुकाबले आगे करने की पहल को अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि महागठबंधन अभी भी चेहराविहीन है और छोटे-छोटे दल कांग्रेस को वैसे ही आंखें दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं। इस प्रकार जितनी मजबूर भाजपा अपने सहयोगियों के सामने है उतनी ही कांग्रेस भी बल्कि कुछ हद तक तो ज्यादा भी। एनडीए में अभी तक तो श्री मोदी के नेतृत्व को लेकर कोई भी सन्देह नहीं है किंतु राहुल को महागठबंधन का नेता मानने पर सहमति नहीं बन पा रही है। फिर भी कांग्रेस, भाजपा के अंधे विरोध के चलते उन सभी दलों से हाथ मिलाने को राजी हैं जिनके साथ उनकी वैचारिक साम्यता नहीं है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो गठबंधन अब ऐसी वास्तविकता बन गई है जिसे भाजपा और कांग्रेस को चाहे या अनचाहे स्वीकार और सहन करना ही पड़ेगा।

ममता बैनर्जी और चंद्रबाबू नायडू की पार्टी कांग्रेस की नीतियों से क्षुब्ध होकर बनी लेकिन अब वे उसी के साथ बैठने को तत्पर हैं। जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबंधन अवसरवाद और वैचारिक पलायन का बड़ा उदाहरण बना। लेकिन इस सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि गठबंधन मजबूरी की जगह जरूरी बन गया है। बावजूद इसके एक बात विचारणीय है कि येन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए किये जा रहे गठजोड़ भविष्य में देश के लिए नुकसानदेह साबित हो सकते हैं क्योंकि इनके पीछे नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा और स्वार्थ हावी होने लगे हैं।

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