भारत के 69 वैज्ञानिकों सहित विश्व के 11250 वैज्ञानिकों ने विश्व स्तर पर जलवायु आपातकाल की घोषणा की है। इस घोषणा का अर्थ यही है कि अमेरिका, रूस, चीन जैसे देशों सहित विश्व के विकासशील देशों ने जलवायु को लेकर पैदा होते खतरों को टालने के लिए सिवाय केवल बातें, एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप और कागजी कार्रवाई के अलावा कुछ भी नहीं किया। क्योटो संधि भी केवल औपचारिकता बनकर रह गई। अमेरिका जलवायु के मामले में अपनी जिम्मेदारी निभाने की बजाए विश्व के साथ मजाक ही करता आया है। वह पैरिस समझौते से बाहर हो गया है।
इस लापरवाही भरे व्यवहार के कारण ही स्वीडन की 16 वर्षीय युवती थनबर्ग ग्रेटा संयुक्त राष्ट्र में न केवल आंसू बहाती है बल्कि अपने भाषण के समापन के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड से चिंता भी व्यक्त करती है। ग्रीन हाऊस गैसों की निकासी रोकने के मामले में अमेरिका का रवैया थानेदारों वाला रहा है जो जलवायु खतरों का ठीकरा विकासशील देशों के सिर फोड़ता है। चिंताजनक विषय यह है कि भोजन और बिजली जैसी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए ही विश्व ने मानवीय जीवन को दांव पर लगा दिया है।
प्रकृति को मानवीय जीवन से बाहर निकालने का खमियाजा आखिर मानव को ही भुगतना पड़ेगा। इधर हमारा मुल्क है जहां 100 रुपए का समाधान ही नहीं निकल रहा। पराली को आग लगाना प्रदूषण माना जा रहा है जिसके लिए किसानों को प्रति क्विंटल पराली का 100 रुपए देने से समस्या का समाधान होना संभव है। पंजाब केंद्र सरकार को बार-बार पत्र लिख रहा है। वातावरण के लिए किसान गिरफ्तार किए जा रहे हैं लेकिन 100 रुपए देने के लिए कोई तैयार नहीं।
आखिर सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा है कि छोटे व सीमांत किसानों को 100 रुपए क्यों नहीं दिए जा रहे। विश्व में प्रदूषण को कंट्रोल करने के लिए हजारों अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं लेकिन हमारे देश में 100 रुपए समस्या बने हुए हैं। वातावरण को लेकर एक अन्य चिंताजनक पहलू यह है कि विकास का पैमाना औद्योगिक विकास बन गया है जो प्रदूषण का बड़ा कारण है। ई-वाहनों को बढ़ावा देने के दावे कमजोर साबित हो रहे हैं। इन हालातों में विकास और प्रदूषण को अलग-अलग रखना सबसे बड़ी समस्या है, जिससे निपटने के बजाए जलवायु पर चिंतन केवल बातें ही है जिससे कोई स्थायी हल नहीं निकले वाला। जलवायु आपातकाल इन्हीं दिशाहीन व महत्वहीन प्रयासों की देन है।
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