कल चाहे जो दावे करें आज कहने को कुछ नहीं

Migrant Labour
कहने को हमारे देश में सूचना अधिकार एक्ट है, जो 2005 में लागू हो गया था जिसके अंतर्गत सरकार के किसी भी विभाग से कानूनन जानकारी मांगी जा सकती है लेकिन आज हाल यह है कि लॉकडाउन के दौरान मजदूरों की घर वापिसी संबंधित उनसे किराया वसूलने व खाना मुहैया करवाने संबंधी न तो केंद्र सरकार व न ही राज्य सरकार के पास कोई जानकारी है। जब सुप्रीम कोर्ट के पूछे जाने पर भी जानकारी नहीं मिल रही तब आम आदमी की क्या औकात। मामला यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद इस पर संज्ञान लिया था कि मजदूरों की वापिसी दौरान केंद्र व राज्य सरकारों ने गलती की है, जिस कारण मजदूर बदहाल हैं, कहीं सड़क हादसों में मजदूर मारे गए, लाखों पैदल जा रहे हैं, कुछ भूख-प्यास से मर रहे हैं और अब गर्मी के कहर ने उन्हें बेहाल कर दिया है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में 91 लाख मजदूरों की वापिसी व साथ ही खाना उपलब्ध करवाने की बात कही है किंतु यहां दूसरे पक्ष के वकील की यह दलील भी वाजिब है कि मजदूर चार करोड़ के करीब हैं बाकी तीन करोड़ का क्या बना? हालांकि स्पष्ट है कि यदि 91 लाख रेल व सड़कों के माध्यम से घर वापिस लौटे हैं तब बाकी करोड़ों मजदूर दुखी व फटे हाल पैदल लौट रहे हैं जिनके पास न तो किराया है और न ही रास्ते में कोई रोटी-पानी का प्रबंध। यहां चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का सवाल भी महत्वपूर्ण है कि केंद्र व राज्य सरकारें कह रही हैं कि मजदूरों के किराया का उन्होंने भुगतान किया है तब फिर मजदूरों से किराया किसने वसूल किया? जहां तक आज के कम्प्यूटरीकृत व प्रशासनिक ढांचें का सम्बन्ध है, सरकारों के पास सारा रिकार्ड होना चाहिए जो अदालत में पेश किया जा सकता है, बाकी जो मजदूर पैदल जा रहे थे उन्हें रोक कर यातायात उपलब्ध करवाने की कोशिश क्यों नहीं की गई।
यह मामला चिंताजनक है कि एक लड़की अपने बीमार पिता को साइकिल पर बिठाकर 1200 किलोमीटर दिल्ली से बिहार ले गई, जिसकी सूचना अमेरिका के राष्ट्रपति की बेटी इंवाका के कानों तक भी पहुंच गई है, लेकिन हमारे देश के नेता जो पल-पल मीडिया का एक-एक शब्द पढ़ते रहते हैं उन्हें उस लड़की की मुश्किलों भरे सफर की कोई जानकारी क्यों नहीं रही? बेशक कल केंद्र व राज्य सरकारें अपने-अपने दावों के कागजात कोर्ट में पेश करती फिरें लेकिन आज देश की सबसे बड़ी अदालत में कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को सूचना का अधिकार प्राप्त है लेकिन इस मामले में सरकारों की चुप्पी उनकी जिम्मेदारी निभाने की वचनबद्धता पर सवाल खड़े कर रही है।

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