अमेरिका से ट्रेड वार में उलझना अब चीन को भारी पड़ रहा है, चीन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। लोहे को लोहा ही काटता है। चीन जैसे अराजक, हिंसक और उपनिवेशिक मानसिकता के देश को अमेरिका जैसी अराजक और लुटेरी शक्ति ही सबक सिखा सकती थी। अमेरिका को न समझने वाले बड़ी भूल करते हैं और इस भूल की बड़ी कीमत भी चुकाते हैं, कीमत तो आत्मघाती होती ही है, इसके अलावा अस्तित्व को भी समाप्त कर देती है। कभी सोवियत संघ ने अमेरिका को न समझने की भूल की थी, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के फेर में फंस गया था, रोनाल्ड रीगन ने सोवियत संघ को स्टार वार्स और शीत युद्ध में उलझा कर उसकी अर्थव्यवस्था को ही चौपट कर दिया था।
सोवियत संघ अमेरिका से बराबरी करने और शीत युद्ध में इतना डूब गया था कि उसे अपनी अर्थव्यवस्था के विध्वंस का अहसास ही नहीं रहा था। लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला में अचानक कम्युनिस्ट तानाशाही कायम हो गयी, कम्युनिस्ट तानाशाही के तानाशाह हयुगों चावेज अमेरिका को तहस-नहस करने की कसमें खाने लगा, उसका दुष्परिणाम क्या हुआ, आज वह लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला दिवालिया हो चुका है, उसकी अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, भूख से तड़पते हुए लोग शरीर बेचने के लिए तैयार हैं, एक किलो चावल के लिए हत्या तक करने पर उतारू हैं, भूख से तड़पती जनता वेनेजुएला से पलायन कर ब्राजील सहित अन्य पड़ोसी देशों में नरक की जिंदगी जीने के लिए विवश है। ईरान जैसा देश भी अमेरिका के निशाने पर आने से न केवल महंगाई की मार झेल रहा है बल्कि उसकी तेल व्यापार की शक्ति भी आधी हो गयी है। उत्तर कोरिया जैसा देश जो अमेरिका का विध्वंस करने की धमकियां देता था वह आज अमेरिकी घेराबंदी मे ऐसा फंसा कि खुद वार्ता के टेबल पर बैठने के लिए बाध्य हो गया।
उतर कोरिया के तानाशाह और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच दो दौर की वार्ता हो चुकी है फिर भी उसे प्रतिबंधों से मुक्ति नहीं मिली है। अमेरिका न केवल सामरिक शक्ति में अव्वल है, कूटनीति के क्षेत्र में महाशक्ति है बल्कि अमेरिका के पास एक विशाल उपभोक्ता बाजार है, वह उपभोक्ता सामग्री स्वयं निर्माण नहीं करता, वह खुद अपनी जरूरतों के हिसाब से कृषि उत्पादन नहीं करता है, अमेरिका अपनी जरूरत की उपभोक्ता सामग्री चीन जैसे देशों से खरीदता है और अपना पर्यावरण भी सुरक्षित रखता है। चीन अपने संसाधनों के दोहन और सस्ते श्रम के बल पर अमेरिका और यूरोप के उपभोक्ता बाजार में सक्रिय रहता है। कहना न होगा कि कभी मजदूरों के हित पर खड़ी चीन की कम्युनिस्ट तानाशाही मजदूरों के दोहण पर ही अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत रखती है।
आज न कल चीन पर अमेरिकी हित का डंडा चलना ही था, कभी न कभी चीन की खुशफहमी तो टूटनी ही थी, कभी न कभी चीन के अंहकार तो टूटना ही था, कभी न कभी चीन की अर्थव्यवस्था को चोट तो पहुंचनी ही थी, चीन की निर्यात शक्ति खतरे में पड़नी ही थी।
आखिर क्यों, चीन इतना मजबूत इच्छाशक्ति वाला देश, आखिर क्यों मजबूत चीन की अर्थव्यवस्था मरनासन्न स्थिति में पहुच गयी है? चीन को फिर से निर्यात की शक्ति चाहिए। जब अमेरिका ने चीन के साथ ट्रेड वार शुरू किया था, जब अमेरिका ने चीन की अर्थव्यवस्था के खिलाफ कदम उठाया था, जब अमेरिका ने आर्थिक मोर्चे पर चीन की घेराबंदी शुरू की थी तब चीन ने काफी फुंफकारा था, चीन ने बड़ी हेकड़ी दिखायी थी, चीन ने खुशफहमी और अहंकार भरी थी, चीन ने यह दावे किये थे कि अमेरिका की गीदड़ भभकी से वह नहीं झुकेगा, अमेरका उसकी अर्थव्यवस्था का बाल भी बांका नहीं कर पायेगा, उसकी अर्थव्वयवस्था मजबूत है, उसकी अर्थव्यवस्था को कोई नुकसान नहीं होने वाला है, उसके यहां की औद्योगिक इंकाइयां छोड़ कर अन्य देशों में जाने वाली नहीं है? सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि चीन ने यह दावे भी किये थे कि अगर अमेरिका ने अपनी नीति नहीं बदली तो फिर उसकी नीति ही आत्मघाती साबित होगी, ड़ोनाल्ड ट्रम्प की चीन की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की नीति अमेरिका के लिए भारी पड़ेगी, अमेरिका की अर्थव्यवस्था ही चरमरा जायेगी, अमेरिकी बाजार के उपभोक्ताओं को अपनी जरूरत की वस्तुओं को खरीदने के लिए अत्यधिक भुगतान करना होगा, यह स्थिति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए न केवल हानिकारक होगी बल्कि जनता के आक्रोश को जन्म देने वाली होगी।
अमेरिका और चीन के बीच ट्रेज्ड वार पिछले साल के जुलाई माह में शुरू हुए थें। चीन ने मनमानी बंद नहीं की, दुनिया के मंचों पर अमरिका के हितों पर छुरी चलाना जारी रखा तो फिर डोनाल्ड ट्रम्प ने भी अपने तरकस से तीर निकाल लिए। अब तक अमेरिका तीन बार चीन की वस्तुओं पर टेरिफ यानी शुल्क की बढोतरी कर चुका है। अमेरिका की इस नीति के खिलाफ चीन ने भी सीनाजारी दिखायी। दुष्परिणाम यह निकला कि दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ अरबों डालर के नये कर लगाये हैं। अमेरिका ने पिछले साल के सितम्बर माह में चीनी उत्पादों पर 200 अरब डॉलर के नये शुल्क लगाये थे। करीब पांच हजार से अधिक चीनी वस्तुएं ऐसी हैं जिस पर अमेरिका ने नये कर लगाये हैं। चीनी उत्पादों पर 25 प्रतिशत से ज्यादा कर लगाने का अर्थ यह हुआ कि चीनी वस्तुएं महंगी होंगी। जब चीनी वस्तुएं महंगी होंगी तब दुनिया के अन्य बाजारों की वस्तुओं की मांग बढेगी, दुनिया के अन्य बाजार भी प्रतिस्पर्द्धा में शामिल होंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि अमेरिका के अंदर में जो घरेलू वस्तुओं का उत्पादन है उसे शक्ति मिलने का अवसर प्राप्त हुआ है।
चीन की अर्थव्यवस्था अब दुनिया की प्रेरक अर्थव्यवस्था भी नहीं रही है, चीन की अर्थव्यवस्था अब दुनिया की सबसे बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था भी नहीं रही है। चीन की अर्थव्यवस्था भी स्थिर नहीं है। तो फिर चीन की वर्तमान अर्थव्यवस्था कैसी है। चीन की अर्थव्यवस्था उथल-पुथल वाली है। चीन की अर्थव्यवस्था मंदी और प्रतिबंधों सहित शुल्कों की मार से दब रही है, चीन की अर्थव्यवस्था का विकास और गति रूकी हुई है। चीन की अर्थव्यवस्था की विकास दर लगभग पांच प्रतिशत है जो कहीं से भी स्थिर अर्थव्यवस्था का प्रमाण नहीं है। दुनिया के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चीन अपनी अर्थव्यवस्था का सही चित्रण कभी करता नहीं है, चीन की अर्थव्यवस्था हमेशा झूठ और मनगंढत आधारित होती है। चीन में प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है नहीं, प्रेस और अभिव्यक्ति चीन की कम्युनिस्ट तानाशाही कैद में खड़ी रहती है। जबकि विदेशी मीडिया की भी चीन में उपस्थिति लगभग नगण्य है। इस स्थिति में चीन की अर्थव्यवस्था का सही आंकलन संभव ही नहीं हो सकता है। अर्थव्यवस्था आधारित चीन के कथन को ही स्वीकार करना पड़ता है।
चीनी वस्तुओं की गुणवत्ता भी एक बड़ा प्रश्न है। भारतीय बाजार में चीनी वस्तुओं का शिंकजा तो मजबूत है पर चीनी उत्पादों की गुणवता हमेशा निचले पायदान पर रहती है, जिसका नुकसान भारतीय उपभोक्ताओं को होता है, ऐसी ही स्थिति दुनिया के अन्य उपभोक्ता बाजारों की भी है। अमेरिका और चीन के बीच में जारी ट्रेड वार से दुनिया के अन्य बाजार भी प्रभावित है। इसलिए चीन और अमेरिका के बीच जारी ट्रेड वार का समाधान जरूरी है। पर क्या चीन अपनी हेकड़ी छोड़ने के लिए तैयार है?
विष्णुगुप्त
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