चीन और तालिबान का गठजोड़

चीन अफगानिस्तान के लोगों का अपने भाग्य और भविष्य का फैसला करने का सम्मान करता है। चीनी विदेश मंत्रालय की ओर से जारी यह वक्तव्य इस बात को पुख्ता करता है कि दोनों के बीच कितना याराना है। इतना ही नहीं यह भी बात हो चुकी है कि चीन अफगानिस्तान में तालिबानियों के साथ दोस्ताना सहयोग विकसित करना चाहता है। गौरतलब है कि जुलाई में तालिबान का एक प्रतिनिधिमण्डल चीन गया था और इसी प्रतिनिधिमण्डल से चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने उत्तरी चीन के तिआनजिन में मुलाकात की थी जबकि इस मुलाकात से पहले पाकिस्तान का विदेश मंत्री भी चीन के दौरे पर गया था। ये दोनों मुलाकाते इस बात का प्रमाण है कि चीन दुनिया के लिए कितना घातक देश है, जो न केवल आतंकियों का मनोबल बढ़ाता है बल्कि इन पर धन-बल का निवेश कर औरों के लिए एक हथियार खड़ा करता है। पाकिस्तान तालिबान का समर्थन करने वाला एक ऐसा देश है जिसके यहां आतंक की फैक्ट्रियां दशकों से चलती आ रही हैं और चीन ऐसी फैक्ट्रियों को खाद-पानी देने का काम भी करता रहा है। वैसे दुनिया में चीन पाकिस्तान के आतंकियों को लेकर क्या राय रखता है इसका खुलासा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में कई बार हो चुका है और इसका झटका कई बार भारत झेल भी चुका है। अब तो तालिबान के साथ उसका गठजोड़ रही सही कोर-कसर को भी पूरी कर देता है। गौरतलब है कि मुलाकात के दौरान तालिबान ने यह भी भरोसा दिलाया था कि वो अफगानिस्तान की जमीन से चीन को कोई नुक्सान नहीं होने देगा और चीन तालिबान युद्ध खत्म करने, शान्तिपूर्ण समझौते तक पहुंचने और अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में एक अह्म भूमिका निभाने की बात कह चुका है। यह इस बात के दस्तावेज हैं कि चीन अफगानिस्तान में तालिबानियों की सत्ता की इच्छा पाले हुए था और जिसका साथ देने में पाकिस्तान भी दो कदम आगे था। विध्वंस से भरी ताकतें ऐसे ही बड़ी नहीं होती बल्कि उसके पीछे चीन जैसी ताकतें खड़ी होती हैं।
29 फरवरी 2020 को जब कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शान्ति समझौते पर मोहर लगी थी और यह सुनिश्चित हो गया था कि अमेरिका अगले 14 महीने में अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा तब इस करार के दौरान भारत सहित दुनिया के 30 देशों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। हालांकि उस दौरान भी समझौते को लेकर संदेह गहरा हुआ था कि कहीं नाटो की वापसी के साथ तालिबानी एक बार फिर अपना रौद्र रूप न दिखाये। मगर दूसरी तरफ यह भी भरोसा था कि यदि ऐसी नौबत आती है तो जिन 3 लाख अफगानी सैनिकों को अमेरिका ने प्रशिक्षित किया वे 75 हजार तालिबानियों को उखाड़ फेकेंगे मगर सब कुछ उल्टा हो गया। ऐसा क्यों हुआ इसकी कई वजह हैं मगर चीन की प्रेरणा और उकसावे से युक्त तालिबान ने अफगानिस्तान को एक बार फिर बन्दूक की नोक पर काबिज कर लिया। 1996 के बाद यह दूसरी घटना है जब यहां तालिबान की हुकूमत होगी और दुनिया के तमाम देश अफगानिस्तान की इस दुर्दशा पर अफसोस में होंगे मगर चीन तो इसे अपनी लाटरी मान रहा है। चीन के दो मुंहेपन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर जहां उसकी ओर से यह बयान महीनों पहले आ चुका है कि अफगानिस्तान पर अफगान लोगों का अधिकार है उसके भविष्य पर भी अफगान लोगों का अधिकार होना चाहिए और दूसरी तरफ वही चीन अमेरिका और नाटो सेनाओं का जल्दबाजी में वापसी मान रहा है साथ ही फैसले की आलोचना भी कर रहा है और यहां तक कहा कि यह अमेरिकी नीति की असफलता दर्शाता है।
जाहिर है अफगानिस्तान में तालिबानियों की उपस्थिति दुनिया की विदेश नीति को एक नये सिरे से बदलने का काम करेगी। भारत का दुश्मन चीन और अमेरिका से भी दुश्मनी रखने वाला चीन दक्षिण चीन सागर में अपना दबदबा चाहता है। इन दिनों यहां भी अमेरिका और चीन के बीच तनातनी देखी जा सकती है। 19वीं सदी के मध्य में जब मध्य एशिया पर नियंत्रण के लिए ब्रिटेन और रूस की दुश्मनी जिसे द ग्रेट गेम कहा जाता है तब भी अफगानिस्तान इसका गवाह रहा है। आज के दौर में भी जिस तरह तालिबानियों के बूते चीन शेष दुनिया के साथ गेम खेल रहा है यह भी किसी द ग्रेट गेम से कम नहीं है। एक तरफ अमेरिका के दो दशक के प्रयास के साथ ढ़ाई हजार सैनिकों का खोना और 61 लाख करोड़ रूपए का सिफर नतीजा हो जाना साथ ही भारत समेत सभी को बेचैन करना तो वहीं दूसरी तरफ चीन इसे अपनी बड़ी सफलता समझ रहा है। गौरतलब है कि भारत अफगानिस्तान के साथ मौजूदा समय में एक अरब डॉलर का व्यापार करता है और तीन बिलियन डॉलर बीते एक दशक में निवेश कर चुका है। जिनेवा में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि अफगानिस्तान में भारत 4 सौ प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है। जाहिर है अफगानिस्तान में भारत एक व्यापक उद्देश्य के साथ खूबसूरत रास्ता बना रहा था जो पश्चिम एशिया तक जाता है मगर चीन की उकसावे वाली नीति ने सारे सपने मानो तोड़ दिये हों।
चीन की विस्तारवादी नीति और शेष दुनिया को परेशानी में डालने वाला दृष्टिकोण या फिर उसके आर्थिक हितों से जुड़ी दिलचस्पी भले ही तालिबानियों की सत्ता में आने से परवान चढ़े मगर वह इस चिंता से बेफिक्र नहीं हो सकता कि इस्लामिक गुट देर-सवेर और मजबूती लेंगे जिससे उसका घर भी जल सकता है। गौरतलब है कि शिनजियांग में उसके लिये कुछ मुसीबतें हो सकती हैं। पड़ताल बताती है कि अफगानिस्तान जमाने से विदेशी ताकतों के लिए मैदान का जंग रहा है और जोर-आजमाइश चलती रही है। अब इस बार इसमें चीन शुमार है। जाहिर है अफगानिस्तान की नई सरकार चीन को प्राथमिकता देगी और चीन आने वाले कुछ ही दिनों में पुनर्निर्माण कार्य में निवेश करता भी दिखेगा फिर धीरे-धीरे अपनी ताकत के बूते अफगानिस्तान को भी आर्थिक गुलाम बनायेगा जैसा कि पाकिस्तान में देखा जा सकता है। दक्षिण एशिया में चीन की दखल, आसियान देशों पर चीन का दबदबा और पश्चिम एशिया में भारत की पहुंच को कमजोर करने वाला चीन एक ऐसा छुपा हुआ जहर है जिसे दुनिया जानती तो है मगर फन कुचला जाना मुश्किल हो रहा है। चीन और तालिबान के गठजोड़ से यह जहर बढ़ेगा नहीं ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता। अन्तत: यह कह सकते हैं कि यह एक गम्भीर वक्त है भारत को अपनी कूटनीतिक दशा और दिशा को नये होमवर्क के साथ आगे बढ़ाने की फिर आवश्यकता पड़ गयी है।

-डॉ. सुशील कुमार सिंह

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