बचपन केवल अपने घर में ही नहीं, बल्कि स्कूली परिवेश में बुलीइंग यानी दबाव एवं हिंसा का शिकार है। यह सच है कि इसकी टूटन का परिणाम सिर्फ आज ही नहीं होता, बल्कि युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते यह एक महाबीमारी एवं त्रासदी का रूप ले लेता है। यह केवल भारत की नहीं, बल्कि दुनिया की एक बड़ी समस्या है। लंदन के लैंकस्टर यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट स्कूल के अर्थशास्त्र विभाग में असोसिएट रह चुकीं एम्मा गॉरमैन ने इस पर लम्बा शोध किया है। उन्होंने अपने इस शोध के लिए यूके के 7000 छात्र-छात्राओं को चुना। उन्होंने पहले उनसे तब बात की जब वे 14-16 की उम्र के थे। उसके बाद तकरीबन दस वर्षों तक उनसे समय-समय पर बातचीत की गई। गॉरमैन ने पाया कि किशोरावस्था की बुलीइंग यानी बच्चों को अभित्रस्त करना, उन पर अनुचित दबाव डालना या धौंस दिखाना, चिढ़ाना-मजाक उड़ाना या पीटना की घटनाओं ने बच्चों के भीतर के आत्मविश्वास, स्वतंत्र व्यक्तित्व, मौलिकता, निर्णायक क्षमता का दीया बुझा दिया, समस्याओं से लड़ने की ताकत को कमजोर कर दिया, पुरुषार्थ के प्रयत्नों को पंगु बना दिया।
स्कूली परिवेश एवं घर के माहौल में बच्चों के साथ होने वाली बुलीइंग का नकारात्मक प्रभाव वयस्क होने के बाद जब सामने आता है तो वहां एक ऐसी ढलान होती है जहां संभावना भरे इंसान का जन्म असंभव हो जाता है। हमें उन धारणाओं एवं मान्यताओं को बदलना होगा जो बुलीइंग की त्रासदी का आधार है, जिनको सन्दर्भ बनाकर हमने गलतफहमियों, सन्देहों और अपनी महत्वाकांक्षाओं की दीवारें इतनी ऊंची खड़ी कर दी कि बचपन ही संकट में आ गया है। आधुनिकता के इस युग में सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा खूब पढ़े और इंजीनियर, डॉक्टर या कोई आईपीएस अधिकारी बने इसके लिये माता-पिता शुरू से ही बच्चे से अतिश्योक्तिपूर्ण अपेक्षाएं रखते हैं और इसके लिये उसे अभित्रस्त करते हैं, उस पर अनुचित दबाव डालते हैं और हिंसक हो जाते हैं। इस बीच अभिभावक या शिक्षक बच्चे की क्षमता को परखना भूल जाते हैं, उस पर दबाव एवं धौंस जमाने, उसको डराने, चिढ़ाने, मजाक उड़ाने या पीटने के कारण बच्चा बेहतर रिजल्ट देने के बजाय कमजोर हो जाता है, उसकी नैसर्गिक क्षमताएं अवरुद्ध हो जाती हंै। इसके कारण किशोरावस्था में बुलीइंग का शिकार होने वाले बच्चों में से 40 प्रतिशत के मनोरोगी होने की आशंका रहती है। मनोरोग के लक्षण प्राय: तब उभरते हैं जब बच्चे 20-25 की उम्र में पहुंचते हैं। मनोरोगों में डिप्रेशन प्रमुख होता जिसके चलते उन्हें नौकरी मिलने में दिक्कत होती है।
गॉरमैन के इस अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आया कि लड़कियां भावनात्मक बुलीइंग का शिकार अधिक होती हैं जैसे अपने ग्रुप से अलग-थलग कर दिया जाना, दोस्तों का बातचीत बंद कर देना या किसी बात को लेकर चिढ़ाना। दूसरी तरफ लड़के हिंसक बुलीइंग का शिकार ज्यादा होते हैं। यह अध्ययन भले ही विदेश में किया गया हो, पर दुनिया भर के बच्चों पर लागू होता है। विकसित देशों में बच्चों को कानून के तहत कई अधिकार मिले हुए हैं। इसलिए उन्हें मां-बाप या किसी और रिश्तेदार की बुलीइंग का शिकार नहीं होना पड़ता है। भारत में तो बच्चे सबसे ज्यादा पिता, चाचा, बड़े भाई या दादा की बुलीइंग का शिकार होते हैं। हमारे यहां संयुक्त परिवार की परम्परा के कारण पारिवारिक अनुशासन का अच्छा-खासा आतंक रहा है। न सिर्फ परिवार बल्कि पास-पड़ोस की आंखें भी एक बच्चे के पीछे लगी रहती हैं। इसलिये बच्चे जो भी करते हैं, उसमें डर एवं भय व्याप्त रहता है।
गॉरमैन के इस शोध ने बालकों के साथ बुलीइंग की त्रासदी की तो पुष्टि की ही, इस बात को भी उजागर दिया कि है कि यह खतरा गहरा होता जा रहा है। बालक-बालिकाओं ने स्वीकार किया कि वे अनुचित दबाव या धौंस, चिढ़ाना-मजाक उड़ाना या पीटना, दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के शिकार हैं। उनसे पूछा गया था कि क्या आप यह अनुभव करते हैं कि आपसे किसी व्यक्ति ने शारीरिक, भावनात्मक अथवा अनुशासनात्मक जोर-जबर्दस्ती की है, किसी ने आपके साथ कोई क्रूर या अमानवीय व्यवहार किया है? ध्यान देने कि बात यह है कि बालक-बालिकाओं को बुलीइंग बड़ी मानसिक पीड़ा पहुंचाती है। बच्चा अपनी मर्जी से कुछ भी करता है या अपनी आंखों से दुनिया देखने की कोशिश करने लगता है तो उसे मौखिक उपदेश से लेकर पिटाई तक झेलनी पड़ती है। उसे वह बनने की कवायद करनी पड़ती है जो घर के लोग चाहते हैं। इस तरह उसकी इच्छा, कल्पनाशीलता और सर्जनात्मकता की बलि चढ़ जाती है। घर में आमतौर पर संवादहीनता का माहौल रहता। मां-बाप बच्चों से बात नहीं करते। उसकी शिकायतों, उसकी परेशानियों को जानने की कोशिश नहीं करते। ऐसे में बच्चे के भीतर बहुत सी बातें दबी रह जाती हैं जो धीरे-धीरे कुंठा का रूप ले लेती हैं, जो आगे जाकर बच्चों को मनोरोगी बना देती है।
शोधकर्ता का मानना है कि स्कूल और घर दोनों ही जगह ताकत का खेल चल रहा है। स्कूल का प्रबंधन तो अपना सारा रोबदाब बच्चों को ही दिखाता है। लेकिन घर में बालक माता-पिता के कुल दीपक और बुढ़ापे के सहारे हैं, अत: वे उन्हें सक्षम बनाने एवं दुनिया का अनोखा बालक का दर्जा दिलाने के लिये अपने व्यवहार को ही कूट एवं हिंसक बना देते हैं। यदि माता-पिता किसी पद पर हैं तो बच्चों का चरित्र उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। दोनों स्थानों में परिवार और स्कूल में लीक से हटने पर बच्चों के लिये दण्ड की व्यवस्था है। लड़कियों को धमकी दी जाती है कि यदि उन्होंने कोई गलती की तो उसका गंभीर परिणाम भुगतना पड़ेगा। विडम्बना यह है कि भारतीय बालक अपने अधिकारों से अनभिज्ञ हैं। यह काम शिक्षकों और पालकों को करना चाहिए किन्तु वे दोनों ही इनके प्रति उदासीन हैं। वे बाल अधिकार को अपनी सत्ता के लिए धमकी मानते हैं। संविधान में बच्चों के जीवन, विकास और सुरक्षा की व्यवस्था है।
दण्ड को बालकों के अधिकारों का अतिक्रमण माना जाता है। लेकिन इन कानूनों के होते हुए भी अज्ञानता के कारण बच्चे उनका लाभ नहीं ले पाते। इस गंभीर होती समस्या से निजात पाने के लिये एक विस्तृत बाल संहिता तैयार की जाए और उसमें बालक के अधिकारों को शामिल किया जाए। हमें इसकी बड़ी जरूरत है। क्योंकि हमारे देश के लोगों के मन में बच्चों को लेकर महत्वाकांक्षाएं बड़ी गहराई से जमी हुई हैं। यही कारण है कि हमारे देश का बचपन संकट एवं अंधेरों से घिरा हैं। बचपन को इस संकट से मुक्त करने एवं बुलीइंग की त्रासदी से मुक्ति के लिये समय समय पर प्रयत्न होते रहे हैं। बी. आर. कृष्णन के सभापतित्व में विशेषज्ञों की एक समिति ने ‘चिल्ड्रन कोड बिल-2000’ तैयार किया था। इसमें सुझाया गया है कि एक राष्ट्रीय तथा सभी राज्यों के अपने-अपने कमीशन बनाए जाएं। ये कमीशन महिला कमीशन जैसे हों। कोड बिल के पालकों के इस दायित्व पर जोर दिया गया है कि वे बच्चों के साथ प्यार और दयालुता का व्यवहार करें। परिवारों और स्कूलों में संवाद का माहौल बनना चाहिए ताकि बच्चों का स्वाभाविक विकास हो सके। ताकि बचपन के सामने आज जो भयावह एवं विकट संकट और दुविधा है उससे उन्हें छुटकारा मिल सके।
ललित गर्ग
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