आरक्षण के नाम पर छलावा

Cheating On The Name Of Reservation

आसामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने के लिए (Cheating On The Name Of Reservation) संविधान में 124वां संशोधन संबंधी विधेयक, 2019 हाल ही में संसद के दोनों सदनों में पास हो गया है। लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी यह विधेयक सर्वसम्मति से पारित हो गया। इस विधेयक में संशोधन के तमाम प्रस्ताव गिर गए। ज्यादातर विपक्षी पार्टियों ने विधेयक को समर्थन दिया, लेकिन जिस तरह से सरकार यह विधेयक हड़बड़ी और बिना किसी तैयारी के लाई, उस पर सभी को एतराज था। संसद में लंबी बहस हुई और विपक्ष ने कानून की बेहतरी के लिए कई संशोधन सुझाए, विधेयक को स्टैंडिंग कमेटी या फिर सिलेक्ट कमेटी के पास भेजे जाने की मांग उठी, लेकिन सरकार किसी भी बात पर राजी नहीं हुई। यही वजह है कि ये विधेयक उसी रूप में पारित हो गया, जिस रूप में सरकार ने इसे संसद में पेश किया था। विधेयक को राष्ट्रपति ने भी अपनी मंजूरी दे दी है। इसके बाद सरकार ने कानून को लेकर एक अधिसूचना जारी कर दी है। अधिसूचना में यह स्पष्ट किया गया है कि आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण, मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के अतिरिक्त है। सरकार ने उससे कोई छेड़छाड़़ नहीं की है।

कानून बन जाने के बाद, मोदी सरकार अब इसे अपनी सबसे बड़ी जीत बतला रही है। सरकार का कहना है कि (Cheating On The Name Of Reservation) उसने देश के सामान्य वर्ग के गरीब लोगों के लिए बहुत बड़ा तोहफा दिया है। सरकार के तमाम दावों से इतर यदि विधेयक के प्रावधानों पर नजर डालें, तो मालूम चलता है कि ये आरक्षण क्या वाकई में गरीब सवर्णों के लिए है ? या फिर सरकार आरक्षण के नाम पर सामान्य वर्ग के लोगों को बेवकूफ बना रही है। उनके साथ छलावा कर रही है। सरकार ने सवर्णों के आर्थिक पिछड़ेपन का जो पैमाना तय किया है, सबसे पहले उस पर ही सवाल हैं। विधेयक के मुताबिक जिन लोगों की पारिवारिक सालाना आमदनी आठ लाख रुपए से कम है, उन्हें गरीब माना जाएगा और वे आरक्षण के इस प्रावधान का लाभ ले सकेंगे। यानी सरकार की नजर में तकरीबन 66 हजार रुपए महीने की आमदनी वाले सामान्य वर्ग के लोग गरीब हैं और वे आरक्षण के दायरे में है। जाहिर है कि इस तरह तो सामान्य वर्ग के ज्यादार लोग आरक्षण के दायरे में आ जाएंगे। जो वास्तव में गरीब हैं, उन्हें कोई फायदा नहीं मिलेगा।

उनका हक, उन्हीं के वर्ग के लोग छीन लेंगे। एक अहम बात और, सरकार आठ लाख की सालाना आमदनी वाले लोगों को आर्थिक रुप से पिछड़ा मान रही है, लेकिन इनकम टैक्स की सीमा ढाई लाख रुपए है। इन सब बातों को यदि छोड़ भी दें, तो सबसे बड़ा सवाल, सरकार के पास नौकरियां कहां हैं ? सरकार करोड़ों लोगों को नौकरी देने का दम भर रही है, पर हकीकत इससे उलट है। मोदी सरकार के पिछले साढ़े चार साल के कार्यकाल के दौरान देश में बेरोजगारी दर 8-9 फीसद तक जा पहुंची है और शिक्षित बेरोजगारी दर 16 फीसद के आसपास है। नौकरियां बढ़ने की बजाय सरकारी और निजी कंपनियों दोनों में नौकरियां लगातार कम हो रही हैं।

दूसरा बड़ा सवाल, सरकार ने सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान किया है। जबकि सच बात तो यह है कि देश के संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान ही नहीं है। साल 1991 में जब पीवी नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण देने का प्रस्ताव किया, तो सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। अपने इस ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने उस वक्त साफ कहा था कि संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक गैर-बराबरी दूर करने के मकसद से रखा गया है, लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं किया जा सकता। इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के नाम से चर्चित इस मामले में शीर्ष अदालत का कहना था कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना, संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है।

अपने फैसले में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान की विस्तृत व्याख्या करते हुए अदालत ने आगे कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में आरक्षण का प्रावधान समुदाय के लिए है, न कि व्यक्ति के लिए। आरक्षण का आधार आय और संपत्ति को नहीं माना जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले की रोशनी में राजस्थान, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों की सरकारों के इसी तरह के फैसलों को उन राज्यों की हाई कोर्टस ने खारिज कर दिया। इन सरकारों की कोई भी दलील अदालत के सामने टिक नहीं पाई।

मोदी सरकार ने बिना सोचे-समझे, सिर्फ चुनावी फायदा उठाने के वास्ते सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर आरक्षण तो दे दिया है, लेकिन यह मामला एक बार फिर कानूनी दावपेंच में फंस सकता है। मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह पेश आएगी कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उलट फैसला नहीं ले सकती। ना ही संविधान के साथ कोई छेड़छाड़ कर सकती है। साल 1973 में केशवानंद भारती बनाम राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि संसद को संविधान संशोधन का अधिकार है, पर संशोधन के नाम पर वह संविधान के बुनियादी विचार या संरचना को नहीं पलट सकती। यही नहीं इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला देते हुए साफ कहा था कि किसी भी समुदाय को पिछड़े वर्ग की फेहरिस्त में शामिल करने से पहले नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास (एनसीबीसी) की राय लेना जरूरी है। आयोग की राय सरकार पर बाध्यकारी है और अगर सरकार, आयोग की राय से इतर जाकर किसी समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल करती है, तो उसे इसके लिए विशेष कारण दर्ज करने चाहिए। लेकिन मोदी सरकार ने संविधान संशोधन विधेयक लाने से पहले ऐसा कुछ नहीं किया। बस, सीधे विधेयक ले आई।

यह बात सच है कि हमारे संविधान ने सरकार को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए विशेष उपबंध बनाने का हक दिया है। लेकिन इसकी पहली शर्त यह है कि लाभ पाने वाला समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हो। यही नहीं सरकार के पास उसके पिछड़ेपन के आंकड़े भी होने चाहिए। आरक्षण देने से पहले सरकार को उस समुदाय का सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने का सर्वे जरूर करवाना चाहिए। यह बात भी देखना जरूरी है कि सरकारी नौकरियों में उनका कितना प्रतिनिधित्व है ? संविधान के अनुच्छेद 16 (4) और 15 (4) में साफ तौर पर कहा गया है कि सरकार, समाज के सर्वाधिक निचले स्तर पर जीवनयापन करने वाले समूहों की पहचान करे। जाहिर है कि यह एक सतत प्रक्रिया है। इसके लिए नए पैमाने इख्तियार करने होंगे, पर देश में कोई भी सरकार रही हो वह इसके प्रति जरा सी भी संजीदा नहीं। किसी जाति के वोट पाने के लिए वह बिना सोचे-समझे उसे आरक्षण का झुनझुना पकड़ा देती है। जबकि बीते एक-डेढ़ दशक में देश के अंदर आरक्षण से संबंधित ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें सरकार को अदालत में मुंह की खानी पड़ी। सरकार ने बिना सोचे-समझे किसी वर्ग, जाति को आरक्षण दिया और उसे अदालत ने खारिज कर दिया।

मसलन साल 2004 में आंध्र प्रदेश सरकार ने पिछड़े वर्ग के कोटे में से मुसलमानों को पांच फीसदी आरक्षण देने का एलान किया, लेकिन यह फैसला अदालत में नहीं टिक पाया। अदालत ने इसे रद्द कर दिया। यही हाल राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा-जाट और गुजरात में पाटीदार आरक्षण का हुआ। आरक्षण की कोई भी ऐसी कोशिश जो संविधान और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों से उलट होगी, वह अदालत में आकर दम तोड़ देगी। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के एक दिन बाद ही, 124वें संविधान संशोधन को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिल गई है। यूथ फॉर इक्वलिटी नाम के एक संगठन ने अदालत में याचिका दायर कर दावा किया है कि यह संशोधन, संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करता है। इंदिरा साहनी मामले में नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा था कि आरक्षण का एक मात्र आधार आर्थिक स्थिति नहीं हो सकती। लिहाजा अदालत इस मुद्दे पर तत्काल सुनवाई कर, आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग को नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण दिये जाने वाले इस संशोधन को निरस्त करे। जाहिद खान

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