सस्ते हुए तेल का भंडारण जरूरी

Cheap oil storage is important
बाजारों में क्रय-विक्रय थम जाने से भारत समेत दुनियाभर के शेयर बाजारों के हाल बेहाल हैं। इसका सबसे ज्यादा असर ऑटोमोबाइल क्षेत्र में पड़ा हैं। मोटरकारों के पहियों और रेल में बेक्र लग जाने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की मांग घट गई है। नतीजतन कच्चा तेल घटकर प्रति बैरल 14 अमेरिकी डॉलर अर्थात 1064 रुपए प्रति बैरल रह गया है। एक बैरल में 159 लीटर तेल होता है। इस हिसाब से प्रति लीटर तेल की कीमत 06.69 रुपए बैठती है।
कोरोना वायरस ने जहां पूरी दुनिया में मानव स्वास्थ्य को खतरे में डाल दिया है, वहीं वैश्विक अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाने लगी है। बाजारों में क्रय-विक्रय थम जाने से भारत समेत दुनियाभर के शेयर बाजारों के हाल बेहाल हैं। इसका सबसे ज्यादा असर ऑटोमोबाइल क्षेत्र में पड़ा हैं। मोटरकारों के पहियों और रेल में बेक्र लग जाने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की मांग घट गई है। नतीजतन कच्चा तेल घटकर प्रति बैरल 14 अमेरिकी डॉलर अर्थात 1064 रुपए प्रति बैरल रह गया है। एक बैरल में 159 लीटर तेल होता है। इस हिसाब से प्रति लीटर तेल की कीमत 06.69 रुपए बैठती है। पानी की किसी भी ब्रांड बोतल के भाव से भी आधी कीमत है। चूंकि इस समय पूरी दुनिया कोरोना वायरस की गिरफ्त में होने के कारण लॉकडाउन हैं। इसलिए तेल उत्पादों के उपयोग में भारी गिरावट दर्ज हुई है। इस ऐतिहासिक गिरावट का लाभ भारत सरकार कच्चे तेल का अतिरिक्त भंडारण करके भविष्य की अर्थव्यवस्था मजबूत बनाए रखने का काम कर सकती है। हालांकि पेट्रोलियम मंत्री धमेंद्र प्रधान ने इस सुनहरे अवसर को समझ लिया है और इस मौके का फायदा उठाने की कोशिशें भी तेज कर दी है। उन्होंने सरकारी तेल कंपनियों को हिदायत दी हैं कि वह बड़ी मात्रा में तेल की खरीदी कर भंडारण में जुट जाएं ?
चीन में कोरोना कोविड-19 की दिसंबर-2019 में जब शुरूआत हुई थी, तो यह अंदाजा लगाया गया था कि इसका असर चीन में ही दिखाई देगा, लेकिन इस सूक्ष्म-जीव ने देखते-देखते दुनिया की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। पूरी दुनिया में कच्चा तेल वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं की गतिशीलता का कारक माना जाता है। ऐसे में यदि तेल की कीमतों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है, तो इसका प्रत्यक्ष कारण है कि दुनिया में औद्योगिक उत्पादों की मांग घटी है। इस मांग का घटना इस बात का संकेत है कि समूचे विश्व पर मंदी की छाया मंडरा रही है। अमेरिका में कोरोना संकट के चलते तेल की मांग शून्य दर्ज की गई है। दुनिया का एक तिहाई तेल उत्पादन करने वाले ओपेक देशों के समूह में भी खलबली है। क्योंकि इन देशों की कमाई घटती जा रही है। इस कारण इन देशों के नागरिक औद्योगिक-प्रौद्योगिकी उत्पाद खरीदने की सार्म्थ्य खो रहे हैं।
भारत 80 प्रतिशत कच्चा तेल अरब देशों से आयात करता है। तेल की कीमतें घटना उपभोक्ता के लिए अच्छी बात तब है, जब भारतीय तेल कंपनियां कच्चे तेल की घटी कीमतों के अनुपात में ईंधनों के दाम घटा दें। किंतु कंपनियों का अर्थशास्त्र भारत सरकार की इच्छा के अनुसार चलता है। कहने को तो तेल की खुदरा कीमतें तय करने की स्वतंत्रता कंपनियों को है, किंतु वास्तविक नियंत्रण केंद्र सरकार का ही रहता है। सरकार कीमतें इसलिए नहीं घटाती, क्योंकि इसकी बिक्री से उसे बड़ा लाभ होता है। राज्य सरकारें भी तेल खरीदी पर अनेक कर लगाकर अपना खजाना भरती हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार भी तेल की कीमतों को प्रभावित करता है। कच्चे तेल की गिरती कीमतों के लिए किसी एक कारक या कारण को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है। एक वक्त था जब कच्चे तेल की कीमतें मांग और आपूर्ति से निर्धारित होती थीं। इसमें भी अहम भूमिका ओपेक देशों की रहती थी। ओपेक देशों में कतर, लीबिया, सऊदी अरब, अल्जीरिया, ईरान, ईराक, इंडोनेशिया, कुबैत, वेनेजुएला, संयुक्त अरब अमीरात और अंगोला शामिल हैं।
दरअसल अमेरिका का तेल आयातक से निर्यातक देश बन जाना,चीन की विकास दर धीमी हो जाना, शैल गैस क्रांति, नई तकनीक, तेल उत्पादक देशों द्वारा सीमा से ज्यादा उत्पादन, ऊर्जा दक्ष वाहनों का विकास और इन सबसे आगे बैटरी तकनीक से चलने वाले वाहनों का विकास हो जाने से कच्चे तेल की कीमतें तय करने में तेल निर्यातक देशों की भूमिका नगण्य होती जा रही है। भारत जिस तेजी से सौर ऊर्जा और पराली (धान के डंठल) से एथनॉल बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, उसके चलते कुछ सालों में हर प्रकार के ईंधन के क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर हो जाएगा। इसके लिए भारत राजस्थान के बाड़मेर में 43 हजार करोड़ रुपए की लागत से रिफाइनरी के निर्माण में लगा है। इस आधुनिकतम रिफाइनरी में 90 लाख मैट्रिक टन पेट्रो-केमिकल बनाने की क्षमता होगी। इसी के साथ-साथ 12 ऐसे संयंत्र तैयार किए जा रहे हैं, जिनमें पराली से एथनॉल बनाया जाएगा।
एथनॉल और बॉयो फ्यूल के उपयोग को बढ़ावा देकर यह उम्मीद की जा रही है कि भारत में तेल के आयात की मात्रा बहुत कम हो जाएगी। दो से तीन साल के भीतर इन संयंत्रों के तैयार होने की उम्मीद है। इनके शुरू होने के बाद पराली खेतों में जलाए जाने से जो प्रदूषण वायुमंडल में फैलता हैं, उसमें कमी आएगी। साथ ही, पराली के बिकने का सिलसिला शुरू होगा। इससे किसानों की आय में वृद्धि होगी। इस लिहाज से पराली को ईंधन में बदलने के उपाय देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद उपयोगी साबित होंगे। हालांकि कोरोना महामारी से जो देशबंदी चल रही है, उसने स्पष्ट संकेत दिया है कि वायु प्रदूषण पराली के जलाने से नहीं, बल्कि सड़कों पर लाखों की तादाद में वाहनों के दौड़ने से होता है। खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पसवान ने राज्यसभा के बीते सत्र में कहा था कि तेल आयात पर निर्भरता कम करने के लिए गन्ना से मिलने वाले एथनॉल का पेट्रोल व डीजल में मिलाने की मात्रा को चरणबद्ध तरीके से बढ़ाया जा रहा है। तेल के इस तिलिस्म में कूटनीति भी अपना काम कर रही है।
रूस ने तुर्की पर इस्लामिक स्टेट ऑफ़ सीरिया एंड ईराक के साथ मिलकर तेल का व्यापार करने का सनसनीखेज आरोप लगाया है। हालांकि तुर्की इससे इनकार कर रहा है। तेल की गिरती कीमतों के लिए मंदी पड़ी अन्य आर्थिक गतिविधियां भी जिम्मेदार हैं। एक तरफ शैल गैस के उत्पादन से अमेरिका तेल निर्यातक देश बन गया। वहीं सऊदी अरब और कुछ अन्य खाड़ी देश अपनी जरूरत और वैश्विक मांग के साथ कूटनीति के लिए भी तेल का खेल, खेलते रहते हैं। तेल को इसी कूटनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए सऊदी अरब ने रूस के साथ कच्चे तेल की संधि तोड़ दी है। अमेरिका ने तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की दृष्टि से ही चीन को तेल बेचने की घोषणा की है। अमेरिका इस तेल को सस्ती दरों पर चीन को नहीं बेच पाए, इस कूटनीति के चलते ही सऊदी अरब ने तेल का उत्पादन बढ़ा दिया है। इन वजहों से ही लग रहा है कि तेल को लेकर दुनिया में ‘प्राइस-वार’ शुरू हो गया है। गोया, भारत बड़ी मात्रा में कच्चे तेल का भंडारण कर लेता है तो कोरोना महामारी के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा है, उसकी एक सीमा तक भरपाई इस सस्ते तेल से हो सकती है।
प्रमोद भार्गव
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