कोरोना काल में पक्षी प्रजातियों के व्यवहार में आया परिवर्तन

Bird in Corona Period

पंछी, नदियां, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके…

गुरुग्राम(सच कहूँ/संजय मेहरा )। पंछी, नदियां, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके, सरहद इंसानों के लिए है-सोचो…तुमने और मैंने क्या पाया…इंसा हो के…। फिल्म ‘रिफ्यूजी’ का यह गीत इंसानों के बीच सरहदों को बताता है और यह भी ज्ञात कराता है कि पक्षियों, जीव-जन्तुओं के लिए कोई सरहद नहीं हो सकती। वे पूरी दुनिया के नील गगन में और जमीन पर आ-जा सकते हैं। यहां हम किसी देश की सरहद का तो नहीं, पर उन जीव-जन्तुओं व मनुष्य के बीच की दूरी को लॉकडाउन में हुई नजदीकी का अहसास करा रहे हैं। कोरोना संक्रमण के चलते किए गए लॉकडाउन में मनुष्य की जिंदगी थमी रही।

लॉकडाउन में शांत पड़ी इमारतों में घोंसले बना रहे ये जीव-जन्तु

इस दौर में जीव-जन्तुओं को इस शांत आबादी के बीच रहने की आजादी मिल गई। जो जीव-जन्तु जंगलों में रहते थे, उन्होंने भी कंक्रीट के जंगलों की इस शांत दुनिया की तरफ रुख किया। रिहायशी क्षेत्रों में जीव जंतुओं के प्राकृतिक व्यवहार में बहुत से परिवर्तन देखे गए। गुरुग्राम समेत हरियाणा के हिसार व अन्य कई क्षेत्रों में कोरोना काल के दौरान ततैया, चींटियां, मच्छर, मक्खियां, तितलियां, भंवरे, तिल चट्टा, तिल हाक मोथ, तम्बाकू सुंडी, सैनिक कीट, टमाटर फल छेदक, मधुमक्खी, मेगा काइलिड मक्खी और कुछ अन्य कीट पतंगे रिहायशी क्षेत्रों में देखे गए।

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लॉकडाउन के दौरान इन पक्षियों व जीव-जंतु को लेकर जीव विज्ञानी डॉ. राम सिंह से सच कहूँ संवाददाता ने विशेष बातचीत की। बता दें कि 20 से अधिक पक्षी प्रजातियों की गतिविधियों का अवलोकन कर चुके चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार में कीट विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रह चुके हैं। रॉयल एंटोमॉलजिकल सोसायटी लंदन के फेलो पर्यावरण एवं जीव विज्ञानी डॉ. राम सिंह का कहना है कि इन पक्षियों का लॉकडाउन से पहले सामान्य स्थिति में दिखाई देना नगण्य यानी ना के बराबर था।

मनुष्यों के साथ सामंजस्य बिठाना चाहते हैं ये जीव-जंतु

जीव विज्ञानी डॉ. राम सिंह ने बताया कि इतनी सारी प्रजातियों के जीव-जन्तुओं का इस दौरान दिखाई देना यही दर्शाता है कि वो भी मनुष्यों के साथ सामंजस्य बिठाना कर अपना जीवन यापन करना चाहते हैं। इन पक्षियों में से कुछ पक्षी बुलबुल, कौआं और छोटे कपोत अपनी भावी पीढ़ी के लिए घोंसले बनाते नजर आए। एक छोटे कपोत ने तो यहां सेक्टर-108 स्थित रहेजा वेदांता सोसायटी की इमारत में आपातकालीन निकास द्वार पर लगे डोर क्लोजर पर ही घोंसला बना डाला, उसमें अंडे भी दिए। आमतौर पर ऐसा नहीं देखा जाता। कुछ वृक्षों पर बुलबुल के घोंसले भी देखे गए। कौओं के घोंसले ऊंचे वृक्षों की ऊपरी टहनियों पर और कबूतरों ने इमारत के अंदर सुरक्षित स्थलों को घोंसलों के लिए चुना।

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निश्चिंत होकर सोयी बिल्ली तो चमगादड़ भी चमके

संपूर्ण लॉकडाउन में इमारतों के प्रवेश द्वार पर जहां मनुष्य की चहल-कदमी न के बराबर थी, वहां पर एक बिल्ली को निश्चिंत होकर आराम करते हुए देखा गया। कुछ पक्षियों के खाली अंडों के खोल भी इधर-उधर नजर आए। इससे यह साबित होता है कि यह जगह उन पक्षियों का पूर्णतया लॉकडाउन में ठिकाना रहा है। यहां चमगादड़ों की उपस्थिति भी हैरान करने वाली थी। डॉ. राम सिंह कहते हैं कि जीव विज्ञानी होने के कारण उन्होंने यह अनुमान लगाया कि कीट प्रजातियां स्थिर रहती हैं। वातावरण में छोटी-मोटी विविधता के कारण इनकी जीवन शैली पर कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि इनकी उत्पत्ति अति प्राचीन काल से है। ये हर प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आपको ढाल सकते हैं।

वर्षों बाद नजर आई नोलिड मोथ कैटरपिलर

काफी साल बाद पहली बार नोलिड मोथ कैटरपिलर की जामुन व अन्य पेड़ों पर विस्तृत गतिविधियां देखी गई। यह सुंडी आकार में बहुत ही विचित्र दिखाई देती है, क्योंकि इसके सिर के ऊपर गोलाकार आकृति पक्षियों से बचने के लिए विद्यमान है। पूर्णबन्दी में इस कीट का इतनी मात्रा में दिखाई देना बहुत ही अद्भुत है। मानव को अन्य जीवों के साथ समान रूप से सामंजस्य बिठाकर प्रकृति के साथ जीवन यापन करना चाहिए।

450 मिलियन वर्ष पहले से हैं कीट

डॉ. राम सिंह के मुताबिक कीटों का जन्म इंसान के जन्म होने से 450 मिलियन साल पहले का है। इंसान एक मिलियन साल पहले ही आया है। अब तक पांच बार यह धरती मनुष्य विहीन हो चुकी है और अब छठी बार की तैयारी है। पिछले 50 हजार साल से तो इंसानी जीवन दुविधा में ही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि मानव ने प्रकृति और जीव-जन्तुओं को बहुत सताया है। पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाया है। यह नहीं सोचा कि प्रकृति जब अपना हिसाब करती है तो सब बराबर कर लेती है। ऐसे कई कोरोना अभी आएंगे। या तो मिलकर संतुलन बनाओ, सबको बराबर करो, नहीं तो अपना नुकसान झेलने को तैयार रहो।

कंक्रीट के जंगलों ने दिया है दर्द

बेशक आज हम गगनचुंबी अट्टालिकाओं में रहते हों, लेकिन हमने इन सुख-सुविधाओं के लिए 50 प्रतिशत प्लांट और 80 प्रतिशत जानवरों के स्पेस खत्म कर दिए हैं। हमारी जनसंख्या .01 प्रतिशत (बिन्दू जीरो एक प्रतिशत) है और हमने 80 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र शहरीकरण के नाम पर कवर कर लिया है। हमें 70 साल पहले की अवस्था में जाने के लिए 10 लाख साल लगेंगे। विकास की आंधी में हमने प्रकृति से खिलवाड़ किया। कंक्रीट के जंगल खड़े किए, मगर अफसोस कि इन जंगलों ने ही हमें दर्द दिया है।

 

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