भारत का समाज जाति आधारित है और यहां चुनावों में जाति को काफी महत्व दिया जाता है। राजनीति भी जाति के प्रभाव से मुक्त नहीं है और टिकटों के बंटवारे से मतदान तक में जाति का प्रभाव नजर आता है। देश में छात्र संघों के चुनाव से लेकर पंच, सरपंच, नगर पालिका, विधान सभा और लोकसभा के चुनावों में प्रत्यक्ष जातीय प्रभाव को देखा जा सकता है। कोई भी चुनाव इससे अछूता नहीं है। समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने लोकतंत्र के इस कलंक को काफी नजदीकी से देखा। लोहिया ने देश में जाति तोड़ों का नारा दिया मगर उनके देहांत के बाद यह नारा भी दफन हो गया और मुलायम, लालू और पासवान सरीखें उनके अनुयायियों ने जाति को अपनाकर खुद को राजनीति में जिंदा रखा।
भारत में चुनावी लोकतंत्र जातियों पर टिका है यह सोलह आना सच है। आजादी के बाद से ही भारत में जातियों का प्रभुत्व देखने को मिल रहा है। ना नुकुर करते करते भी यह सच है कि वोट पर जाति का असर पड़ता है। आप मतदाता हों या उम्मीदवार, मतदान पर आपके समुदाय का असर पड़ता है। इस देश की सबसे बड़ी कमजोरी है जन्म पर आधारित जातिवाद। हालाँकि राजनीतिक दल स्वयं को जाति से ऊपर उठकर बातें करते है मगर चुनाव आते ही टिकटों का बंटवारा जाति के प्रभाव को देखकर करते है। लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दल जातियों के बीच बंटते नजर आ रहे हैं। चुनाव में विकास एवं पार्टी की नीतियों एवं कार्यक्रमों की चर्चा न होकर किस पार्टी के खेमे में कौन-कौन जातियां जा रही हैं इसी का आकलन करके लोग प्रत्याशियों को जीत दिलाने एवं हराने में जुटे हैं। पहले चुनावों में क्षेत्र के विकास की बात होती रही है, लेकिन अब चुनाव की घोषणा के साथ ही लोग जातियों को पार्टी का समर्थक बताकर उस पार्टी के प्रत्याशी के खेमे में उस जाति के वोटरों को गिनती शुरू कर दे रहे हैं। अलग-अलग जातियों के आधार पर राजनैतिक पार्टियां अपना एजेंडा तैयार करती हैं। राजनैतिक दल वोट बैंक के लिए किसी भी क्षेत्र से उम्मीदवार को सिर्फ जाति विशेष की आबादी के आधार पर ही टिकट देते हैं।
देश में जाट, यादव, कुर्मी राजपूत, गुर्जर, मीणा व ब्राह्मण और दलित समुदाय राजनीतिक रूप से सबसे मुखर और ताकतवर जातियां हैं। ये जातियां ही तय करती हैं कि सत्ता किसके पास होगी। प्रमुख दल भले ही टिकाऊ एवं जिताऊ उम्मीदवार की तलाश में जुटे हुए हैं। एक सर्वे के अनुसार भारत में लगभग 3000 जातियां हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी में दलितों की हिस्सेदारी लगभग 20.14 प्रतिशत है। हर एक क्षेत्र में जाति का प्रभाव जीत-हार का फैसला करता है, यही कारण है कि राजनैतिक पार्टियां हर क्षेत्र से जाति के आधार पर ही लोगों को चुनावी मैदान में उतारती हैं।
हिंदी पट्टी के जातीय समीकरण पर गौर करें तो यूपी, बिहार, हरियाणा, राजस्थान आदि ऐसे राज्य है जहाँ जाति के आधार पर राजनीतिक पार्टियां बनती बिगड़ती रही है। जाट नेता चैधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी और दावा किया था की यह पार्टी किसानों की पार्टी है मगर सच यही है की इस पार्टी की बुनियाद जाटों पर आधारित थी जिसका प्रभाव उत्तर भारत के राज्यों पर विशेष रूप से देखा गया। राजस्थान में कुम्भाराम आर्य भी इस पार्टी से जुड़ गए थे। जब तक दोनों नेता जीवित रहे तब तक उनके प्रदेशों में जाटों का दबदबा रहा। उनके देहांत के बाद यह जातीय पार्टी बिखर गई। बिहार में लालू यादव की पार्टी भी यादवों के प्रभाव पर आधारित है। यही हालत मुलायम और अखिलेश की पार्टी का है।
यादवों के भरपूर समर्थन की बदौलत आज समाजवादी पार्टी का अस्तित्व है। मायावती का आधार भी दलित है। लालू, मुलायम और मायावती जाति की राजनीति के सहारे ही सत्ता की मलाई खाते रहे हैं। ओवेसी मुस्लिम मतों के आधार पर चुनाव जीतते है। जाति का प्रभाव उत्तर भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारत में भी समान रूप से देखा जा सकता है। कर्नाटक सरकार ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा दे दिया। कर्नाटक में सरकार बनाने में लिंगायतों की अहम भूमिका होती है। सत्ता पाने के लिए राजनैतिक पार्टियां चुनाव आते ही वोट बैंक के लिए लोगों को रिझाना शुरू कर देती है। केरल में मुस्लिम लीग सहित ईसाई समुदाय ने अपनी अलग पार्टी बना रखी है। बताया जाता है कि भारत में पहली बार कमोवेश जातीय दीवार टूटती नजर आयी जब नरेंद्र मोदी के नाम पर लोगों ने मतदान किया। इस चुनाव में काफी हद तक जातीय वर्जनाएं ध्वस्त हुई जो हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ कही जा सकती है।
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।