प्लास्टिक कचरे से मुक्ति का अभियान

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मानव जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा बन गया प्लास्टिक पर्यावरणीय संकट के साथ मनुष्य के जीवन के लिए भी बड़ा खतरा बनकर उभरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में प्लास्टिक कचरे से मुक्ति का अभियान छेड़ने का शंखनाद किया है। गांधी जयंती दो अक्टूबर से एक बार उपयोग में आने वाली प्लास्टिक की वस्तुओं के त्यागने की शुरूआत होगी। इनमें खासतौर से पेयजल और शीतल पेय के अलावा दैनिक उपयोग में लाई जाने वाली वे प्लास्टिक की थैलियां हैं, जिनके आसान विकल्प उपलब्ध हैं। इस मुहिम का ऐलान प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भी किया था।

तय है, स्वच्छ भारत के लिए जो शौचालयों के निर्माण का बड़े पैमाने पर अभियान चलाया गया था, स्वच्छता की उसी कड़ी में प्लास्टिक से छुटकारा शामिल हैं। पर्यावरण ही नहीं मनुष्य और पशुधन के जीवन के लिए भी यह बड़ा संकट बनकर पेश आई है, क्योंकि येन-केन-प्रकारेण प्लास्टिक खान-पान की चीजों के साथ पेट में पहुंच रही है। इससे जहां मनुष्य आबादी बीमारी की गिरफ्त में आ रही है, वहीं गाय जैसे मवेशी बड़ी संख्या में प्लास्टिक खाकर जान गंवा रहे है।

हिमालय से लेकर धरती का हर एक जलस्रोत इसके प्रभाव से प्रदूशित है। वैज्ञानिकों का तो यहां तक दावा है कि अंतरिक्ष में कबाड़ के रूप में जो 17 करोड़ टुकड़े इधर-उधर भटक रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या प्लास्टिक के कल-पुर्जों की है। नए शोधों से पता चला है कि अकेले आर्कटिक सागर में 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। एक और नए ताजा शोध से ज्ञात हुआ है कि दुनियाभर के समुद्रों में 50 प्रतिशत कचरा केवल उन कॉटन बड्स का है, जिनका उपयोग कान की सफाई के लिए किया जाता है। इन अध्ययनों से पता चला है कि 2050 आते-आते समुद्रों में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक कहीं ज्यादा होगा। भारत के समुद्रीय क्षेत्रों में तो प्लास्टिक का इतना अधिक मलबा एकत्रित हो गया है कि समुद्री जीव-जंतुओं को जीवन-यापन करना संकट साबित होने लगा है। ध्यान रहे कि एक बड़ी आबादी समुद्री मछलियों को आहार बनाती है।

एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्श 31.1 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। यही वजह है कि समूचा ब्रह्माण्ड प्लास्टिक कचरे की चपेट में है। जब भी हम प्लास्टिक के खतरनाक पहलुओं के बारे में सोचते हैं, तो एक बार अपनी उन गायों की ओर जरूर देखते हैं, जो कचरे में मुंह मारकर पेट भरती दिखाई देती हैं।

पेट में पॉलिथिन जमा हो जाने के कारण मरने वाले पशुधन की मौत की खबरें भी आए दिन आती रहती हैं। यह समस्या भारत की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है। यह बात भिन्न है कि हमारे यहां ज्यादा और खुलेआम दिखाई देती है। एक तो इसलिए कि स्वच्छता अभियान कई रूपों में चलाए जाने के बावजूद प्लास्टिक की थैलियों में भरा कचरा शहर, कस्बा और गांव की बस्तियों के नुक्कड़ों पर जमा मिल जाता है। यही बचा-खुचा कचरा नालियों से होता हुआ नदी, नालों, तालाबों से बहकर समुद्र में पहुंच जाता है।

प्लास्टिक की समुद्र में भयावह उपलब्धि की चैंकाने वाली रिपोर्ट यूके नेशनल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल ने भी जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक वर्श दुनिया भर के सागरों में 14 लाख टन प्लास्टिक विलय हो रहा है। सिर्फ इंगलैंड के ही समुद्रों में 50 लाख करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं। प्लास्टिक के ये बारीक कण (पार्टीकल) कपास-सलाई (कॉटन-बड्स) जैसे निजी सुरक्षा उत्पादों की देन हैं। ये समुद्री सतह को वजनी बनाकर इसका तापमान बढ़ा रहे हैं। समुद्र में मौजूद इस प्रदूषण के सामाधान की दिशा में पहल करते हुए इंग्लैंड की संसद ने पूरे देश में पर्सनल केयर प्रोडक्ट के प्रयोग पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पारित किया है।

इसमें खासतौर से उस कपास-सलाई का जिक्र है, जो कान की सफाई में इस्तेमाल होती है। प्लास्टिक की इस सलाई में दोनों और रूई के फोहे लगे होते हैं। इस्तेमाल के बाद फेंक दी गई यह सलाई सीवेज के जरिए समुद्र में पहुंच जाती हैं। गोया, दुनिया के समुद्रों में कुल कचरे का 50 फीसदी इन्हीं कपास-सलाईयों का है। इंग्लैंड के अलावा न्यूजीलैंड और इटली में भी कपास-सलाई को प्रतिबंधित करने की तैयारी शुरू हो गई है। दुनिया के 38 देशों के 93 स्वयंसेवी संगठन समुद्र और अन्य जल स्रोतों में घुल रही प्लास्टिक से छुटकारे के लिए प्रयत्नशील हैं। इनके द्वारा लाई गई जागरूकता का ही प्रतिफल है कि दुनिया की 119 कंपनियों ने 448 प्रकार के व्यक्तिगत सुरक्षा उत्पादों में प्लास्टिक का प्रयोग पूरी तरह बंद कर दिया है। अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आठ यूरोपीय देशों में जॉनसन एंड जॉनसन भी कपास-सलाई की बिक्री बंद करने जा रही है।

प्लास्टिक के इन टुकड़ों के मनुश्य पर प्रभाव से बचने का प्रमुख उपाय यही है कि उपयोग में लाने के बाद प्लास्टिक के हरेक टुकड़े को इकट्ठा कर उसे पुनर्चक्रित किया जाए। विश्व आर्थिक संगठन के अनुसार दुनियाभर में हर साल 311 टन प्लास्टिक बनाया जा रहा है। इसमें से केवल 14 प्रतिशत प्लास्टिक को पुनर्चक्रित करना संभव हुआ है। भारत के केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय महानगरों में प्लास्टिक कचरे का पुनर्चक्ररण कर बिजली और ईंधन बनाने में लगा है।

साथ ही प्लास्टिक के चूर्ण से शहरों और ग्रामों में सड़के बनाने में सफलता मिल रही है। आधुनिक युग में मानव की तरक्की में प्लास्टिक ने अमूल्य योगदान दिया है। इसलिए कबाड़ के रूप में जो प्लास्टिक अपशिष्ट बचता है, उसका पुनर्चक्रण करना जरूरी है। क्योंकि प्लास्टिक के यौगिकों की यह खासियत है कि ये करीब 400 साल तक नष्ट नहीं होते हैं। इनमें भी प्लास्टिक की ‘पोली एथलीन टेराप्थलेट’ ऐसी किस्म है, जो इससे भी ज्यादा लंबे समय तक जैविक प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद नश्ट नहीं होती है। इसलिए प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर इससे नए उत्पाद बनाने और इसके बाद भी बचे रह जाने वाले अवशेषों को जीवाणुओं के जरिए नश्ट करने की जरूरत है।

यदि भारत में कचरा प्रबंधन सुनियोजित और कचरे का पुनर्चक्रण उद्योगों की श्रृंखला खड़ी करके शुरू हो जाए तो इस समस्या का निदान तो संभव होगा ही रोजगार के नए रास्ते भी खुलेंगे। भारत में जो प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, उसमें से 40 प्रतिशत का आज भी पुनर्चक्रण नहीं हो पा रहा है। यही नालियों सीवरों और नदी-नालों से होता हुआ समुद्र में पहुंच जाता है। प्लास्टिक की विलक्षण्ता यह भी है कि इसे तकनीक के मार्फत पांच बार से भी अधिक मर्तबा पुनर्चक्रित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान इससे वैक्टो आॅयल भी सह उत्पाद के रूप में निकलता है, इसे डीजल वाहनों में ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया और जापान समेत अनेक देश इस कचरे से ईंधन प्राप्त कर रहे हैं।

आॅस्ट्रेलियाई पायलेट रॉसेल ने तो 16 हजार 898 किमी का सफर इसी ईंधन को विमान में डालकर विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है। गोया, प्लास्टिक वस्तुओं के बेवजह उपयोग पर प्रतिबंध तो लगे ही, इसे पुनर्चक्रित करके इसके सह-उत्पाद भी बनाए जाएं। बहरहाल, प्रधानमंत्री की मुहिम इस दिशा में जरूर रंग लाएगी।
प्रमोद भार्गव