1947 के विभाजन का दर्द-बुजुर्गों की जुबानी :
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मोतीराम मल्होत्रा ने सुनाई सिंहरन पैदा करने वाली दास्तां
सच कहूँ/संजय मेहरा, गुरुग्राम। पाकिस्तान में थे तब मौज का जीवन जी रहे थे। किसी तरह की चिंता न थी। हर परिवार साधन संपन्न था। आपसी वैर भाव दूर-दूर तक नहीं था। अगस्त 1947 का महीने सबके लिए संकट लेकर आया। दो देश भारत-पाकिस्तान बने तौर लोगों का जीवन ही बदल गया। यह कहना है कि पाकिस्तान से भारत आए मोतीराम मल्होत्रा पुत्र गोकल चंद मल्होत्रा का।
मोतीराम मल्होत्रा बताते हैं कि उनकी पैदाइश पश्चिमी पाकिस्तान के जिला मियांवाली तहसील बक्खर गांव पीर साहब में हुई। उनका जन्म 10 अगस्त 1933 को हुआ था। बंटवारे के समय वे 14 साल के थे। जिस उम्र में अच्छी शिक्षा हासिल करके जीवन में कामयाबी होने के सपने देखे जाते हैं। उस उम्र में उन्हें बंटवारे का दंश झेलना पड़ा। यह बहुत बड़ी पीड़ा थी। जब बंटवारा हुआ तो वे लोग भी दुश्मन हो गये, जिनके साथ एक थाली में खाना होता था। मोतीराम के मुताबिक किसी तरह अपनी जान बचाकर उनका परिवार गांव से तहसील बक्खर जिला मियांवाली में पहुंचे। वहां से भारत पहुंचने की योजना बनी।
भारत सुरक्षित पहुंचना परिवार के लिए बहुत बड़ी चुनौती था। सैनिकों ने भी बहुत मदद की। किसी तरह से पाकिस्तान से निकलकर भारत पहुंचने के लिए निकले। रास्ते में कठिनाई बहुत आई। जान पर सांसत बनी, लेकिन उनकी अच्छी किस्मत थी कि वे सुरक्षित भारत पहुंच गये। भारत आने के बाद वर्ष 1948 में उन्हें सिविल लाइन गुरुग्राम में टैंट में स्थान मिला। यहां वे शरणार्थी बनकर रहे। बुजुर्गों ने यहां पहुंचकर जी-तोड़ मेहनत की। मांगकर मुफ्त का खाने की बजाय उन्होंने श्रम करके गुजारा किया। अपनी पीढ़ियों को भी यही सिखाया। उन बुजुर्गों की मेहनत की बदौलत अगली पीढ़ियों ने यहां शिक्षा हासिल की। उस शिक्षा की बदौलत नौकरियां मिलीं। बहुतों ने अपना बिजनेस शुरू किया। अब तीसरी और चौथी पीढ़ियां कामयाबी की वह सीढ़ी चढ़ चुकी हैं, जो हर किसी की किस्मत में नहीं होती। हर क्षेत्र में आज पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए लोगों की अगली पीढ़ियों का बोलबाला है।
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