अमृतसर में दशहरा पर्व के दिन घटित रेल हादसा बेहद दर्दनाक था, जिसने 60 से अधिक जिंदगीयों को निगल लिया। हादसे की चीख पुकार इस कारण भी दर्दनाक है कि यह हादसा एक खुशी के पर्व पर हुआ। रावण दहन को देखने पहुंचे दर्जनों लोग कुछ सैकिंड में रेलगाड़ी की चपेट में आ गए। नि:संदेह इस मामले में संबंधित विभागों के अधिकारियों की जिम्मेवारी तय होनी है लेकिन हाल-फिलहाल मृतकों को सांत्वना देना व घायलों का इलाज करवाना जरूरी है। पूरे शहर में शोक की लहर का माहौल है व पूरा देश इस हादसे से दुखी है। बड़ी हैरानी की बात है कि चीख पुकार में राजनेता अपनी सियासी रोटियां सेकने की आदत से बाज नहीं आए। किसी नेता ने घायलों का हालचाल पूछा हो या नहीं, किसी मृतक के परिवार को हौंसला दिया हो या नहीं, लेकिन टीवी पर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से पीछे नहीं हट रहे। मृतकों के परिवार में मातम पसरा हुआ है, जिन्हें सांत्वना देने की जरूरत थी। दूसरी तरफ अभी मृतक देहों का संस्कार भी नहीं हुआ था कि नेताओं ने अगले दिन ही प्रैस कांफ्रैंस कर दी।
अकाली नेता सुखबीर बादल, बिक्रम मजीठिया, हरसिमरत कौर बादल ने जमकर बयानबाजी की व कांग्रेस के एक मंत्री से इंस्तीफा मांगा। दरअसल राजनेता एक दूसरे की जो गलतियां उछाल रहे हैं यदि यह हादसे से संबंधित कार्यक्रम के प्रबंधों की खामियों की जनता के सामने पहले ही खोल देते तो फिर ही इन लोगों को हमदर्द समझा जा सकता था। अब घड़ियाली आंसू बहाने व मीडिया को सुनाने की बजाए नेता दुखियों के दुख में शामिल हों। मृतकों की चिता की आग को ठंडी नहीं होने दिया। रेलवे पटरी पर बहा खून प्रशासनिक लापरवाहियों को उजागर करता है। प्रशासन बड़े कार्यक्रमों को कैसे न कैसे निपटाने तक सीमित रहता है, सभ्य प्रबंध करने की बजाय, समय निकालने की विचारधारा हावी है। राजनेता सत्ताधारी हों या विरोधी, किसी को लोगों के हितों व कार्यक्रमोंं की सुरक्षा की चिंता नहीं होती। समय के बदलने के साथ-साथ कार्यक्रमों के प्रबंधों में कोई बदलाव नहीं किया जाता। सत्तापक्ष अपना नाम चमकाने व विपक्ष हादसा होने के बाद निंदा का राग अलापते हैं। इस जोर-आजमाइश में आम जनता पिस रही है, एक दुखदाई घटना घट जाती है, जिससे सबक नहीं लिया जाता। फिर एक और घटना घट जाती है। सत्तापक्ष व विपक्ष में निंदा की जंग जारी रहती है। यहां व्यक्ति को केवल आंकड़े माना जाता है, भावना व रिश्तों का कोई मूल्य नहीं।
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