समझता है बॉलीवुड समझाने वाला चाहिए

(सच कहूँ न्यूज) रतीयों का फिल्म जगत से बहुत लगाव रहा है। कुछ दशक पहले ग्रामीण सपरिवार घूमने शहर जाया करते थे, जहाँ सिनेमा देखना उनका मुख्य आकर्षण होता था। किसान मंडी में फल-सब्जियाँ बेचने जाते, उनमें से कुछ सिनेमा देख कर वापस आते। शैक्षणिक संस्थानों से कुछ विद्यार्थी पढ़ाई छोड़कर सिनेमा देखा करते थे। गाँवों से लखनऊ आये कुछ विद्यार्थी पास-पास स्थित अलग-अलग सिनेमाघरों में दिनभर में सभी 4-शो देखकर सिनेमाबाजी में प्रतिस्पर्धा करते थे। यद्यपि इनमें अधिकांश पढ़ाई पर ध्यान न देने के कारण परीक्षा में फेल हो जाते थे। मनोरंजन के नाम पर सिनेमा के प्रति इस प्रकार असीमित आकर्षण उचित नहीं माना जा सकता है।

यह भी पढ़ें:– बच्चों के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता को रोका जाए

पिछले दशकों में देश में शिक्षा का स्तर बहुत बढ़ गया है। गाँवों के विद्युतीकरण से दूरदर्शन व मनोरंजन के अन्य साधन भी उपलब्ध हो गये हैं। शहरों में भी दूरदर्शन की उपलब्धता बढ़ी है, व मनोरंजन के अन्य साधनों का विस्तार हुआ है। विद्युतीकरण, दूरदर्शन, इन्टरनेट, कम्प्यूटर व स्मार्ट-मोबाइल फोन ने शहर व गाँव के बीच अन्तर समाप्त कर दिया है। मनोरंजन के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में जानकारी प्राप्त करने में भी यह साधन महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। साथ ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स ने विचार व्यक्त करने का अवसर भी दिया है। समाज में जागरूकता बढ़ रही है।

हिन्दी-सिनेमा दर्शक फिल्मी हस्तियों को आदर्श मानकर बहुत सम्मान देता रहा है। उनके आदर्शवादी अभिनय से आकर्षित होकर, युवाओं को उनके जैसा बनने व व्यवहार करने का अभ्यास करते देखा गया है। बॉलीवुड द्वारा समाज में इस आकर्षण का अधिक से अधिक लाभ लेने के लिए फिल्मों में क्रूरता, अश्लीलता, अभद्र संवाद व अभिनेत्रियों द्वारा अभद्र अंग प्रदर्शन, आदि ठूंस-ठूंस कर भरा गया है। विज्ञापनों की दुनिया में भी ऐसा ही हुआ है। कॉमेडी के नाम पर परिजनों व सम्मानितजनों का उपहास कर अपमानित करने का अनौपचारिक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। समाज के एक वर्ग द्वारा विरोध करने पर यह कह कर अनसुना कर दिया जाता है, कि यह कहानी की माँग है, या यह दर्शक की पसंद है। अहंकारवश कुछ सितारे यहां तक कह देते हैं कि जिसको देखना है वह देखे, हम जबरदस्ती नहीं करते। कभी-कभी तो आलोचकों को समाज व संस्कृति का ठेकेदार बताकर अपमानित किया जाता है।

मीडिया के माध्यम से जैसे-जैसे फिल्मी हस्तियों के बारे में जानकारी मिलती जा रही है, समाज में उनके प्रति आकर्षण कम होता जा रहा है। जून-2020 में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद फिल्मी हस्तियों में बयानबाजी, मीडिया-ट्रायल व पुलिस-जाँच से हुए खुलासों से समाज को समझ में आ गया है कि बॉलीवुड के ढोल के भीतर बिल्कुल पोल है। फिल्मी हस्तियों का एक बड़ा वर्ग उन सभी बुराईयों से ग्रस्त है, जिनसे प्राय: समाज घृणा करता है। पक्षपात, अनैतिक आचरण, भ्रष्टाचार, नशाखोरी आदि बुराइयाँ फिल्म जगत की अनेक हस्तियों की पहचान बन गयी है।

बॉलीवुड से जुड़ा एक बड़ा वर्ग व्यक्तिगत जीवन में राष्ट्रवाद व हिन्दू संस्कृति का विरोध करता रहा है। लव जिहाद, गौहत्या, हिन्दुओं का जबरदस्ती धर्मांतरण, हिन्दुओं की नृशंस हत्या, आदि विषयों पर फिल्मी सितारे प्राय: चुप रहते हैं। लेकिन मुसलमानों पर केवल अफवाह फैलने पर भी यह सेक्युलर बनकर उनके साथ खड़े हो जाते हैं, और बिना प्रामाणिक जानकारी के बयानबाजी करते हैं। कुछ तो देश में मुसलमानों के लिए असुरक्षा बताकर दुष्प्रचार करते हैं। कुछ देशविरोधी गतिविधियों में भी साथ देते हैं। नागरिकता कानून संशोधन विरोधी आंदोलन के समय इनके व्यवहार व बयानबाजी भुलाये नहीं जा सकते।

सितम्बर-2012 में आयी फिल्म ‘ओह माई गॉड’ में अभिनेता परेश रावल ने शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का मजाक उड़ाया। इतना ही नहीं फिल्म का प्रचार करते समय अभिनेता अक्षय कुमार ने शिवलिंग पर दूध चढ़ाने, भक्त हनुमान की मूर्ति पर तेल चढाने व मन्दिर में नारियल फोड़ने का खुलकर विरोध किया था। दिसम्बर-2014 में आयी फिल्म ‘पीके’ खुल्लमखुल्ला सामाजिक मान्यताओं व हिन्दू आस्था का मजाक प्रदर्शित करती है। अक्टूबर-2015 का तनिष्क (ज्वैलरी ब्रांड) द्वारा मुस्लिम परिवारों के सेक्युलर ब्यवहार को महिमामंडित करने वाला विज्ञापन भुलाया नहीं जा सकता। जनवरी-2018 में आयी फिल्म ‘(पद्मावती से नाम बदलकर) पद्मावत’ पर महारानी पद्मावती को अस्वीकार्य ढंग से दिखाने के आरोप लगे हैं। ब्यापक विरोध के कारण कई राज्यों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था, पर सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर फिल्म को हरी झंडी दे दी।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सर्वमान्य है, पर वह देश व समग्र समाज के लिए सदैव कल्याणकारी होने की गारंटी नहीं देता। एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी, न्यायामूर्ति जे. एस. वर्मा का बयान कई बार याद दिला चुके हैं कि सर्वोच्च न्यायालय, सर्वोच्च है पर अचूक नहीं। इस निर्णय से समाज को निराशा हुई। समाज में जागरूकता बढ़ने से विवादित विषयवस्तु आधारित प्रचार मॉडल का टूल-किट समझ में आ रहा है। अब बॉलीवुड की निरंकुशता पर अंकुश लगाने के लिए समाज के पास सोशल मीडिया पर बॉलीवुड का बहिष्कार करना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। आखिर भटके हुए बॉलीवुड का मार्गदर्शन करना भी तो समाज का दायित्व है। ‘बॉलीवुड का बहिष्कार’ मुहिम में भाग लेने वाला युवा-समाज अपना दायित्व निभा रहा है।

यहां यह समझना आवश्यक है कि लोकतंत्र में मतदाता के लिए सियासी दलों का घोषणापत्र और उम्मीदवार का चरित्र दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। इसी प्रकार अभिनय के क्षेत्र में दर्शकों के लिए कहानी की विषयवस्तु व अभिनेताओं का चरित्र दोनों महत्वपूर्ण होते हैं। विषयवस्तु राष्ट्रहितकारी हो व अभिनेताओं का आचरण भी अनुकरणीय हो। यद्यपि बॉलीवुड में कई सज्जन व राष्ट्रप्रेमी सितारे भी हैं, पर एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है, और गेहूँ के साथ घुन भी पिस सकता है। इसलिए उन्हें खुलकर सामने आना होगा। उल्लेखलीय है कि सेंसर बोर्ड व सरकार द्वारा कार्रवाई करने पर न्यायालय में शरण मिल सकती है, पर आधुनिक युग में सोशल मीडिया से सुसज्जित समाज के प्रकोप से बचने के लिए कहीं शरण नहीं मिलती। आज-कल कई सितारे फिल्मों के समर्थन के लिए सत्तारूढ़ दल भाजपा के साथ जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं, पर उन्हें शॉर्टकट की बजाय आत्मनिरीक्षणकर समाज की भावनावों के अनुरूप राष्ट्रहितकारी सुधार करना चाहिए। उन्हें बॉलीवुड को देश की सॉफ्टपावर बनाकर देश को महाशक्ति बनाने की दिशा प्रयास करना चाहिए। यही योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त है।

पिछले कुछ दशकों से फिल्म जगत में एक नया प्रचार मॉडल विकसित किया गया है। जिसके तहत फिल्मों, नाटकों व विज्ञापनों में विवादित विषयवस्तु डालकर समाज में ब्यापक स्तर पर विवाद उकसाया जाता है, ताकि समाज में फिल्म या नाटक देखने के लिए उत्सुकता बढ़े, व विज्ञापन समाज के मष्तिष्क पटल पर लम्बे समय तक बना रहे। यह प्रचार मॉडल प्राय: सफल भी रहा है। अपराधियों को महिमामंडन करना, हिन्दू आस्था पर चोट करना, मुस्लिम समाज का महिमामंडन करना, व इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना, आदि इसी टूल-किट का हिस्सा रहे हैं। अब-तक दर्जनों फिल्में विवादों के घेरे में रही हैं, कुछ धारावाहिक नाटक व विज्ञापन भी इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं। इस विषय में सेंसर बोर्ड भी लाचार दिखायी देता है।

                              (यह लेखक के अपने विचार हैं) डा. प्रदीप कुमार सिंह वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और TwitterInstagramLinkedIn , YouTube  पर फॉलो करें।