सहयोगी दलों के लिए जूझती भाजपा

BJP, Effort, Allies

इटली के मार्क्सवादी एंटोनियो ग्रेमसकी के वार आॅफ पोजिशंस और वार आॅफ मैनुवर्स सत्ता संघर्ष के दो अलग-अलग चरणों को दशार्ते हैं। वार आॅफ पोजिशंस एक धीमा और परोक्ष संघर्ष है जहां पर शक्तियां प्रभाव और ताकत प्राप्त करते हैं जबकि वार आॅफ मैनुवर्स विभिन्न पक्षों के बीच खुले संघर्ष का चरण है जिसका परिणाम इन पक्षों के बीच सीधे मुकाबले से निर्धारित होता है।

आज हमारे देश में भी ऐसा समय आ गया है जहां पर राजनीतिक दल अपना वोट बैंक बनाना चाहते हैं और मतदाताओं का तुष्टिकरण करते हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य है कि जीत हो। हाल ही में लोक सभा की चार और विधान सभा की 11 सीटों के लिए हुए उपचुनावों में राजग को इन 15 सीटों में से केवल तीन सीटें मिली जो कि भाजपा के लिए एक बुरी खबर है और विपक्ष के लिए यह संदेश है कि स्थानीय स्तर पर एकता से भाजपा को हराया जा सकता है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के कैराना में अजीत सिंह के रालोद की उम्मीदवार को मायावती की बसपा, अखिलेश के सपा और राहुल की कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था और उसने भाजपा उम्मीदवार को हराया।

यह जीत बताती है कि हालांकि सपा, बसपा और रालोद अलग-अलग सामाजिक समूहों जाट, मुस्लिम, दलित का प्रतिनिधत्व करते हैं किंतु उन्हें एक मुस्लिम उम्मीदवार के लिए मतदान करने के लिए एकजुट किया जा सकता है। हालांकि इस इलाके में हाल ही में जाटों और मुसलमानों में सांप्रदायिक संघर्ष भी हुआ है।

यह जीत कर्नाटक जीत की तरह है जहां पर भाजपा ने अपना मत प्रतिशत बढ़ाया किंतु विपक्ष की एकता के कारण उसे मुंह की खानी पड़ी। बिहार में लालू की राजद ने भाजपा के सहयोगी जदयू से एक विधान सभा सीट छीनी। यह भी भाजपा के लिए बुरी खबर है। किंतु प्रश्न उठता है कि क्या विपक्ष 2019 के चुनावों तक के लिए इस एकता को बनाए रख पाएगा।

वर्ष 2014 में मोदी की सुनामी के बाद हिन्दुओं के गढ़ में भगवा संघ की हार से अनेक प्रश्न उठते हैं। क्या भाजपा की अपराजेयता समाप्त हो रही है? क्या हिन्दुत्व का मुद्दा मृतप्राय हो रहा है? क्या प्रशासन विरोधी लहर तथा विपक्षी दलों में एकता से भाजपा की चुनावी मशीन पर ब्रेक लग रहा है? क्या इन उपचुनावों का 2019 के चुनावों पर प्रभाव नहीं पडेÞगा? क्या उन्होंने 2019 की दिशा तय कर दी है?

निश्चित रूप से विपक्ष की एकता आसान नहंी है क्योंकि विभिन्न पार्टियों का उद्देश्य और एजेंडा अलग- अलग है। इसके अलावा भाजपा की स्थिति मजबूत है। मोदी का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है और अमित शाह ने भाजपा को एक चुनावी मशीन बना दिया है। वे लगातार चुनाव जीत रहे हैं। भाजपा 21 राज्यों में सत्तारूढ़ है जिनमें त्रिपुरा जैसा राज्य भी है जहां पर उसका व्यापक जनाधार नहीं है। तथापि मोदी सरकार अपने वायदे पूरे नहंी कर पायी। अर्थवयवस्था का प्रदर्शन अपेक्षानुसार नहीं रहा।

ग्रामीण क्षेत्र नाराज हैं, शहरी क्षेत्रों के लोग उदासीन हैं, युवा नाराज हैं क्योंकि सरकार रोजगार के अवसर सृजित नहीं कर पायी और सांप्रदायिक धु्रवीकरण से चुनावी लाभ मिलने की संभावना कम है और भाजपा के मत प्रतिशत में गिरावट भी आयी है। इस हार ने भाजपा के लिए नए विकल्पों के द्वार भी खोले हैं। एक वर्ष पूर्व भाजपा की भारी जीत की उम्मीद थी जो अब नहीं है। इस हार से यह भी सबक मिला है कि भाजपा विपक्ष की एकता को हल्के में नहंी ले सकती है और इसके लिए उसे नई रणनीति बनानी पड़ेगी।

इन उपचुनावों में भाजपा की नौ लोक सभा सीटों पर हार हुई है और लोक सभा में उसका अब केवल 272 सांसदों का साधारण बहुमत रह गया है और अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए वह अब अपने सहयोगी दलों पर निर्भर है और 2019 तक इस संख्या में और गिरावट आ सकती है।

कुछ राजनीतिक विज्ञानियों का कहना है कि केन्द्र में सत्ता में रहने के लिए भाजपा हिन्दू वोट बैंक का सहारा ले सकती है। भाजपा के सहयोगी शिव सेना और जद (यू) गठबंधन में सहज नहीं है और राजग में रहने के लाभों का आकलन कर रहे हैं। उपचुनाव में भाजपा की हार के कुछ घंटों बाद ही इसके सहयोगियों ने अपना असंतोष व्यक्त कर दिया। शिव सेना के उद्धव ठाकरे और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि भाजपा को देशभर में विभिन्न मुद्दों विशेषकर पेट्रोल और डीजल के मूल्यों के बारे में सरकार के प्रति असंतोष के मुद्दे से ठीक से निपटना चाहिए। वे यह भी चाहते हैं कि भाजपा गठबंधन के सहयोगी दलों को हल्के में न ले।

उनका कहना है कि राजग एक बड़ा गठबंधन है और हमें आशा है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह गठबंधन के सहयोगी दलों के साथ संपर्क बनाने के लिए बेहतर पहल करेंगे। भाजपा को कोई कम ही सलाह देता है किंतु बिहार को विशेष श्रेणी का दर्जा न दिए जाने के केन्द्र के निर्णय पर नाराजगी जताते हुए नीतीश ने यह कठोर बयान दिया है।

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने भी स्पष्टत: कहा है कि भाजपा को अपने वर्चस्ववादी रूख को छोड़ना चाहिए और राजग के भीतर समन्वय बनाना चाहिए। आंध्र प्रदेश के तेदेपा नेता चन्द्रबाबू नायडू मोदी द्वारा अपने वायदे को पूरा न करने के कारण गठबंधन छोड़ दिया गया है। संघ अब अपनी रणनीति को सुदृढ़ बनाने और नए सहयोगी ढूंढने में व्यस्त है और उसने पहले ही करूणानिधि, पंवार तथा जगनमोहन रेड्डी को संदेश भेजे हैं।

कुछ राज्यों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोदी-शाह की टीम के बीच भी समन्वय नहीं है। भाजपा को जानने वाले लोगों का मानना है कि मोहन भागवत का यह बयान कि लोगों को बातें कम और काम अधिक करना चाहिए वह नमो पर एक कटाक्ष है। किंतु भाजपा के नेता ऐसी बातों को केवल अफवाह कहते हैं। एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा के बीच सुदृढ़ समन्वय है।

पार्टी में भाई-भतीजावाद के लिए कोई स्थान नहंी है। मोदी की नयी योजनाएं शासन-प्रशासन और गठबंधन के सहयोगी दलों को सम्मान ये तीन मुख्य कारक हैं जिनके चलते पार्टी सत्ता में बनी रहेगी। उत्तर प्रदेश के प्रयोग अर्थात बसपा द्वारा सपा का समर्थन ने 2019 के लिए विपक्षी दलों को अलीबाबा की गुफा में घुसने के लिए खुल जा सिम सिम का मंत्र दे दिया है।

बिहार के बाद उत्तर प्रदेश के उपचुनावों ने यह साबित कर दिया है कि यदि विपक्ष एकजुट हो जाए तो मोदी की लहर को रोका जा सकता है। गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में बुआ-भतीजे का नारा 2019 के आम चुनावों का नारा भी बन सकता है। मायावती को खुश होना चाहिए क्योंकि अंतत: उसका राजनीतिक वनवास समाप्त हो जाएगा। अगले वर्ष के चुनावों से पूर्व सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच सीटों का बंटवारा हो जाएगा।

राहुल की कांग्रेस के लिए यह एक आदर्श स्थिति है क्योंकि उसे इस वर्षान्त में राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्य प्रदेश विधान सभाओं का सामना करना है और फिर 2019 के चुनावों की तैयारी करनी है। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (एस) के बीच मंत्री पदों के आवंटन को लेकर चली तू-तू, मैं-मैं से स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों को अपने अहंकार को अलग रखना होगा और विपक्षी एकता के मार्ग में अड़चनें नहंी खड़ी करनी होंगी।

जैसा कि मायावती ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि विपक्षी एकता के लिए सीटों के आवंटन में उचित हिस्सेदारी आवश्यक है। ये पार्टियां जानती हैं कि वे भाजपा का मुकाबला करने के लिए अपनी पुरानी प्रतिद्वंदिता और मतभेदों को भुला रहे हैं। किंतु वे जानते हैं कि इसमें अड़चनें भी आ सकती हैं और इसमें सबसे बड़ी अड़चन यह होगी कि 2019 में नमो की भाजपा का मुकाबला करने के लिए महागठबंधन में क्या कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के कनिष्ठ साझीदार की भूमिका निभाने के लिए तैयार है।

कुल मिलाकर उपचुनावों मे भाजपा की हार बताती है कि मोदी और शाह को पार्टी मे अंदरूनी कमियों को दूर करना होगा। राज्य स्तर पर पार्टी नेतृत्व को सुदृढ करना होगा, पार्टी को तत्काल सुधारात्मक कदम उठाने होंगे, पार्टी में किसी तरह के मतभेदों से उसका जनाधार धराशायी हो सकता है। भाजपा इस हार के कारणों की समीक्षा करेगी और 2019 के चुनावों के लिए अपनी रणनीति को और पैना बनाएगी।

नमो को और मेहनत करनी होगी। वे अपने प्रतिस्पर्धियों के मामले में अभिनव प्रयोग करने वाले हैं और उन्हें फिर से पहल पर पकड बनानी होगी। साथ ही पार्टी को बडे पैमाने पर अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव करना होगा। क्या वे ऐसा कर पाएंगे? अन्यथा भाजपा और मोदी यही कहेंगे 272 इतने नजदीक आकर भी बहुत दूर। इसलिए सहयोगी दलों की खोज के लिए संघर्ष हेतु भी उसे तैयार रहना चाहिए।

पूनम आई कौशिश (इंफा)

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