हाल ही में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ने पेरिस में ‘ग्लोबल असेसमेंट स्टडी’ को जारी करते हुए कहा कि प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्र में विविधिता का संरक्षण करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करना। जिन वनस्पतियों और जीवों पर खतरा मंडरा रहा है उनका जिक्र करते हुए रिपोर्ट कहती है कि मानवीय गतिविधियां पहले की तुलना में कहीं अधिक प्रजातियों को जोखिम में डाल रही हैं। पौधों और जीव समूहों की करीब 25 फीसदी प्रजातियां विलुप्ति के खतरे का सामना कर रही हैं। अगर जैव विविधता के गायब होने वाले कारकों से निपटने के लिए प्रयास नहीं हुए तो दस लाख से अधिक प्रजातियों के कुछ ही दशकों में विलुप्त हो जाने की आशंका है। रिपोर्ट का कहना है कि मूल निवासियों और स्थानीय समुदायों द्वारा कई प्रयास होने के बावजूद 2016 तक, पालतू स्तनधारी पशुओं की 6,190 में से 559 प्रजातियां विलुप्त हो गईं। उनका इस्तेमाल भोजन तैयार करने और कृषि उत्पादन में किया जाता था। एक हजार प्रजातियों पर खतरा अब भी मंडरा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि कई फसलें ऐसी हैं जिनकी जंगली प्रजातियों का होना दीर्घकाली खाद्य सुरक्षा के नजरिए से जरूरी है लेकिन उन्हें प्रभावी संरक्षण नहीं मिल पा रहा है। साथ ही पालतू स्तनपायी पशुओं और पक्षियों की जंगली प्रजातियों के लिए भी हालात विकट हो रहे हैं। इसके चलते भविष्य में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जरूरी सहनशीलता को झटका लग सकता है।
रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर स्थानों पर पहले की तुलना में कहीं अधिक भोजन, ऊर्जा और सामग्री को पहुंचाया जा रहा है लेकिन ऐसा प्रकृति की कीमत पर हो रहा है और भविष्य में यह योगदान जारी रखने की उसकी क्षमता प्रभावित हो रही है। वहीं प्रदूषण के मुद्दे पर मिश्रित वैश्विक रुझान देखने को मिले हैं लेकिन कुछ क्षेत्रों में वायु, जल और भूमि प्रदूषण का बढ़ना अब भी जारी है। समुद्री जल में प्लास्टिक प्रदूषण में 1980 के बाद से 10 गुना बढ़ोतरी देखने को मिली है जिससे कम से कम 267 प्रजातियों के लिए खतरा बढ़ गया है। इनमें 86 फीसदी समुद्री कछुए, 44 फीसदी समुद्री पक्षी और 43 प्रतिशत समुद्री स्तनपायी जीव हैं। अपनी तरह की यह पहली रिपोर्ट है जिसमें मूल निवासियों और स्थानीय लोगों के ज्ञान, मुद्दों और प्राथमिकताओं को भी शामिल किया गया है। आईपीबीईएस की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि उसका मिशन जैव विविधता के टिकाऊ इस्तेमाल, दीर्घकालीन मानव कल्याण और टिकाऊ विकास के लिए नीति-निर्माण की प्रक्रिया को मजबूत करना है।
निरंतर तीव्र गति से हो रही वनों की कटाई, औद्योगिक अपशिष्ट व खतरनाक रसायनों के समुद्र में मिलने व मानव द्वारा अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु किये गए जंगली जानवरों के आखेट जैसे मानवीय क्रियाकलाप प्रजातियों के विलुप्त होने के लिए जिम्मेदार कारक हंै। हम भूलते जा रहे हैं कि हमारे द्वारा किये गए ये अनैतिक व अविवेकपूर्ण कार्यों से वन्यजीवों व वनस्पति जगत को नुकसान पहुंच रहा है। जैव विविधता का ह्रस मानवीय अस्तित्व के अंत का सूचक है। पृथ्वी के संतुलन को बनाए रखने व मानव की उदरपूर्ति के लिए जैव विविधता एक अनिवार्य कारक है। यदि जैव विविधता का इसी गति से ह्रास होता गया तो खाद्य श्रृंखला व जैविक चक्र का क्रम बिगड़ने के कारण मनुष्य का अस्तित्व संकट में आ जाएगा। जरूरत है कि हम आने वाले खतरे को भांपते हुए अभी से संजीदा होकर आवासीय उपलब्धिता के लिए जंगलों का साफ कर रही बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करें, ऐसे उद्योग-धंधों को बंद करें जो वन्यजीवों को बड़े स्तर पर प्रभावित करते हैं, पहाड़ों पर हो रहे खनन पर रोक के साथ ही ऐसी फैक्ट्रियों पर शिकंजा कसें जो जहरीले पदार्थ व रसायनों को सागर में छोड़ती है।
असल में हमें आॅस्ट्रेलिया के विख्यात भूगोलवेत्ता ग्रिफिथ टेलर द्वारा प्रतिपादित ‘रुको और जाओ’ के सिद्धांत का अनुसरण करने की जरूरत है। जो कहता है कि इंसान पहले थोड़ा रुककर यह चिंतन कर लें कि उसके द्वारा किये जा रहे कार्य से कई प्रकृति व किसी भी जैविक घटक को कई क्षति तो नहीं पहुंच रही है। जब ट्रैफिक हवलदार की तरह प्रकृति मनुष्य को हरा सिग्नल दिखाए, तब ही वह आगे बढ़ें, अन्यथा रुक जाए। वही जलीय जीवों की मौत का बड़ा कारण बढ़ता तापमान है। बढ़ते तापमान को कम करने के लिए सीएफसी गैसों का उत्सर्जन रोकना होगा और इसके लिये रेफ्रीजिरेटर, एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिससे सीएफसी गैसें कम निकलती हों। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम ऐसा करके ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोककर रख पाते हैं तो कोरल मोर्टालिटी (समुद्री जीवों की मौत) 70 से 90 प्रतिशत रहने की संभावना है।
देवेन्द्रराज सुथार
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