जिस सर पर ताज होता है वह अकेलापन महसूस करता है, इस बात को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बेहतर कौन समझ सकता है जो बिहार के चाणक्य और सुशासन बाबू की अपनी पदवी को बचाने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे हैं। वह भी ऐसे राज्य में जहां पर राजनीति लोगों की रग-रग में बसी हुई है और राजनेता अवसरवाद, अपने लाभ तथा जातीय आधार पर फलफूल रहे हैं।
राज्य की राजनीति और चुनावों में जाति की मुख्य भूमिका है। कल तक लग रहा था कि 69 वर्षीय नीतीश कुमार चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन जाएंगे किंतु आज उन्हें अपनी स्थिति को बचाने के लिए मेहनत करनी पड़ रही है हालांकि भाग्य उनके साथ है। वे केवल प्रशासन विरोधी लहर से ही परेशान नहीं हैं किंतु आज उनके मित्र और दुश्मन दोनों उनके विरुद्ध हैं। नि:संदेह उनकी सहयोगी भाजपा कह रही है कि जनता दल (यू) के अध्यक्ष मुख्यमंत्री पद के लिए राजग के उम्मीदवार हैं किंतु तीन बातों से लगता है कि इस मैत्री में दरार पड़ सकती है।
पहला, मोदी ने आज तक नीतीश के साथ कोई भी संयुक्त रैली संबोधित नहीं की है। दूसरा, मोदी के पोस्टरों पर कहीं भी नीतीश की तस्वीर नहीं है और प्रधानमंत्री ने न तो लोजपा के चिराग पासवान से दूरी बनायी है न ही उनके साथ सुलह की है। जबकि चिराग पासवान कह रहे हैं कि मोदी उनके दिल में बसे हैं हालांकि उन्होंने नीतीश के विरुद्ध अपनी पार्टी का उम्मीदवार खड़ा किया है। शायद इसी वजह से सुसभ्य छवि वाले नीतीश कुमार चुनावी रैलियों में अपना धैर्य खोने लगे हैं और उन्हे आशंकाएं हो रही हैं कि क्या भाजपा अपने वायदे को पूरा करेगी या यदि (जद) यू पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं जीत पायी तो क्या उनका साथ छोड़ देगी।
नीतीश कुमार द्वारा लालू और तेजस्वी के विरुद्ध व्यक्तिगत प्रहार उनके स्वभाव के विपरीत है। आपको ध्यान में होगा कि वर्ष 2013 मे जद (यू) ने राजग से अपना 17 वर्षीय गठबंधन तोड़ दिया था जब मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था। इससे पूर्व नीतीश ने भाजपा के लिए एक रात्रि भोज का आयोजन रद्द कर दिया था क्योंकि भाजपा के पोस्टर में तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी द्वारा कोशी में बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र के लिए धन राशि देने का उल्लेख किया गया था। दोनों दलों के बीच 2017 में फिर से गठबंधन बना जब नीतीश राजद-कांग्रेस के महागठबंधन से अलग हो गए और फिर उन्होंने भाजपा के साथ सरकार बनायी। नीतीश कुमार पिछले 15 वषों से मुख्यमंत्री हैं और इस समय लगता है वे परेशानी में हैं और आम मतदाता से उनका संपर्क टूट गया है।
वस्तुत: उन्हें बिहार में बदलाव और सफलता लाने का श्रेय दिया जाता रहा है किंतु इस बार उन्हें एक बुजुर्ग आदमी के रूप में पेश किया जा रहा है जो नई पीढ़ी के नेताओं को स्थान नहीं दे रहे हैं । इस बात को लोग भूल गए हैं कि जदयू ने बिहार में कानून और व्यवस्था की स्थिति को बहाल किया, महिलाओं और महादलितों को अधिकार संपन्न बनाया, सड़कों और पुलों का निर्माण किया, बिजली, पानी उपलब्ध कराया, बालिकाओं को साइकिल उपलब्ध करायी।
लोगों में आम धारणा है कि विकास की गति में बिहार पिछड़ गया है किंतु नीतीश के लिए अभी आशाओं के द्वार बंद नहीं हुए हैं। लालू के युवराज के माध्यम से जंगलराज की वापसी की आशंकाएं लोगों को सता रही हैं। तेजस्वी यादव के रूप में लोग लालू शासन की वापसी की संभावनाओं से घबरा रहे हैं साथ ही नीतीश का कोई विकल्प नहीं है इसलिए नीतीश की आलोचनाओं का आम जनता पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ रहा है। परिवर्तन के लिए लोगों को विश्वास और आश्वासन चाहिए और नीतीश विश्वास और आश्वासन की प्रतिमूति हैं।
विड़ंबना देखिए कि जो वर्ग नीतीश का समर्थन कर रहे हैं वे मुख्यतया उच्च जातियों के हैं जिनकी निष्ठा मोदी के साथ है। भाजपा की पार्टी मशीनरी चुस्त-दुरूस्त है और उसे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संगठन की शक्ति प्राप्त है और उसके हौसले बुलंद हैं इसके दो कारण हैं। नीतीश की लोकप्रियता कम हो रही है। चुनावी पंड़ितों के अनुसार नीतीश की लोकप्रियता 35 से 40 प्रतिशत के बीच है जो भगवा ब्रिगेड को सामने लाने का उचित अवसर है। जिससे वह उसके बिना भी भविष्य में काम चला सकती है। दूसरा, पिछले 15 वर्षों में राज्य की राजनीति में मंडल राजनीति हावी रही।
जद (यू) के दबाव में भाजपा ने लोजपा के उम्मीदवारों से दूरी बनायी है जो भाजपा के उम्मीदवारों को समर्थन दे रही है और जद (यू) के उम्मीदवारों के विरुद्ध अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है। भाजपा ने सार्वजनिक रूप से चिराग की आलोचना की है हालांकि पार्टी के कार्यकर्ता लोजपा उम्मीदवरों का समर्थन कर रहे हैं और इस तरह मतदाताओं में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।
क्या यह चुनाव बिहार के चाणक्य का अंत होगा? क्या अंतत: बिहार में भगवा कमल खिलेगा क्या युवा तेजस्वी और चिराग अपने पिता लालू और पासवान की तरह बड़े नेता के रूप में उभरेंगे? दोनों पुराने मित्र हैं और अब दोनों ही नीतीश का विरोध कर रहे हैं और दूसरी ओर भाजपा नीतीश के पसीने छुड़ा रही है। इस सबका मूल कारण राज्य की जातीय राजनीति है। जिसके चलते 1980 के दशक की मंडल राजनीति और सामाजिक इंजीनियरिंग के लोगों को आगे बढाया जा रहा है। नीतीश की राजनीति अत्यंत पिछड़े वर्गों अर्थात गैर-यादव, अन्य पिछड़े वर्गों और महादलितों पर आधारित है जबकि तेजस्वी यादव मुस्लिम वोट बैंक और चिराग पासवान वोट बैंक पर निर्भर कर रहे हैं। भाजपा अपने उच्च जातीय वोट बैंक पर निर्भर है।
वस्तुत: बिहार चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव का संकेत दे सकता है। देश की आधे से अधिक जनसंख्या 18 से 35 आयु वर्ग में है और इस आयु वर्ग की आकांक्षाएं नाटकीय रूप से बदल गयी हैं। केवल वायदों से अब काम चलने वाला नहीं है और राजनीति में अब लोग ओबामा की तरह हां, हम कर सकते हैं, वायदों की मांग कर रहे हैं। तथापि चुनावी संघर्ष की राह गुलाबी रहने वाली नही है। आज के 247 डिजिटल दुनिया में एक नई राजनीति के उभरने की संभावना बनती है। बिहार के चुनावों ने एक नई चिंगारी को सुलगाया है जहां पर नई संभावनाओं ने जन्म लिया है।
भाजपा ने मंडल वातावरण में वैधता प्राप्त करने के लिए नीतीश का उपयोग किया किंतु अब मोदी और शाह को यह महसूस हो रहा है कि हिंदुत्व ब्रिगेड के लिए उनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी है। इसीलिए भाजपा लोक जनशक्ति पार्टी का उपयोग कर रही है और उसके प्रमुख चिराग का उपयोग जद (यू) के उम्मीदवारों को निशाना बनाने के लिए कर रही है और भाजपा को उम्मीद है कि ऐसा कर वह जनता दल (यू) से अधिक सीटें प्राप्त कर लेगी। राजद के 31 वर्षीय दसवीं कक्षा फेल क्रिकेट से नेता बने तेजस्वी महागठबंधन के नेता हैं। इस महागठबंन में कांग्रेस, भाकपा, माकपा और कुछ छोटी पार्टियां शामिल हैं और वे चुनाव पूर्व समस्याओं का सामना कर सामने आ रहे हैं और नीतीश को कड़ी टक्कर दे रहे हैं हालांकि उनके विरोधी कह रहे है कि तेजस्वी में राजनीति कुशलता की कमी है। किंतु उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे बहस का एजेंड़ा निर्धारित कर रहे हैं।
राजद के उत्तराधिकारी महत्वाकांक्षी हैं और अब वे अपन पिता और नीतीश से कुछ राजनीतिक चालें भी सीख गए हैं। सत्ता में आने के अवसर को भांपते हुए वह अपने विरोधी को निष्क्रिय करते हुए जनता से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं और स्थानीय भाषा में लोगों से वातार्लाप कर रहे हैं कि यह चुनाव कमाई, पढाई और दवाई के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। तेजस्वी ने 10 लाख रोजगार के अवसर सृजित करने का वायदा कर युवा मतदाताओं को आकर्षित किया है और उनकी रैलियों में भारी भीड़ उमड़ रही है जो उपमुख्यमंत्री के रूप में उनकी उपलब्धियों को प्रदर्शित करता है।
तथापि उनके समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती जंगलराज का कलंक है जो राजद के साथ जुड़ा हुआ है। बिहार में प्रवासी श्रमिकों के संकट के दौरान उनकी अनुपस्थिति पार्टी के लिए परेशानी का सबब है इसलिए वे रोजगार की तलाश करने वाले लोगों के रूप में एक नए साामजिक आधार की तलाश कर रहे हैं साथ ही लालू के मुस्लिम-यादव सामाजिक आधार को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहे हैं।
रामविलास पासवन के निधन से उनेक 37 वर्षीय बॉलीवुड फिल्मस्टार पुत्र अैर अब लोजपा के अध्यक्ष के रूप में चिराग पासवान ने नीतीश के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। किंतु उनके यह कदम उनके लिए हानिकर साबित हो सकता है। नीतीश कुमार दलित वोट बैंक पर निर्भर हैं जिनकी जनसंख्या राज्य में 17 प्रतिशत से अधिक है और यह राज्य की राजनीति में गेमचेंजर की भूमिका निभा सकता है। चिराग जद (यू) के मतदाताओं में सेंध लगाकर यह प्रयास कर रहे हैं कि भाजपा को ज्यादा सीटें मिले।
वस्तुत: इन मुद्दों को नीतीश पहले ही तीन चुनावों में भुना चुके हैं। राज्य में अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से कम है और अब वे नीतीश सरकार से असंतुष्ट हैं। राज्य में बदलाव की मांग की जा रही है और लोग यह मानने लगे हैं कि नीतीश कुमार सुशासन देने में असमर्थ रहे हैं विशेषकर इस पृष्ठभूमि में कि प्रवासी श्रमिकों के संकट के कारण आर्थिक संकट बढ़ा है और कोरोना महामारी से निपटने में नीतीश सरकार विफल रही है। युवा पीढ़ी की महत्वाकांक्षाओं के निराकरण के बारे में सुशासन बाबू का रवैया ढुलमुल रहा है और रोजगार जैसे मुख्य मुद्दों पर उनकी सरकार की भूमिका प्रभावी नहीं रही है।
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